ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, April 2, 2011

...जहां आम्रपाली बनी बोद्ध भिक्षुणी

-डॉ. राजेश कुमार व्यास -
आर्यावर्त्त प्रदेष रहा है आज का बिहार। भगवान बुद्ध और महावीर की चरणधूली से पवित्र हुआ प्रदेष।... पटना से कोई 60 किलोमीटर ही दूर है-बाखिरा। बाखिरा माने कोल्हुआ।...मौर्य सम्राट अषोक के सिंह स्तम्भ के साथ ही राजनर्तकी आम्रपाली का हृदय परिवर्तन स्थल। प्राचीन बौद्ध नगरी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इस स्थान का विवरण अपनी यात्रा में विषेष रूप से किया है। चीनी उल्लेखों तथा सीमित उत्खननों के पुष्टि करने के बाद सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1861-62 में इस स्थान को प्राचीन बौद्ध नगरी के रूप में पहचाना। तत्पष्चात टी.ब्लाच (1903-04 ई.) तथा डी.बी. स्पूनर (1913-14 ई.) द्वारा यहां उत्खनन किया गया। कुदालों द्वारा स्पूनर ने कोल्हुआ के निचले स्थानों की खोज जब प्रारंभ की तो 16 से 18 फुट नीचे पहुंचते ही धरातल का जल मिल गया, पर क्वांरी भूमि अभी और नीचे थी। पानी में हाथ डालते ही उसमंे से मूर्तियांे, भांडों आदि के प्राचीनतम खंड निकल पड़े, इनमें ही अषोक कालीन पॉलिष किया हुआ चिकना पाषाण खंड भी था। भग्नावषेषों का स्तर मौर्यकाल तक पहुंच गया। बाद में कुछ मुहरें और सिक्के भी यहां से मिले।...यहां हुई खुदाई से ही पता चलता है कि कभी यह स्थान व्यापार का भी प्रमुख केन्द्र रहा है। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की पत्नी ध्रुवस्वामिनी का नाम भी यहां मिली एक मुहर में भी लिखा मिला है।

...यहां कोल्हुआ में दूर तक सुनसान है। कुछ झोपड़ें जरूर बने हुए हैं। आस-पास कोई घनी आबादी नहीं है। पुरातत्व विभाग की टिकट खिड़की और उसके सामने मिनरल बोतल, बिस्किट के पैकेट और दूसरे कुछ सामानों, यहां से जुड़े इतिहास और पर्यटन साहित्य से सजी झोपड़े में ही एक दुकान बनी हुई है।...टैक्सी से हमें कोल्हुआ पुरावषेष स्थलों की ओर प्रवेष करते देख बहुत सारे बच्चे हमारी ओर लपक आए हैं। पुरातत्व विभाग के कर्मचारी उन्हें वहां से भगाते हैं।...

कोल्हुआ यानी बाखिरा में हुई खुदाई के बाद निकले अवषेषों को पुरातत्व विभाग ने यहां अलग से चारदीवारी बनाकर सहेज कर रख लिया है।...चारदीवारी के अंदर प्रवेष करता हूं।...सामने ही खुदाई में मिला इंटों से निर्मित गोलाकार स्तूप और अषोक स्तम्भ दिखायी दे रहा है। पास में ही छोटा सा एक सरोवर भी नजर आ रहा है। यत्र-तत्र खुदाई के अवषेष यहां जैसे बिखरे पड़े हैं...नई इमारत में जिस प्रकार नींव भरते हैं, ठीक वैसे ही इंटों का निर्माण भी यहां अलग से दिखायी दे रहा है। कुछ-कुछ अन्तराल में प्राचीन प्रासादों, भवनों की याद दिलाते इंटों के अवषेषों से स्पष्ट पता चलता है कि कभी यहां पूरी एक सभ्यता का वास था।

...यहीं सिंहषीर्षक युक्त स्तम्भ भी अलग से दिखायी दे रहा है। मैं मुख्य बौद्ध स्तूप के पास बने इस अषोक स्तम्भ को देखकर बेहद रोमांचित हूं। बरसों तक बस इसके बारे में पढ़ा ही था, आज अपनी आंखों से देख रहा हूं।...चीनी यात्री फाहियान ने इसे 50 फुट ऊंचा बताया था। कहते हैं, इसकी पहचान पुरातत्वविद कनिंघम ने लेख रहित अषोकीय स्तम्भ से की थी। कोल्हुआ यानी प्राचीन कोल्लग।...कालान्तर में कोल्लग कोल्हुआ हो गया।

‘यह भीमसेन की लाठी है।’

अशोक स्तम्भ के पास खड़े उसे गौर से मुझे देखकर वहीं पुरातत्व विभाग के कर्मचारी ने मुझे बताया तो मैं चौंका। मैंने उसी का कहा फिर से दोहराया, ‘भीमसेन की लाठी!’

‘हां, यहां के स्थानीय लोग इसे इसी नाम से पुकारते हैं।’

मुझे विस्मय में पड़े देख वह बताने लगा, ‘मौर्य सम्राट अषोक ने देषभर में स्तम्भों का निर्माण करवाया था। उन्हीं मे से एक है यह। पुरातत्व विभाग के अन्वेषण के अनुसार पत्थर का 1100 मीटर का उंचा चमकदार यह एकाष्म स्तम्भ है। अषोक द्वारा स्थापित किए प्रारंभिक स्तम्भों में से एक है जिन पर उनका कोई अभिलेख अंकित नहीं है। इस पर शंख लिपि में उकेरे गए कुछ अक्षर गुप्तकाल के हैं।’

मैं गौर से अषोक स्तम्भ के बारे में कही बातें सुन रहा हूं।...पुरातत्व विभाग के कर्मचारी के साथ बतियाते मुझे देख वहीं जापान से आये तीन पर्यटक भी हमारी ओर ही चले आए हैं।...हिन्दी उन्हें समझ में नहीं आती इसलिए वे अंग्रेजी में मुझसे स्तम्भ के इतिहास के बारे में जानना चाहते हैं। मैं उन्हें कुछ समय पहले बतायी जानकारी का अनुवाद अंग्रेजी में कर सुना देता हूं। वे ‘थैंक्स’ बोलते हुए तीनों का एक साथ स्तम्भ के पास छायाचित्र खिंचने का मुझसे आग्रह करते हैं। उनके डिजिटल कैमरे से मैं उन्हें उनके ही कैमरे में कैद करके कैमरा वापस उन्हें सौंप देता हूं।...कृतज्ञता के भाव उनके चेहरे पर साफ दिखायी देने लगे हैं।

सिंहषीर्ष अषोक स्तम्भ को देखते मैं उसके इतिहास और उनमें निहित वास्तु कला पर ही विचार कर रहा हूं।...बसाढ़-बाखिरा यानी कोल्हुआ का यह अषोक स्तम्भ अपने लघु आकार, अधिक भार, वर्गाकार चौकी तथा अनुपात एवं सौन्दर्य की कमी के कारण स्तम्भ स्थापना के प्रारंभिक चरण की ओर संकेत करता है। ऐसा लगता है, मौर्य सम्राट अषोक ने स्तम्भों के निर्माण की पहल इसी स्तम्भ से की थी। इसके बाद के जो स्तम्भ सारनाथ से प्राप्त हुए हैं, वे हैं तो इसी परम्परा के परन्तु इनसे कहीं अधिक सुन्दर परिष्कृत रूप में मिलते हैं। इन अषोकीय स्तम्भों से पूर्व कहीं भी भारत में एकाष्म स्तम्भ, पशु शीर्षक तथा उच्च कोटी की ओप के उदाहरण नहीं हैं। बौद्धधर्म की स्थापना की स्मृति को स्थाई बनाने की ईच्छा से ही इन स्तम्भों का निर्माण हुआ है। अषोक द्वारा निर्मित पशु शीर्षक युक्त एकाष्मक स्तम्भों को मौर्य वास्तु के विकास की पराकाष्ठा के प्रतिनिधि स्मारक माना जा सकता है।

...चुनार के पत्थर से बने अषोक सिंह शीर्षक 50 फुट तक ऊंचाई वाले इस स्तम्भ के दण्डों पर चमकदार ओप है। ताड़ वृक्ष की भांति नीचे से मोटा और ऊपर की ओर पतले इस स्तम्भ के नीचे दण्ड यानी लाट तथा ऊपर का शीर्षक सिंह की ओजस्वी मूर्ति रूप में है। सिंह की मूर्ति सारनाथ के स्तम्भ में भी है और उसे हमारे राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में भी स्वीकार किये जाने का गौरव प्राप्त है।...अषोक का यह एकाष्म स्तम्भ ही तो ललित कला अकादेमी का भी प्रतीक चिन्ह। सम्राट अषोक ने सिंह शीर्षकों युक्त ही स्तम्भों का निर्माण क्योंकर किया? शायद इसलिए कि सिंह स्वयं भगवान बुद्ध का प्रतीक है। बौद्ध साहित्य में बुद्ध को शाक्य ही कहा गया है। शाक्य माने सिंह। इतिहासकार वासुदेवषरण अग्रवाल का मत थोड़ा भिन्न है। उन्होंने अषोक के स्तम्भों में उकेरी सिंह मूर्तियों को सम्राट की तेजस्विता के प्रतीक के रूप में व्याख्यायित किया है। कहते हैं, मौर्य सम्राट अषोक ने तथागत यानी गौतम बुद्ध के जन्म स्थान लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की थी। पाटलीपुत्र, लौरियानन्दनगढ़, लौरिया अरराज, वैषाली के निकट बाखिरा या कोल्हुआ आदि के ये स्तम्भ संभवतः उसकी यात्रा मार्ग की ओर ही संकेत करते है।

मुझे लगता है, सिंह शीर्षक युक्त अषोक स्तम्भ कोल्हुआ की खुदाई के अवषेषों का प्रहरी है। पुरातत्व विभाग के उत्खनन के दौरान यहां मिला इंटो द्वारा निर्मित मुख्य स्तूप मूलतः मौर्यकाल में बना था। इंटों की गोलाई का ढ़ेर मानिंद यह और इसके साथ ही खुदाई में मिली कुटागारषाला, स्वस्तिस्काकार विहार, पक्का जलकुंड,, बहुसंख्य मनौती स्तूप तथा लघु मंदिर सभी की जैसे सिंहषीर्ष युक्त लाट यानी स्तम्भ रखवाली कर रहा है।...यही सब सोचते हुए मैं खुदाई में मिले अवषेषों का अवलोकन करने में लगा हूं। इंटों की यहां व्यवस्थित उपस्थिति स्पष्ट इस बात की ओर संकेत करती है कि कभी यहां भव्य भवन बने रहे हैं।

पुरातत्व विभाग द्वारा संजोयी गयी सूचना के अनुसार बुद्ध के मुख्य इंटों के स्तूप का आकार कुषाण काल में परिवर्धित करके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तदुपरान्त गुप्तकाल और परवर्तित गुप्तकाल में पुनः इंटों से आच्छादित करके स्तूप को सवंर्धित किया गया और चारों ओर नियमित अन्तराल पर आयक भी जोड़े गए। कहते हैं, भगवान बुद्ध ने अनेक वर्षावास यहां ही व्यतीत किए तथा अंत में अपने निर्वाण की घोषणा भी उन्होंने यहीं कोल्हुआ में ही की। भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित आठ अनोखी घटनाओं में से एक, बंदरों द्वारा बुद्ध को ‘मधु’ भेंट करने के प्रतीक के रूप में भी भगवान बुद्ध का यह मुख्य स्तूप याद किया जाता है।

कोल्हुआ के अवषेषों को तारबन्दी से सुरक्षित किया हुआ है। थोड़ी दूरी पर ही स्वस्तिक के समान आधार विन्याय का इंटों का निर्माण कार्य दिखायी दे रहा है।...पुरातत्व विभाग का कर्मचारी मुझे यूं गौर से यहां की चीजों को देखकर मेरे पास आ गया है। वह जो कुछ बता रहा है, वही सब कुछ पास ही लगे पुरातत्व विभाग के हिन्दी और अंग्रेजी के सूचना पट्ट में भी लिखा हुआ है।...यहां बहुत कम लोग आते हैं, लगता है पुरातत्व कर्मचारी भी अकेलेपन से उब जाते होंगे। मेरे जैसे हिन्दी भाषी घुम्मकड़ों से बात करना उन्हें भी अच्छा लगता होगा...यही सब सोच रहा हूं। यह भी कि मुझे भी तो कितनी मदद मिल रही है, मुफ्त में गाईड का कार्य हो रहा है। औचक मैं उससे प्रष्न करता हूं, ‘भगवान बुद्ध ने संघ में भिक्षुणियों को प्रवेष की अनुमति यहीं तो नहीं दी थी?’

‘आपने बिल्कुल सही सोचा। अपने परम षिष्य आनंद के परम आग्रह पर उन्होंने इसी स्थान पर संघ में स्त्रियों को प्रवेष करने की अनुमति दी थी।’ मैं जैसे भगवान बुद्ध के समय में पहुंच गया हूं। आनंद उनसे आग्रह कर रहे हैं, ‘भगवन इसमें बुराई ही क्या है?...प्रतिदिन आपके उपदेषों को सुनने इतनी स्त्रियां आती है। वे आपसे तो कुछ कह नहीं सकती। मुझे उलाहना देती है, जब पुरूष भिक्षु बन सकते हैं, तो हम क्यों नहीं। क्यों भगवन, उन्होंने क्या अपराध किया है...आप इस पर विचार करें भगवन!’

...और महात्मा बुद्ध ने अपने परम षिष्य आनंद की बात मान ली है। आनंद के आग्रह पर महाप्रजापति गौतमी-अपनी धर्म माता को भिक्षुणी के रूप में उन्होंने दीक्षित कर स्त्रियों को संघ का अंग बनने का अधिकार प्रदान कर दिया।...झुंड की झुंड स्त्रियांे संघ में प्रवेष कर रही है। बौद्ध धर्म से पहले स्त्रियों का भिक्षुणी होना, उनका मर्द साधुओं के साथ मठों में वास करना प्रचलित नहीं था।...भले ही स्त्रियों को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने की प्रक्रिया को स्वीकार कर बुद्ध ने नारी को नर के समकक्ष समादर दिया परन्तु इसकी विकृतियों से बाद में बुद्ध धर्म का पराभव भी हुआ। बुद्ध ने शायद इसीलिए आनंद के बहुत अधिक आग्रह पर ही संघ में स्त्रियों के प्रवेष की बात मानी थी। वे शायद इसके परिणामों को पहले से ही जानते थे, इसीलिए उन्होंने एक दिन अपने षिष्य आनंद को कहा भी, ‘आनंद! मैंने जो धर्म चलाया वह पांच हजार वर्ष तक टिकने वाला था लेकिन अब वह सिर्फ पांच सौ वर्ष तक ही चलेगा, क्योंकि हमने स्त्रियों को संघ में शामिल होने की प्रथा चला दी है।’

...मन में विचार आ रहे है। आम्रपाली को भी तो भगवान बुद्ध ने यहीं संघ में प्रवेष करवाया था। कितनी बातें, कितने किस्से उस राजनर्तकी के साथ जुड़े हुए हैं। गणिका अम्बपाली। सौन्दर्य की मलिका। कभी भगवान बुद्ध भिक्षुओं के साथ आम्रपाली के मेहमान बने।...आम्रपाली ने रूप के गौरव को त्याग दिया।...भगवान बुद्ध के उपदेषों को आत्मसात कर लिया। विनम्र भिक्षुणी हो गयी आम्रपाली।...ऐसी ही बहुत सारी घटनाओं का साक्षी है कोल्हुआ। भगवान बुद्ध, राजनर्तकी आम्रपाली, प्रजापति गौतमी, गुप्त साम्राज्य के बारे में ही सोचते कोल्हुआ उत्खनन में प्राप्त अवषेष परिसर से बाहर निलता हूं।

2 comments:

  1. इतिहास को खंगालना बहुत भाता है.यह गाथा भी रोचक लगी.

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