ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Tuesday, June 26, 2012

रेत के अपनापे की कविताएं

राजस्थान पत्रिका (रविवारीय परिशिष्ट) दिनांक 24 जून, 2012 को प्रकाशित पुस्तक समीक्षा

राजस्थान की रेत के कईं रंग हैं। तपते धोरों की रेत, काली-पीली आंधी में उड़ती रेत और बारिश में नहाये धोरों की रेत। रेत के इन भांत भांत के रंगों की मानिंद ही विविधता से भरा है राजस्थान का जीवन और कवि मानिक बच्छावत ने रेत के इन्हीं रंगो को अपने सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह ‘रेत की नदी’ में संजोया है। रेत के बहाने इसमें राजस्थान की धरा ही नहीं ध्वनित हुई है बल्कि मरूस्थली जीवन, प्रकृति भी गहरे से काव्य रूप में उद्घाटित हुई है।
 रेत के धोरों के बीचोबीच बने जैसलमेर के सोनार किले का अनुपम सौन्दर्य इन कविताओं में है तो पीत-पाषाण हवेलियों के शिल्प चितराम भी हैं। लुप्त हो रहे राज्य पक्षी गोडावण की याद यहां है तो जोगियों के डेरे की अनुभूतियां भी है। रेत सबके केन्द्र मंे हैं। ‘रेत नदी’ की पंक्तियां देखें, ‘वर्षों से पड़ी हूं/अछूती/मर्मभरी पीतवर्णी/दर्दीले मरूस्थल की/छाती पर पसरी/स्वर्णझरी/परी-सी लेटी।’ रेत के इन बिम्बों में बच्छावत मरूस्थल की यादों को सहज अपने शब्दों में सिरजते हैं। मसलन सोनार किले पर कविता है तो इसमें दुर्ग की छवि ही आंखों के समक्ष नहीं उभरती बल्कि मरूस्थल का इतिहास, यहां की सभ्यता और संस्कृति भी ध्वनित होती है।
अंर्तवस्तु की गहराई खोजती बच्छावत की इन कविताओं में अनूठी सांगीतिक लय है, ‘काली हिरणी/कुंलाचे भरती/सर् सर् करती/इधर को आती/अर् अर् करती/उधर को जाती।’ ऐसे ही सहज शब्दों में वह रेत की अपनी स्मृतियों को जैसे इनमें पुनर्नवा करते हैं। यहां हवेली, झील में तैरते महलों का अनूठा शब्द कैनवस है तो कैर, सांगरी, बैर के बहाने मरूभूमि से कवि के अपनापे की भी अनुभूति होती है। एक कविता में बच्छावत राजस्थान की मेंहदी के फूलों को याद करते झुरझुरी दिलाती उस मिठी याद को जी रहे हैं जिसमें यौवन की चौखट पर बैठी किसी अल्हड़ युवती की हथेलियां रची जाती है। 
कविताएं और भी हैं जिनमें रेत की आंधी और नमक की झील के साथ वर्षा से भीगे धोरों की सौंधी महक का शब्द सुवास है। कहें मानिक बच्छावत ने ‘रेत की नदी’ में मरूस्थली जीवन के बहाने यहां के अपनापे, परिवेश को गहरे से मुखरित किया है। सुदूर पश्चिम बंगाल में मातृभूमि राजस्थान के बहाने जैसे इन कविताओं में वह अपने होने की तलाश कर रहे हैं। उस होने की जिसमें व्यक्ति अपनी जड़ो को संींचने के लिये उद्यत होता है। इसीलिये शाायद ‘गयी रात रेत पर’ कविता में वह कहते हैं, ‘...और भरता रहा रेत में/मुट्ठियां/गिराता रहा उन्हें/रेत के टीले पर।’