ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, December 31, 2022

बनी रहे जीवन में उत्सवधर्मिता

वर्ष आज बीत रहा है। कल नए वर्ष का सूर्य उदित होगा। कैलेंडर बदल जाएगा। सबकुछ नया होगा। आइए , बीते वक्त की तमाम कड़वाहटों को भुलाते साहित्य, संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि कलाओं में रमें। मूल्य-मूढ़ होते जा रहे इस समय में बचेगा वही जो रचेगा।  

कलाएं काल के अनन्तर अपना अलग समय गढ़ती है। व्यक्ति में देखने, विचारने, चीजों और समय को परखने की दीठ कहीं से मिलती हैं तो कलाओं से ही मिलती है। बल्कि कहूँ, कलाओं का प्रभाव सूक्ष्म, अस्पष्ट होता है, पर सर्वव्यापी होता है। इसलिए यह जरूरी है, कुछ ऐसे प्रयास निरन्तर हों, जिनके आलोक में हम सही मायने में सांस्कृतिक हो सकें। ऐसे जिनसे जीवन में उत्सवधर्मिता बनी रहे। 

राजस्थान पत्रिका, 31 दिसम्बर, 2022

संयोग देखिए, कलाओं के समय को अनुभूत करते ही आप सबसे यह संवाद यहां हो रहा है।  कल की ही बात है। जबलपुर में था। एक सांझ धानी गुंदेचा के धुव्रपद गान की थी। वह गा रही थी, 'महाकाल महादेव धूर्जटी शुलपंचवादन प्रसन्न नेत्र महाकाल...'। लगा समाधिस्थ शिव की अर्चा में जतन से शब्द सहेज वह स्वरों की जैसे माला पिरो रही थी। 

अज्ञेय ने कभी वत्सल निधि की स्थापना और लेखक यात्राओं की पहल इसलिए की कि साहित्य-संस्कृति से जुड़े अतीत से हम पुनर्नवा हों। 

ब.व. कारन्त से उनसे  सीखे एक शिष्य ने अपनी समस्या बताई, इतने बरस हो गए नाटक करते पर प्रसिद्धि नहीं मिली। कारन्त ने ब्लैक बोर्ड पर लिखा, प्रसिद्धि। कहा, थोड़े प्रयासों से बहुत आसान है यह प्राप्त करना। फिर 'प्र' हटा दिया। बोले यह जो सिद्धि है, वह प्राप्त करना जरूरी है। कर ली तो फिर प्रसिद्धि की अपेक्षा ही नहीं रहेगी।

...तो आईए, नए वर्ष में हम सिद्ध होने की ओर अग्रसर हों।  साहित्य, संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र कलाओं के ऐसे आयोजनों  से ही तो समृद्ध-सम्पन्न होता है समाज। सबके लिए नई उम्मीदें, आशाएं लिए नव वर्ष ऐसे ही मंगलमय होता रहे। आमीन!

Thursday, December 22, 2022

'कला—मन'-प्रभात प्रकाशन, अगस्त 2022


लेखक हमें कला के सहारे भारतीय सौंदर्यबोध का अहसास कराता हुआ एक तरह से 'संस्कृति का कला—नाद' सुनवाता है।...इसे पढने के बाद हमारा भारतीय मन असल में कला गंगा के तीर पर नहाकर अपने को 'कला—मन' करने में सक्षम होगा।—अमर उजाला 11 सितम्बर 2022

कला—मन में लेखक कला, संस्कृति, लोक कलाओं पर विहंगम दृष्टि डालते मन पर कलाओं पर विचारते हैं।...लेखक एक ऐसा आकाश दिखाते हैं जहां सारी कलाएं समाई हुई है। यहां सारी कलाओं का गान है, तथ्य और मर्म के साथ।...—पत्रिका 16 अक्टूबर, 2022

भारतीय कला पर विमर्श को आमंत्रण देते आलेख बार—बार याद दिलाते चलते हैं कि हम अपने ही कला संसार से दूर होते जा रहे हैं। अपनी कला संस्कृति को दूसरों की आंख से देखना वैसा ही है, जैस अपने अभिभावकों के बारे में दूसरों से सुनकर राय बनाना। हमारी कलाएं हमारे लोक का हिस्सा है, उन्हें समझना, उनको बरतते रहना, प्रवाहमय बना रखना हमारा कर्तव्य है। इसी की बारंबार याद दिलाते हैं लेखक।...यहां अवसाद से भरे, शिकायती लेख नहीं है, जानकारी से भरपूर, सोचने—विचारने को विवश करते शब्द हैं। ज्ञान की प्रस्तुति, ज्ञानार्जन को आमंत्रित करती है।—अहा! जिन्दगी, अक्टूबर, 2022

कला संदर्भों पर लेखन की विरल परम्परा के बीच यह पुस्तक इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो उठी है कि इसमें भारतीय कलाओं के चैतन्य संस्कारों का प्रतिष्ठापन है। भारतीय कला रूपों को सतही और संकोची दृष्टि से देखती पाश्चात्य चिंतन धारा को ये निबंध तार्किक चुनौती देते हैं। लेखक के पास अपना एक कला—मन है जिसमें विविध कला रूपों के सृजन और आस्वादन का भरा—पूरा संसार है जहां सृजन और जीवन की एकरस भूमि पर लेखक चहककर कहता है—प्रकृति के अनाहद नाद में बचेगा वही जो रचेगा।—दैनिक नवज्योति 13 सितम्बर 2022

Saturday, December 17, 2022

बाजै छै नौबत बाजा

राजस्थान पत्रिका, 17 दिसम्बर 2022


संगीत में काल एवं मान को मिलाते हैं तो ताल की उत्पत्ति होती है। पर ताल का अस्तित्व लय की सहज गति है। शारंगदेव ने अपने ग्रंथ संगीत रत्नाकर में ताल शब्द की व्याख्या करते कहा है, गीत—वाद्य तथा नृत्य के विविध तत्वों को रूपात्मकतः व्यवस्थित करके स्थिरता प्रदान करने वाला और आधार देने वाला तत्त्व ही ताल है। ताल शब्द शिव और शक्ति से भी जुड़ा है। 'ता' से ताण्डव जो शिव के नृत्य से जुड़ा है और 'ला' से लास्य जो शक्तिरूपा मां पार्वती के नृत्य का सूचक है। ताल इसीलिए शिवशक्त्यात्मक है। 

कहते हैं, ताल के रथ पर ही स्वरों की सवारी सजती है। महर्षि भरत ने संगीत में विभिन्न मात्राओं एवं निश्चित वजनों के आधार पर भांत—भांत के 108 तालों का उल्लेख किया है। तबला, पखावज, मृदंग और बहुत से स्तरों पर नगाड़े में ताल की मात्रा क्रम में चंचल और गंभीर अनुभूत होती  इसीलिए हममें बसती है कि वहां ताल के अलग—अलग प्रभाव मन को मोहते हैं।

बहरहाल, यह लिख रहा हूं और देश के ख्यातनाम नगाड़ा वादक नाथूलाल सोलंकी के बजाए नगाड़े की थाप मन में जैसे गुंजरित हो रही है। कुछ दिन पहले ही दूरदर्शन के 'संवाद' कार्यक्रम में उनसे रू—ब—रू होते लयकारियों का विरल सौंदर्य मन में अनुभूत किया।  पूरे माहौल को वह अपने नगाड़ा वादन से जैसे उत्सवधर्मी कर रहे थे। लय के साथ ताल। अंतराल में छोटे और बड़े नगाड़े पर लकड़ी से किए जाने वाले आघात से गूंज कर उसे छोड़ ते तो लगता स्वर यात्रा कर रहे हैं। दूर से आते, फिर से जाते। अपनी गूंज छोड़ते। लगा, नगाड़े पर गूंज—स्वर छटाओं का वह माधुर्य ही रच रहे हैं। सांगीतिक अर्थ ध्वनियों  का नाद योग! 

नगाड़ा वादन में नाथूलाल सोलंकी की पहचान यूं ही नहीं बनी। उन्होंने इस वाद्य में निंरतर अपने को साधा है। मंदिरों में वादन की चली आ रही परम्परा से शुरुआत करते उन्होंने इसमें प्रयोग कर बढ़त की। विश्व के विभिन्न देशों में उनके नगाड़ा नाद को इसीलिए सराहा गया कि वहां प्रचलित एकरसता की बजाय ध्वनियों के उनके अपने रचे छंद थे। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ के महल में कभी उन्होंने नगाड़ा नाद किया तो इस वाद्य के देश के पहले वह ऐसे वादक भी बने जिन्होंने 'वर्ल्ड ड्रम म्यूजिक फेस्टिवल' में संगीतप्रेमियों को लुभाया।

हमारे यहां मंदिरों में नौबत बाजों का उल्लेख है। लोकभजन भी है, 'बाजै छै नौबत बाजा म्हारा डिग्गीपुरी रा राजा'। नौबत माने नौ प्रकार के वाद्य। मंदिर में आरती होती तो कभी  कर्णा, सुरना, नफीरी, श्रृंगी, शंख, घण्टा और झांझ के साथ नगाड़ा भी बजता। कबीर की जगचावी वाणी है, 'गगन दमामा बाजिया'। यहां यह जो दमामा है वह संस्कृत की डम धातू से बना नगाड़ा ही है। यह बजता है तो ध्वनियों का लोक बनता है—दम दमा दम। थाप पर थाप। बढ़ता आघात...दुगुन, तिगुन, चौगुन! सोचता हूं, लोक नाट्यों में नगाड़ों का वादन न हो तो उनका प्रदर्शन ही फीका रहे। 

नौटंकी, कुचामणी खयाल और बीकानेर में होने वाली रम्मतों में संवादों के छंदबद्ध ऊंचे स्वरों में किए जाने वाले गान नगाड़ों में ही विशिष्ट रूप में अलंकृत होते हैं। मंदिरों में कभी आरती के समय समूह जुटता तो लोग इसे बजाने का आनंद लेते पर अब वहां नगाड़े तो हैं पर विद्युत संचालित यंत्ररूप में। पसराते हुए। आपको नहीं लगता!


Monday, December 5, 2022

बिट्स, पिलानी में...


यह सच में सुखद था कि तकनीकी एवं विज्ञान शिक्षा से जुड़े देश के इस अग्रणी संस्थान में वहां Department of Humanities and Social Sciences के सर्वथा अपरिचित शोधार्थियों ने आपके इस मित्र को आमंत्रित किया।

यह मई 2022 की बात है, जब उनका आमंत्रण आया था। पर दूसरी व्यस्तताओं के कारण देर होती रही। उन्होंने इन्तजार किया। इस दौरान सबसे पहले जिस रिसर्च स्कॉलर पुनीता राज ने नूंत दी थी, वह वहां से शोध कार्य पूर्ण कर जा चुकी थी। पर वहीं के अन्य रिसर्च स्कॉलर केरल के अभिजिथ वेणुगोपाल ने फिर से नवम्बर 2022 में संपर्क किया।

विद्यार्थी मिलना और सुनना चाहते थे।

अच्छा लगता है, जब इस तरह से कहीं याद किया जाता है।


संकाय अध्यक्ष प्रो. देविका, प्रो. संगीता शर्मा के मार्गदर्शन में प्रकाशित कला, साहित्य से संबद्ध विशिष्ट प्रकाशन Musings2022 के लोकार्पण और संवाद के लिए इस शनिवार 3 दिसम्बर 2022 को वहीं था। बिट्स पिलानी के निदेशक प्रो.सुधीर कुमार बराई मूलत: इंजीनियर हैं पर साहित्य—कला की संवेदना से गहरे से जुड़े हैं।

2 दिसम्बर सायं जयपुर से रवाना हुआ। रात्रि पिलानी स्थित बिड़ला इन्स्टीट्यूट आफ टेक्नोलोजी एण्ड साईंस 'बिट्स' के विश्राम गृह में रहा। 3 दिसम्बर को दोपहर शोध—विद्यार्थियों और संकाय सदस्यों के मध्य संवाद हुआ। इस कार्यक्रम के बाद मुक्त हुआ तो वहीं बिड़ला विज्ञान संग्रहालय के क्यूरेटर, कलाकार मित्र मोहित श्रीवास्तव संग संग्रहालय को ​देख फिर से पुनर्नवा हुआ। संग्रहालय निदेशक डॉ. वी.के. धौलाखंडी जी मिले तो पुरानी यादें ताजा हुई। ढ़ेर सारी बातें हुई, होती रही। इस दौरान संग्रहालय में कोविड के दौरान बने नए हाईवे—मैट्रो सिटी मॉडल की प्रतिकृति का आस्वाद किया। लगा, भारतीय राजमार्ग पर गुजरते वाहनों—वहां से जुड़ी टोलटेक्स व्यवस्थाओं, मैट्रो संचालन और बुलेट ट्रेन के भविष्य से जुड़ी तमाम चीजों को विज्ञान संग्रहालय में जीवंत कर दिया गया है। विज्ञान एवं तकनीक में जो कुछ है, यदि उसे ही संजोए रखा जाता है तो जड़त्व है पर समय संगत के साथ इस तरह की बढ़त उसकी सार्थकता।

पिलानी से लौट आया हूं पर मन अभी भी वहीं है...बहुत सा और भी कुछ वहां से स्मृति में संजोकर लाया हूं, कभी उस पर आप सबसे साझा करूंगा ही फिलहाल स्मृतियों का यह छंद—अंश...









कथक का अंतर्मन आलोक



कलाओं में हिंदी में अच्छी बल्कि कहूं स्तरीय पुस्तकों का अभी भी अभाव है। संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकला पर पुस्तकें हैं परन्तु उनमें अधिकतर ऐसी हैं जिनमें सैद्धान्तिकी या फिर किसी कलाकार विशेष की महिमा गान से आगे कहीं कोई बढ़त नहीं है। एक बड़ा कारण शायद यह भी है कि हमारे यहां कलाकारों द्वारा अपनी कला के बारे में कुछ कहने—सुनने की परम्परा अधिक विकसित नहीं हुई है।

राजस्थान पत्रिका, 3 दिसम्बर 2022

इस दृष्टि से इधर एक किताब ने विशेष रूप से आकर्षित किया है।  इसलिए कि यह मूल हिन्दी में लिखी गयी है और इसलिए भी कि एक कलाकार ने अनुभव के आलोक में इसका लेखन किया है। पुस्तक का नाम है, 'तत्कार'। इसे लिखा है, प्रख्यात कथक नृत्यांगना प्रेरणा श्रीमाली ने।  पुस्तक का 'तत्कार'  शीर्षक ही कथक की अन्तर्यात्रा कराने वाला है। प्रेरणा लिखती है 'तत्कार कथक का अनदेखा  रोचक और अद्भुत हिस्सा है। नृत्य में पैर चल रहे हैं। घुँघरू से निकलती ध्वनि। पर नर्तक का इस पर ऐसा नियंत्रण कि सौ से अधिक घुँघरू भी बंधे हों तब भी वह केवल एक घुँघरू की आवाज का भान करा देता है।'  कथक  से जुड़े ऐसे ही विरल भाव—भव का सौंदर्य कहन है,  यह पुस्तक।

पुस्तक में कथक को संपूर्ण भाषा से अभिहित करते इस नृत्य से जुड़ी शब्दावलियों का मर्म है। अनुभूति की आंच पर पके कला जीवन संदर्भ हैं और है बंधे बंधाए ढर्रे को तोड़ती इस नृत्य की व्यावहारिकी। पुस्तक कथक से जुड़ी बंद गांठे भी जैसे खोलती है, 'शास्त्रीय परम्पराएं इतिहास को बिसराती नहीं वरन् साथ—साथ लिए चलती है और उसमें सम—सामयिक जोड़ती भी जाती है।'  स्वयं प्रेरणा श्रीमाली ने अपने गुरु कुंदनलाल गंगानी से सीखे हुए की अंतर्मन सूझ से बढ़त करते निरंतर प्रयोग किए हैं। वह लिखती है, पूरे उत्तर भारत का कथक अकेला ऐसा नृत्य है जो अपने अंदर एक भरपूर संगीतात्मकता लिए है। यह भी कि कथक का भाव पक्ष व्यक्ति के दैनिक जीवन से सर्वाधिक निकट है और यह भी कि कथक परंपरा में गुरु पद तभी हासिल होता है जब अमूर्तन में नई रचनाएं की जाए ।

'तत्कार' में प्रेरणा श्रीमाली की डायरी के पन्ने विचार—उजास है। यहां नृत्य सम्राट उदय शंकर की जीवनी और मार्था ग्राहम डांस कंपनी के कार्यक्रम आलोक में देह के उठान, झुकाव और लचीलेपन से जुड़े उनके संदर्भ या फिर कथक में 'सलामी' जैसे टूकड़े या प्रस्तुति की निर्थकता में एक कलाकार के अंतर्मन को बांचा जा सकता है। महती यह है कि यहां पढ़े—सीखे के साथ खुद उनकी स्थापनाएं हैं, मसलन हजारों बार एक ही बोल, एक ही हस्तक, एक ही पैर का निकास और एक ही मुद्रा का दोहराव उस स्तर तक चलता है जहां पहुंच कर—शरीर—शरीर न रहकर मुद्रा और हस्तकों में रूपान्तरित हो जाता है।  यहीं से उपज पैदा होती है। स्वतंत्र और मौलिक।

मेरी नजर में किसी कलाकार द्वारा अपनी अनुभूति के आलोक में स्वयं द्वारा हिंदी में लिखी यह पहली ऐसी पुस्तक है जिसमें कथक के बहाने भारतीय कला से जुड़ी संस्कृति को गहरे से गुना और बुना गया है। और इससे भी महत्वपूर्ण पक्ष इस पुस्तक का यह है कि यहां कथक के अमूर्तन जैसे विषयों के साथ उससे जुड़ी संगीतात्मकता और शब्दावलियों के अंतर्निहित में नृत्य की सृजनशीलता से जुड़ी चुनौतियों पर विमर्श की नई राहें हैं।

Saturday, November 26, 2022

जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य व्याख्यान

राजस्थान विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय शिक्षक संघ के आमंत्रण पर 21 नवम्बर 2022 को जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी, जयपुर में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 'ब्रिटिश काल से पहले और बाद में भारतीय शिक्षा प्रणाली और एनईपी 2020 : उच्च शिक्षा में एक आदर्श बदलाव' विषय पर द्वितीय सत्र में मुख्य व्याख्यान दिया...





Saturday, November 19, 2022

भारतीय मूर्तिकला की विलक्षणता

समकालीन विमर्श में भारतीय मूर्तिकला की विलक्षणता उपेक्षित प्रायः हैं। मुझे लगता है, अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा ने सौंदर्य संबंधी हमारी धारणाओं को जैसे लील लिया है।

राजस्थान पत्रिका, 19 नवम्बर 2022

मूर्तिकला का आस्वाद इसीलिए पर्यटन स्थलों की विरासत तक सीमित होकर रह गया है। इधर एक शोध कार्य के संदर्भ में जब नया कुछ पढ़ने को निरंतर खोज रहा था तो लगा, मूर्तिकला के ऐतिहासिक काल-क्रम को ही पहले के लिखे में थोड़ा-बहुत हेर-फेर कर दूसरों ने भी लिख दिया है।

 पाठ्यपुस्तकों का हाल तो इस कदर बुरा है कि वहां पंक्तिया दर पंक्तियां हूबहू टीप दी गयी है। सोचता हूं, इनको पढ़ने वाले विद्यार्थियों में अपनी कला के प्रति सौंदर्य बोध क्योंकर फिर विकसित होगा!कला कोई भी हो, उसके लिखे में यदि सौंदर्यान्वेषण नहीं होगा, केवल इतिहास से जुड़े तथ्य ही प्रस्तुत होंगे तो उससे रसिकता पैदा नहीं होगी। 

कला शिक्षा से जुड़े पाठ्यक्रम का उद्देश्य इतिहास से विद्यार्थियों को अवगत कराना ही नहीं होता बल्कि विद्यार्थियों को कलाओं के निकट लाना, उन्हें कलाओं से संपन्न कर सौंदर्यबोध विकसित करना होता है। इस दृष्टि से प्राचीन जो सिरजा गया है, उसके भावबोध, उसकी विलक्षणता पर नवीन दृष्टि से विचार क्या जरूरी नहीं है? 

हमारे यहां मूर्तिकला बाह्य से अधिक आंतरिक भावों की गहराई से जुड़ी रही है। सौंदर्य की दृष्टि से अनुपात और लयताल का जो निर्वहन मूर्तिकला में हमारे यहां हुआ है, वह विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं है। विभिन्न कालखण्डों की हमारे यहां सिरजी संग्रहालयों में संरक्षित मूर्तियों पर गौर करेंगे तो पाएंगे अनुपात-लय और ताल में मूर्तियां तीव्र और रसमय माधुर्य का आस्वाद कराने वाली है। माने किसी मूर्ति को आपने उसकी समग्रता में देखा है तो एक बार नहीं, बार-बार देखने के लिए वह आपको आमंत्रित करेगी। 

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि मूर्तिकला हमारे यहां चित्र, स्थापत्य और वास्तु-इन तीनों का परस्पर समन्वित स्वरूप है। बुद्ध की मूर्ति को ही लें। बुद्ध मूर्तिकला के विरोधी थे परन्तु सर्वाधिक मूर्तियां उन्हीं की बनी है। उनके नेत्रों और ओष्ठों में जो भाव हमारे यहां सिरजे गए हैं, विरल हैं। अपरिमेय शांति और संयम के भावों की ऐसी मूर्तियां जगचावी हुई। अजन्ता, एलोरा, एलीफेंटा की गुफाओं, सांची, सारनाथ, अमरावती के महान स्तूप, सोमनाथ, कोर्णाक, खजुराहो, मीनाक्षी मंदिर, उदयुपर के जगत मंदिर के षिल्प वैभव में ऐसे ही अंतर जैसे आलोकित होता है।

कुछ समय पहले एलोरा जाना हुआ था।  वहां कैलास मंदिर को देख अनुभूत हुआ, तक्षण और वास्तुकला की यह ऐसी विरासत है जिसे कला षिक्षा प्राप्त करने वाले हर विद्यार्थी को देखनी चाहिए।  बहुमंजिला कैलास मंदिर को एक ही चट्टान से मूर्तिकारों ने उकेरा है। भीमकाय स्तम्भ, विस्तीर्ण प्रांगण, विषाल विथियां, दालान, मूर्तिकारी से भरी छतें और मानवों और विविध जीव-जंतुओं की अद्भुत प्रतिमाएं!  ऐसा लगता है, मूर्तिकारों ने अपनी कला का सर्वस्व यहां अर्पण किया है। हाथियों की पाषाण प्रतिमाओं ने कैलास मंदिर को जैसे अपने ऊपर थाम रखा है। एक मूर्तिषिल्प का नाम है, ’रावण की खाई’। 

वाल्मीकि रामायण में आता है कि यमराज पर विजय प्राप्त कर रावण जब पुष्पक विमान से कैलास के निकट था तो वहां उसका विमान डगमगाया। रावण कैलास को ही हिलाने लगा। मूर्तिकारों ने इस प्रसंग को ही यहां जैसे जीवंत किया है। मूर्ति में कैलास पर्वत पर षिव का अविचल समाधिस्थ भाव और भयभीत पार्वती और उसकी सखियांे के इधर-उधर भागने के दृष्य देखते जैसे वाल्मीकि का लिखा दृष्यमय हो उठता है। सोचता हूं, इस तरह की जीवंतता हर कालखंड की मूर्तिकला में हमारे यहां रही है परन्तु इस विलक्षणता पर सौंदर्य की दीठ से क्या लिखा और विचारा गया है! 




Sunday, November 6, 2022

हिम्मत शाह जी का सान्निध्य

सुप्रसिद्ध कलाकार हिम्मत शाह जी का अहेतुक स्नेह सदा ही मिलता रहा है। कुछ दिन पहले वह निवास स्थान पर आए। देर तक त​ब कलाओं पर उनसे चर्चा हुई। पता ही नहीं चला बातों-बातों में वक्त पंख लगाकर उड़ता रहा। ...अपनी पुस्तक 'कला—मन' जब उन्हें सौंपी तो उन्होंने बैठे—बैठे ही कुछ पन्ने इसके पढ लिए। इस पर बहुत कुछ महती दीठ भी तब उन्होंने दी...













Saturday, November 5, 2022

रंगकर्म की मौलिक दृष्टि

रंगकर्म आंखो का अनुष्ठान है। पर रंगमंच से जुड़े परिवेश की सूक्ष्म सूझ की दृष्टि से हमारे यहां अभी भी अच्छी नाट्यकृतियों का अभाव है। नाट्यालेख बढ़िया हो, यह तो जरूरी है पर नाट्य की मूल जरूरत मंचन की मौलिक दीठ भी है। रतन थियम ने मणिपुरी नाट्य कला को जिस तरह से आगे बढ़ाया ठीक वैसे ही अर्जुनदेव चारण ने हमारे यहां राजस्थानी भाषा की नाट्य परम्परा को अपने तई नया आकाश दिया है।...उनकी अपनी मौलिक रंगयुक्तियां के साथ नाट्य का सधा हुआ ​शिल्प लुभाता है।...

 'राजस्थान पत्रिका' 5-11-2022




Tuesday, November 1, 2022

अंतर्मन संवेदनाओं में स्वरों का ओज

 'अहा! जिन्दगी' पत्रिका के जून 2017 अंक में किशोरी अमोणकर पर यह आलेख लिखा था। किशोरी अमोणकर का गायन भावो की अतल गहराईयो में ले जाता है। हिंदुस्तानी संगीत में रागों की शुद्धता, परम्परा से मिले संस्कारों के साथ उन्होंने किसी प्रकार का समझौता कभी नहीं किया।... वह गाती तो लगता, स्वरों का उनका ओज सदा के लिए हममें जैेसे बस जाता है। मीरा के गाए उनके पदों में तो शब्द—शब्द उजास और विरल छटाएं हैं।... आज अरसे बाद यह आलेख हाथ लगा है, मन किया आप सबसे यहां साझा कर लूं...





Saturday, October 22, 2022

अवनीन्द्रनाथ की कलाकृति 'तिष्यरक्षिता'

 "...संवेदना की आंख में कला प्रायः इतिहास-संदर्भ मुक्त होती है। इतिहास असल में तथ्यों पर निर्भर भौतिकवादी विचार है जबकि कलाएं अंतर्मन का विचार-उजास है।...अवनीन्द्रनाथ ठाकुर की कलाकृति 'तिष्यरक्षिता' एक दृष्टि में कामुक चरित्र को दर्शाती है पर चित्र का सच यही नहीं है।... कलाकृतियों को बनी-बनाई धारणाओं को उनसे जुड़े प्रचलित संदर्भों से मुक्त देखेंगे तो भारतीय कला का और भी बहुत कुछ महत्वपूर्ण हम पा सकेंगें। .."

राजस्थान पत्रिका, 22 अक्टूबर 2022


Monday, October 17, 2022

'संवाद' में इस बार सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता, निर्देशक के.सी. बोकाड़ियाजी

दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रम 'संवाद' में इस बार आप देखिए—सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता, निर्देशक के.सी. बोकाड़ियाजी से आपके इस मित्र की हुई यह अंतरंग मुलाकात। सिने जगत में उनका 50 साल का सफल पूरा हो गया है। वर्ष 1972 में निर्मित संजीव कुमार, माला सिन्हा की मुख्य भूमिका वाली फिल्म 'रिवाज' उनकी पहली फिल्म थी। इसके बाद फिरोज खान के साथ 'चुनौती' बनाई। 'आज का अर्जुन', 'फूल बने अंगारे', 'नसीब अपना-अपना', 'प्यार झुकता नहीं' और 'तेरी मेहरबानियां' जैसी हिट फिल्मों का निर्माण उन्होंने किया है और अभी भी वह फिल्म जगत में निरंतर सक्रिय हैं। उनके 50 साला सफर पर डीडी राजस्थान पर यह खास 'संवाद' 21 अक्टूबर 2022 को रात्रि 9 बजे।



Sunday, October 16, 2022

राजस्थान पत्रिका में 'कला—मन' की समीक्षा

 राजस्थान पत्रिका में आज 'कला—मन' की समीक्षा...

"...लेखक एक ऐसा आकाश दिखाते हैं जिसमें तमाम कलाएं समाए हुई है। इसमें सारी कलाओं का गान है, तथ्य और मर्म के बाद। इनको पढ़ने के बाद पाठक वह नहीं रहता जो इस किताब को पढ़ने से पहले तक था। इसके बाद उसका मन भी लेखक का सा मन हो जाता है, कला—मन।"

—डॉ. सत्यनारायण

राजस्थान पत्रिका, 16 अक्टूबर 2022


Saturday, October 15, 2022

दीप जलाएं जतन से...

 'नवनीत' के अक्टूबर 2022 अंक में...

"... चन्द्रमा की सोलह कलाएं होती है। सोलहवीं कला अमावस्या की अदृश्य कला है। यही अमृता है। अमृता का अर्थ है—समाप्त न होना। दीपावली के जगमगाते दीयों का आलोक हरेक मन को भाता है। सौंदर्य की अद्भुत सृष्टि वहां है। नेत्रों को तृप्ति प्रदान करती हुई। ...दीप पर्व में जीवन को आलोकित करने का मंतव्य गहरे से निहित है। आज से नहीं, युग—युगों से।..."







Saturday, October 8, 2022

लोक स्वरों में माधुर्य का अनुष्ठान

 लोक का वैदिक अर्थ है, उजास। संपूर्ण यह संसार जो दृश्यमान है। लोक शाश्वत है, इसलिए कि वहां जीवन का नाद है। लोक संगीत का जग भी तो अनूठा है! भोर का उजासतपते तावड़े (धूप) में छांव की आस, सांझ की ललाई और तारों छाई रात में छिटकती चांदनी की विरल व्यंजना लोक संगीत में गूंथी मिलेगी। राजस्थान की तो बड़ी पहचान ही इस रूप में है कि यहां शास्त्रीय की ही तरह लोक कलाओं के भी घराने हैं। सुनने में अचरज लगे, पर यह सच है।  मांगणियार, लंगा, मीरासी, ढोली, दमामी आदि जातियां लोक संगीत के घराने ही तो हैं! 

पीढ़ी दर पीढ़ी इन घरानों ने न केवल लोक संगीत की परम्परा को सहेजा है बल्कि समयसंगत करते उसमें निंरतर बढ़त भी की है। दूरदर्शन, जयपुर ने हाल ही कलाओं से जुड़ा महती कार्यक्रम 'संवाद' आरम्भ किया है। इसकी शुरूआत ही सुप्रसिद्ध लोकगायक पद्मश्री अनवर खान से हुई है। उनसे कार्यक्रम में जब बातचीत हुई, उनके गान से साक्षात् हुआ तो लगा, राजस्थान का लोकसंगीत शास्त्रीय आलाप, लयकारी की ​मानिंद माधुर्य का अनुष्ठान है। 


अनवर खान मूलत: मांगणियार है परन्तु सुनेंगे तो लगेगा लोक के आलोक में उनके स्वरो में शास्त्रीयता का भी उजास है। स्वरों की गहराई, लयकारी, आलाप और परम्परा से मिले संस्कारों को उन्होंने अपने गान में सदा ही पुनर्नवा किया है। 

लोक से जुड़ी गणेश वंदना और मांड राग में गूंथे 'पधारो म्हारे देश' को उन्होंने अलहदा अंदाज में जैसे स्वरों से श्रृंगारित किया है।  'झिरमिर बरसै मेह' 'हिचकी', 'हेलो म्हारो सुणो रामसा पीर' और 'दमादम मस्त कलंदर' जैसे जगचावै गीत, भजन, हरजसपर लग रहा था जैसे  लूंठी लयकारी में कोई शास्त्रीय गायक स्वरों को साध रहा है।  यह महज संयोग नहीं है कि सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायकों  पं. रविशंकर, पं. भीमसेन जोशी, पं. जसराज आदि के समानान्तर उनके भी लोक गायन के कार्यक्र्म निरंतर विदेशों में हुए हैं। 

पं. विश्वमोहन भट्ट के साथ कभी उन्होंने 'डेजर्ट स्लाइड' शृंखला के तहत फ्रांस, बेल्जियम, हॉलैण्ड, अमेरिका, अ​फ्रिका आदि देशों में मोहनवीणा, कमायचे, खड़ताल संग धोरों का जैसे हेत जगाया। वह गाते हैं, 'पियाजी म्हारा, बालम जी म्हारा...झिरमिर बरसै मेह...' और लगता है बालू रेत बरसती बरखा की बूंदो संग तन और मन दोनों ही भीगभीग रहे हैं। स्वरों का अनूठा लालित्य! राजस्थानी मांड के दुहों को आलाप में जैसे वह अलंकृत करते हैं।  जीवन से जुड़े अनुभवों, प्रकृति की छटाओं और राजस्थानी रीतिरिवाजों को उनका गान जैसे दृश्य रूप देता है।अनवर खान का गान कुछकुछ सूफी अंदाज लिए है। एक विरल फक्क्ड़पन उनके स्वरों में है। स्वरों का खुलापन! श्वांस पर अद्भुत नियंत्रण। लोक में बसी शास्त्रीयता। सूफी गान की परम्परा का जैसे वह लोकसंगीत में रूपान्तरण करते हैं। कबीर, सुरदास, मीरा, रैदास के लिखे को वह गाते हैं पर सुनते यह भी लगता है कि लोक ने अपने ढंग से बहुत कुछ और भी उनकी रचनाओं में अपना जोड़ा है।

अनवर खान ने देश के ख्यातविख्यात शास्त्रीय गायकसंगीतकारों के साथ जुगलबंदियां की हैं। कभी जगजीत सिंह के एलबम 'पधारो म्हारे देश' के मुख्य गीत का मुखड़ा उन्होंने ही गाया तो 'रंग रसिया', 'धनक' जैसे एलबम में भी उनके स्वरों का उजास बिखरा है। 

वह गाते हैं तो लगता है जैसे धोरों के जीवन से रागअनुराग हो रहा है। कोमल कोठारी के शब्दों में कहूं तो लोक संगीत हमारे सामाजिक संबंधों का संगीतमय इतिहास है। अनवर खान को सुनेंगे तो लगेगा, इस इतिहास को अपने स्वरों से वह जीवंत कर रहे हैं।

Friday, October 7, 2022

दूरदर्शन, राजस्थान का विशेष कार्यक्रम 'संवाद'

दूरदर्शन, राजस्थान ने कला—संस्कृति पर केन्द्रित एक खास कार्यक्रम की शुरूआत की है। इस विशेष कार्यक्रम 'संवाद' की प्रस्तुति—संयोजन करते लगा, लोक में आलोक की छटाएं यत्र—तत्र—सर्वत्र बिखरी हुई है। 


इस कार्यक्रम की पहली कड़ी 23 सितम्बर 2022 को प्रसारित हुई। डीडी राजस्थान स्टूडियो में दर्शकों—श्रोताओं के साथ इस कार्यक्रम में लब्धप्रतिष्ठि लोक कलाकार पद्मश्री अनवर खान से मुलाकात का सुयोग हुआ। 23 सितम्बर 2022 की रात्रि 9 बजे कार्यक्रम जब प्रसारित हुआ तो इसे बहुत सराहना मिली।

डीडी राजस्थान के इस विशिष्ट कार्यक्र्म को आप यहां यू—ट्यूब पर भी देख सकते हैं—

https://youtu.be/yVFb2GidMLg


Saturday, October 1, 2022

विचारोत्तेजक आलेखों की यात्रा

 भास्कर समूह की मासिक पत्रिका 'अहा! जिन्दगी' के अक्टूबर 2022 अंक में 'कला—मन' की परख...

कला—मन विचारोत्तेजक आलेखों की एक यात्रा है। भारतीय कला पर विमर्श का आमंत्रण देते आलेख बार—बार याद दिलाते चलते हैं कि हम अपने ही कला संसार से दूर होते जा रहे हैं।...यहां अवसाद से भरे शिकायती लेख नहीं है, जानकारी से भरपूर, सोचने—विचारने को विवश करते शब्द हैं। ज्ञान की प्रस्तुति, ज्ञानार्जन को आमंत्रित करती है।



Monday, September 19, 2022

सांस्कृतिक सरोकारों का विलक्षण लेखन

लिखने-पढ़ने के आरम्भिक दिनों से ही रांगेय राघव मेरे प्रिय रहे हैं। भाषा, शिल्प और शैली के अनूठेपन में उनका लिखा इतना लयात्मक है कि पढें और बस पढ़ते ही रहें। शब्द-शब्द दृश्यात्मक है उनका लिखा। लोक संवेदनाओं से राग-अनुराग करता। ... यह संयोग ही है कि राजस्थान साहित्य अकादमी के नवनियुक्त अध्यक्ष ने आग्रह कर रांगेय राघव पर ‘मधुमती’ के लिए यह लिखवा लिया। कृतज्ञ हूं! अन्यथा बहुतेरे प्रिय लेखकों पर लिखने के मन का कहां पूरा हो पाता है! रांगेय राघव जी को बहुत पहले पढ़ा था पर जब इस प्रयोजन से फिर से पढ़ने बैठा तो स्मृतियां हरी हो उठी। उनके लिखे को इस आलेख में अंवेरा जरूर है पर वह इस तरह से किसी लिखे में कहां समा सकते हैं! विलक्षण थे वह। उनका समग्र लिखा हुआ भी। जितना उनके लिखे में उतरेंगे, और गहरे उतरते चले जाएंगे...












Tuesday, September 13, 2022

भारतीय कला दृष्टि का विचार संस्कार

'दैनिक नवज्योति' में आज सुधि समालोचक श्री कृष्ण बिहारी पाठक ने 'कला—मन' पुस्तक की समीक्षा की है। उन्होंने पुस्तक की गहराई में जाते हुए लिखे को अपनी दीठ दी है—

'कला- मन' कला दृष्टि संपन्न साहित्यकार डॉ. राजेश  कुमार व्यास की सद्य प्रकाशित कृति है, जिसमें सत्तर विचार प्रधान निबंधों के माध्यम से भारतीय कलाओं में प्रकट - प्रच्छन्न भाव संदर्भों, रूप छवियों और अर्थच्छटाओं को लेखक ने लोकार्पित किया है।कला संदर्भों पर लेखन की विरल परंपरा के बीच यह पुस्तक इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो उठी है कि इसमें भारतीय कलाओं के चैतन्य संस्कारों का प्रतिष्ठापन है। भारतीय कला रूपों को सतही और संकोची दृष्टि से देखती पाश्चात्य चिंतन धारा को ये निबंध तार्किक चुनौती देते हैं।

लेखक के पास अपना एक कला-मन है जिसमें विविध कला रूपों के सृजन और आस्वादन का भरा पूरा संसार है जहाँ सृजन और जीवन की एकरस भूमि पर लेखक चहककर कहता है -"प्रकृति के इस अनाहत नाद में बचेगा वही, जो रचेगा।..इस मूल्य मूढ़ समय में अनुभव संवेदन की हमारी क्षमता के अंतर्गत यह कलाएँ ही है, जो हमें बचाए हुए हैं।"

कला और कलावंतों की यह विविधवर्णी दुनिया अद्भुत है।यहाँ मौन शब्दों को स्वर देती अज्ञेय की काव्य कला है,देखने के सौंदर्य बोध को कलारूप देते छायांकन हैं जो प्रकृति से संवाद करना सिखाते हैं, माटी के सृजन की सोंधी महक से सनी मृण्कलाएं हैं, बहुआयामी कला रूपों का,संवेदनाओं को सहला कर मानव की सुरुचि और सुकुमारता को सहेजता स्पर्श है जिसकी छुअन मानव को मशीनीकृत जड़ता से बचाती है। कलारूपों में अंतर्निहित रस और मिठास की अखंडता को लेखक अभिजात रवींद्रसंगीत की शास्त्रीयता से लेकर लाखा खान की सिंधी सारंगी की लोकधुन में अनुभव कराता है। अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य प्रभाव के चलते विपुल एवं समृद्ध होकर भी भारतीय कला लेखन अपनी भूमि तलाश रहा है।

भारतीय कलाओं के साथ-साथ यह पुस्तक अपनी केंद्रीय चिंता के रूप में कला लेखन की संस्कृति और प्रकृति को संजोने की बात करती है। भाषा, कला, साहित्य और सांस्कृतिक संदर्भों के उपनिवेशीकरण को पुस्तक में निहित वैचारिकता न केवल चिह्नित करती है बल्कि इन संदर्भों के उत्थान का भी मार्ग प्रशस्त करती है। पश्चिम के अंधानुकरण के वेगावेग में भारतीयता की जड़ों को थामने के जतन में लेखक कहता है -

"माधुर्य नकल में नहीं है, उसमें है जो हमारा अपना है।.. हमारे पास अपना इतना कुछ मौलिक है कि उसे हम यदि ढंग से संप्रेषित कर देते हैं तो पश्चिम की ओर देखने की जरूरत ही नहीं रहे।"

मौलिकता और संपन्नता का यह आत्मविश्वास इस पूरी कृति में दमकता है।कला साहित्य और संस्कृति का उन्मुक्त वितान मानव जीवन की संपूर्ण विमाओं तक कैसे विस्तीर्ण है यह इस कृति में रेखांकित है।

तीर्थाटन एवं पर्यटन में सांस्कृतिक बोध का अभिनिवेश, देव प्रतीकों के कलात्मक निहितार्थ, जन और जीवन की सहज क्रियाओं तथा प्राकृतिक ध्वनियों को रचाती - बसाती शास्त्रीय तथा लोक नृत्य परंपराएं, कवींद्र रवींद्र की कला दृष्टि और रूप सृष्टि, बाजारवाद और प्रचारतंत्र में उलझती - सुलझती कलाएँ इन निबंधों में मुखरता से व्यंजित हैं।

कला रूपों में अंतरित होती स्मृतियों - अनुभूतियों में संवहित होती संस्कृति और मूल्य दृष्टि, शब्दब्रह्म की साधना, तकनीकी से मैत्री बैठाती रचनात्मकता, जीवन से जुड़े कला के प्रश्न, कला- संस्कृति को स्पंदित करते संग्रहालय, कावड़ों में गुंफित शिल्पकलाएं, उत्सव, पर्व एवं तीर्थों में संवरती परंपराएं, कला लेखन एवं कलासमीक्षाओं के विविध पक्षों पर सर्वांगपूर्ण विवेचन के साथ यह कृति बार बार पढ़े जाने को आमंत्रित करती है।

—कृष्ण बिहारी पाठक


Sunday, September 11, 2022

"अमर उजाला" साप्ता​हिक किताब में "कला—मन"

सुखद लगता है, जब आपकी लिखी किसी पुस्तक के गहरे में उतरते परख होती है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री डॉ. सी.पी. देवल ने 'अमर उजाला' के लिए "कला—मन" की यह समीक्षा की है।...

भारतीय कलाओं पर हिन्दी में स्तरीय प्रकाशनों की अभी भी बहुत कमी है। डॉ. राजेश कुमार व्यास की सद्य प्रकाशित वैचारिक निबंधों की पुस्तक ‘कला-मन’ इस कमी को कम करने की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है। पुस्तक के ‘पुरोवाक’ में ही लेखक भारतीय कला दृष्टि का वैचारिक गान करता हुआ पाश्चात्य जगत की कला समीक्षा को एक कोण विशेष से देखने वाली बताते हुए भारतीय कला दृष्टि की गहराई में ले जाता है। इसीलिए उदाहरणार्थ वह भारतीय कला में उकेरे श्री कृष्ण की चर्चा करता है।

अमर उजाला

व्यास पुस्तक में लिखते हैं कि भारतीय कला दृृष्टि में कृृष्ण की एक पक्षीय छवि नहीं उकेरकर उसके साथ धेनु, बांसूरी, गोपी, मोर मुकुट कदम्ब के पेड़ के साथ और क्या-क्या और नहीं उकेरा गया है! कला की इस भारतीय दृष्टि से देखने की ही आज आवश्यकता है। लेखक इसे चुनौती रूप में स्वीकार कर पुस्तक में अपने विचार और अनुभवों को पाठकों से साझा करता है।

यह महत्वपूर्ण है कि कला के विस्तृत जगत में लेखक डा. व्यास की दृष्टि जहां भी गयी है वह वहीं से देखता कम, पर दिखाता ज्यादा है। लेखक का पूरा जोर कला वस्तु को कैसे देखा जाना चाहिए, इस पर है। वह बहुत बारीकी से देखने की भारतीय ढब को परिभाषित करते हुए छवि को कैसे पढा जाए अर्थात देखा जाए उस ओर भी निरंतर संकेत करता है।

एक कलात्मक आत्मबल के सहारे लेखक चुपचाप भारतीय कला समीक्षा की एक सैद्धान्तिकी भी गढता चला जाता है, जिसकी कि समकालीन समय में बहुत जरूरत है।

‘कला-मन’ पुस्तक हमें कला की उस पगडंडी पर लिए चलती है जहां हम पाठकों का कभी प्रवेश नहीं हुआ है। लेखक हमें कला के सहारे भारतीय सौंदर्यबोध का अहसास कराता हुआ एक तरह से ‘संस्कृति का कला-नाद’ सुनवाता है। लेखक ने ‘लोकतंत्र और कला’, ‘राष्ट्र और संस्कृति’ जैसे बहुत से वैचारिक लेखों में भारतीय कला के सामयिक सवाल उठाए हैं, उनका सहज जवाब भी दिया है।

हमारी कलाओं में लय—ताल और रूप-स्वरूप की भाव व्यंजना के साथ संवेदनाओं पर जोर है। कोई कलाकृति भारतीय आंख से देखने के समय में ही नहीं देखने के बाद भी मन में निरंतर रस की सृष्टि करती है। रस निष्पत्ति की यह अबाध परम्परा ही भारतीय कला का सच है, यह बात भी हमें ‘कला-मन’ पुस्तक समझाती है।

इसे पढ़ने के बाद लेखक व्यास से अपेक्षा करता हूं कि वह भारतीय कला को इसी तरह भारतीय कला शब्दावली में उजागर करने का प्रयास करते रहेंगे। इसी से हमारा भारतीय मन असल में कला गंगा के तीर पर नहाकर अपने को ‘कला-मन’ करने में सक्षम होगा।

Saturday, September 10, 2022

मिस्र की प्राचीन सभ्यता का कला रूपान्तरण

 सभ्यता का इतिहास मनुष्य की कल्पनाओं से गढ़ी रचनाओं से अधिक यथार्थ की रूपान्तरणात्मक खोजों में सदा जीवंत हुआ है। पुरातत्व खोजों और उत्खनन में प्राप्त मूर्तियों, चित्र, वास्तुकला आदि से जुड़े तथ्यों ने ही अतीत के विस्मृत अध्यायों से पर्दा उठाया है। सुप्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक दया कृष्ण की महत्वपूर्ण अंग्रेजी पुस्तक है, ' प्रोलोजेमेना टू एनी फ्यूचर हिस्टोरियोग्राफी ऑफ कल्चरर्स एण्ड सिविलाइजेशन्स' इसमें उन्होंने मानव इतिहास को देखने के लिए शिल्प, शास्त्र और पुरूषार्थ के साथ संस्कार को भी जोड़ा है। उनके लिखे के आलोक में यह पाता हूं कि सभ्यताओं के उत्थान और पतन की गहरी दृष्टि असल में जीवन से जुड़े संस्कारों में ही बहुत से स्तरों पर समाई हुई है। जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में इस समय एक माह के लिए 'तुतेनखामुन सिक्रेट्स एण्ड ट्रेजर्स' प्रदर्शनी लगी  हुई है। इसे देखा तो लगा, गुम हुई प्राचीन मिस्र की नाइल नदी सभ्यता संस्थापन में यहां जीवंत हुई है।

विश्व के सात अजूबों में मिस्र के पिरामिड भी है। शुष्क जलवायु के कारण मिस्र में शव जल्दी नष्ट नहीं होते इसलिए वहां जीवन की निरंतरता में आस्था रही है। राजा चूंकि वहां देवत्व रूप में शासन करते रहे हैं, उन्हें आभूषणों से सज्जित स्वर्णिम सिंहासन, रथ, घोड़ों, पलंग, मुद्राओं और तमाम अपने ऐश्वर्य के साथ कब्र में दफनाने की परम्परा रही है। सुनेसुनाए इतिहास, पाषाण पर, मिट्टी और पपाईरस यानी रेशे जैसे कागज पर मिली मिस्र की चित्र लिपियों के अध्ययन में जाएंगे तो यह भी पाएंगे कि एक समय में मिस्र की सभ्यता बेहद समृद्धसंपन्न और कलात्मक रही है। इजिप्ट के कलाकार डॉ.मुस्तफा अलजैबी ने वहां के शासक तुतेनखामुन के जीवनआलोक में इसी सभ्यता को जवाहर कला केन्द्र में मूर्तिकला, चित्रकला और संस्थापन में जैसे जीवंत किया है।

राजस्थान पत्रिका, 10 सितम्बर 2022

कहते हैं, तुतेनखामुन की बहुत कम उम्र में हत्या हो गयी थी। ब्रिटिश पुरातत्वविद् हावर्ड कार्टर ने 1922 में उनकी खोई हुई संरक्षित कब्र की खोज की थी। इस खोज ने ही वहां की प्राचीन कलात्मक परम्पराओं, चित्रलिपि और मूर्तिकला से जुड़े सौंदर्य संसार के भी द्वार नए रूपों में हमारे सामने खोले। जवाहर कला केन्द्र में मिस्र की सभ्यता से जुड़ी कलाप्रदर्शनी इस मायने में भी महती है कि इसमें स्वर्ण और दूसरी धातुओं की रंगधर्मिता, मूर्तियों के अनुपातसमानुपात के साथ रेखीय अंकन की गहराई है। सम्राट और उसकी जीवनचर्या, पशुपक्षियों, प्रकृति और जीवन से जुड़े संदर्भों की कलाप्रस्तुति में रमते यह भी लगता है कि मिस्र का सोया हुआ प्राचीन इतिहास जैसे हमारी आंखो के समक्ष जाग उठा है। प्राचीन मकबरे को लकड़ी, रेजिन और सोने की ढलाई जैसी विभिन्न तकनीकों का उपयोग करके यहां पुनर्नवा किया गया है।

मिस्र को सोने के गहने पहनने वाली पहली सभ्यताओं में से भी एक माना जाता है। शासक तुतेनखामुन का नाम भी चन्द्रमा की कला से जुड़ा है। तुतेनखामुन माने अमुन की परछाई। अमुन मिस्र के देवता का नाम है। यही अमुन हमारा चन्द्रमा है।     

यह महज संयोग ही नहीं है कि वास्तुकार चार्ल्स कोरिया ने जवाहर कला केन्द्र का निर्माण नवग्रहों से जुड़ी कलाकृतियों के संदर्भ सहेजते किया था। यहां कॉफी हाउस में जब भी जाना होता है, टेबल्स में चंद्रमा की घटतीबढ़ती कलाओं को रूपायित पाता हूं। उसी जवाहर कला केन्द्र में तुतेनखामुन यानी चन्द्रमा की परछाई के आलोक में मिस्र की सभ्यता से जुड़ी कला प्रदर्शनी देखना विरल अनुभव है। इसलिए भी कि ग्रीक, फ़ारसी और असीरियन आक्रमणों ने कभी इस प्राचीन सभ्यता को कभी पूरी तरह से ख़त्म कर दिया था। सोचता हूं, यह कलाएं ही तो हैं, जो इस तरह से किसी सभ्यता और संस्कृति को हममें पुनर्नवा करती है।