ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, December 5, 2011

देवानंद : रोमांस के साथ जिन्दगी


राजस्थान पत्रिका समूह के समाचार पत्र "डेली  न्यूज़"  के सम्पादकीय पेज पर 5 दिसम्बर 2011 को प्रकाशित आलेख

सिनेमा ने जीवन में सर्जनात्मकता के नये द्वार खोले हैं। जीवन से जुड़ी यह वह कला है जिससे मानव मन सदा ही स्पन्दित होता आया है। कभी पंडित नेहरू ने सिनेमा को विष्व को सबसे अधिक प्रभावित करने वालों में से ‘एक’ बताया था। उनके इस कहे में अपनी बात मिलाते हुए कहूं तो भारतीय सिनेमा में किसी शख्स ने दर्षकों को अपनी अदाओं से और अपने कहे से सर्वाधिक प्रभावित किया है तो वह देवानंद हैं। शायद इसीलिये उनके साथ सदाबहार शब्द का विषेषण भी जुड़ा।

देवानंद से करीबी नाता तब हुआ जब पहले पहल उनकी फिल्म ‘गाईड’ को देखा था। याद नहीं कितनी बार इसे देखा परन्तु जितनी बार भी देखा, नयेपन को अनुभूत किया। राजू गाईड के इसके संवेदनषील किरदार पर जब भी जाता हूं, मुझे लगता है यह देवानंद ही थे जो आर.के. नारायण के गढ़े इस चरित्र को इस खूबी से निभा सकते थे। नोबेल पुरस्कार विजेता पर्ल बक और देवानंद ने मिलकर गाईड का अंग्रेजी संस्करण भी बनाया परन्तु फिल्म खास कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सकी। बाद में जब इसका हिन्दी संस्करण बना तो भारतीय सोच के हिसाब से कुछ परिवर्तन किये गये। मसलन मूल कृति में नैराष्य लिये अंत है, जिसमें राजू की मृत्यु हो जाती है और बारिष भी नहीं होती है परन्तु देवानंद की ‘गाईड’ में स्वामी बने राजू गाईड की मृत्यु के साथ ही बारिष होते दिखाई जाती है। खूबसूरती यह भी है कि संगीत और संवेदना की दीठ से इसमें विजय आनंद और देवानंद जैसे अपने आपको झोंक दिया है। विषय की गूढ़ता के और भी बहुत से रचनात्मक पहलू हैं जो भीतर से झकझोरते हैं। वहीदा रहमान के नृत्य सौन्दर्य के साथ देवानंद ने अपने किरदार को इस गहराई से इसमें जिया कि जितनी भी बार गाईड देखें वह सोच में बढ़त करती है। मुझे लगता है, देवानंद गूढ़ विषय की गहराई में इस फिल्म में इस कदर रमे हैं कि एक प्रकार से उनका कायारूपान्तरण वहां हुआ है। राजू की भाव-भंगिमाएं, उसकी मुस्कान, उसकी मासूमियत, संवाद अदायगी, संवेदनाओं का आकाष और किरदार में रमा मन चरित्र को जीवंत करता है।

बहरहाल, देवानंद के जीवन में यदि ‘गाईड’ नहीं होती तो शायद उनका मूल्यांकन वह नहीं होता जो आज हो रहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ‘ज्वैल थीफ’ ‘हम दोनों’, ‘प्रेम पूजारी’, ‘हरे रामा हरे कृष्णा’,‘गेस्ट, ‘बाजी, ‘जॉनी मेरा नाम’, ‘सीआईडी’ जैसी देवानंद की फिल्मों में उनका अभिनय महत्वपूर्ण नहीं था परन्तु ‘गाईड’ के किरदार को जिस षिद्दत से उन्होंने जिया, वह कभी बिसराया नहीं जा सकता। उनके जीवन के अभिनय का यह ऐसा मुकाम है जिससे अभिनय संवेदना की उनकी गहराई को समझा जा सकता है। याद पड़ता है, कभी देवानंद ने कहा था, ‘ड्रामा फिर से उकेरा जा सकता है। केवल कुछ रहस्य, कुछ परछाईयां, कुछ स्याह जगहें ऐसी हैं जिन्हें चाहकर भी फिर से दिखाया नहीं जा सकता।’ सिनेमा की उनकी यह वह समझ है जो गाईड में हर ओर, हर छोर दिखाई देती है।

देवानंद ने सिनेमा में रोमांस को नया मोड़ दिया। यह ऐसा था जिसमें असल जीवन के साथ रोमांस की लय है। वहां जीवन के साथ परदे की कथाओं में रची रोमांस, प्यार की कहानियां की फतांसियां भरी पड़ी है। सिनेमा और जिन्दगी के रिष्तों का गठजोड वहां है़। हालांकि सच यह भी है कि जीवन का सच पूरी तरह से सिनेमा का सच कभी हो ही नहीं सकता। चुनांचे हरकोई जिन्दगी की वही सच्चाईयां आंखो से देखना चाहता है जिसमें सब कुछ सुखद हो, प्यार भरा हो, रोमांस से लबरेज हो। देवानंद इसलिये दर्षकों को भाते रहे हैं कि रोमांस की जो चाह व्यक्ति के भीतर सजी होती है, उसे उन्होंने सिनेमा में गहरे से जिया। पर्दे के सच के अंतर्गत जिन्दगी का साभ निभाते हर फिक्र को धूंए में उड़ाते इस शख्स ने भरपूर सराहना पायी। बाकायदा इस सच में संवाद निर्वहन का अपना एक नया स्टाईल भी उन्होंने विकसित किया। यह ऐसा है जिसमें दर्द है तो उसकी तड़प, गहराई है। खुषी है तो उसकी उमंग है। प्यार है तो उसका रोमांस भी है। उनकी फिल्मों से रू-ब-रू होते लगता है, कहानी के अंतर्गत गढ़े चरित्र में अपनापन मिलाते अदाओं का नया मुहावरा विकसित किया गया है। बोलने, कपड़े पहनने, दृष्य में भाव-भंगिमाओं के निरालनेपन पर जाएं तो लगेगा, सिनेमा की संवेदना की गहराई में ही वह रच-बस से गये थे। कुछ इस तरह से कि बाद में स्वयं उनके निजी जीवन में भी सिनेमा हरदम छाया रहा।


असल जीवन में भी वह सिनेमा के गढ़े अपने व्यक्तित्व की इस सच्चाई से शायद कभी फिर मुक्त नहीं हो पाये। खुद उनका बनाया यह ऐसा व्यक्तित्व था जिसमें व्यक्ति कभी बीमार नही होता। जिसमें कभी व्यक्ति उम्र दराज नहीं होता और जिसमें व्यक्ति जवां ईष्क के खुमार से कभी बाहर नहीं निकलता। इस जिये में ही बाद में उनकी जो फिल्में आयी, भले वह ‘अव्वल नम्बर’, हो या फिर ‘सौ करोड़’ या फिर ‘मिस्टर प्राईम मिनिस्टर’ या फिर ‘सेंसर’ जैसी फिल्में-सबमें देवानंद ने कभी अपनी रोमांस की हीरो इमेज से बाहर निकलना ही नहीं चाहा। और यही कारण है कि वह अपने को कभी हारा हुआ नहीं पाते भले उनकी फिल्में बॉक्स आफिस पर बाद में पिटती भी रही। यह भीतर की उनकी ऊर्जा, उनकी लगन और जीवन की वह उमंग ही कही जायेगी जिसमें वह अपने को चिरयुवा ही समझते रहे।

गुरूदत्त, राजकपूर सरीखे अभिनेताओं के बाद यह देवानंद ही थे जिनमें सर्जनात्मकता की भूख सदा ही रही है। उनकी लिखी आत्मकथा ‘रोमांस विद लाईफ’ पढ़ते लगता है, उम्र को दरकिनार करते सदा कुछ नया करते रहने और उसमें ही सुकून की तलाष की उनकी जीवटता ने ही जीवन की असफलताओं को सदा पीछे भी धकेला। यह जब लिख रहा हूं, उनका कहा याद आ रहा है, ‘चित्रकार जिस तरह से अपनी पेंटिंग के प्रति भावुक रहता है, उसी तरह से मैं अपनी फिल्म के प्रति भावुक रहता हूं।’


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