ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, April 16, 2022

काल को नियोजित करती कलाएं

कलाएं अंतर्मन संवेदना के उत्स में भीतर के हमारे सौन्दर्यबोध को जगाती हैं। लोक संस्कृति, परम्पराओं, रहन-सहन और स्थान विशेष के वास्तु, स्थापत्य में बहुत सा वह कलाओं का अर्न्तनिहित ही होता है जो आनंद का हमारा हेतु बनता है।  

बहुतेरी बार यह भी लगता है, कलाएं वृहद स्तर पर काल को नियोजित करती हैं। कुछ दिन पहले कालिंजर दुर्ग स्थित नीलकण्ठ जाना हुआ। शैलकृत गर्भगृह, एक मुखी शिवलिंग और स्तम्भ युक्त मण्डप! परिसर में विशाल खड़ी षोडषभुजी काल भैरव रूपी गजान्तक शिव की विरल प्रतिमा। गुफाओं, चट्टानों में उकेरी हजारों-हजार प्रतिमाओं के शिल्प वैभव से साक्षात् होते चंदेल शासकों के कला अनुराग से स्वतः मन साक्षात्कार करता है। शिव के नीलकण्ठ की विरल व्यंजना वहां प्रकृति प्रदत अचरज में भी है। जितनी भी शिव मूर्तियां वहां हैं, उनका कण्ठ गीला मिलेगा। पत्थरों में न जाने कहां से पानी आता है और वह कहीं और नहीं शिव के कण्ठ में ही जैसे ठहरता है। कला में पौराणिक काल का सुमधुर यह कला संयोजन ही तो है! 

अजंता,एलोरा की गुफाओं में, खजूराहो, कोर्णार्क की मूर्तियों में, सांची के स्तूप में, अशोक कालीन स्तम्भों में और तमाम हमारे प्राचीन स्थापत्य में कला नियोजन के ऐसे ही अनूठे चितराम प्रतिबिम्बित होते है। यही क्यों, समाधियां, स्मारकों में भी हमारे पूर्वजांे की संलिप्तता एक खास अंदाज में दिखाई देती है। 

राजस्थान पत्रिका, 16 अप्रैल 2022

यह जब लिख रहा हूं, यायावरी मन का देखा और भी बहुत सारा ऐसा ही आंखों के समक्ष जैसे साकार हो रहा है। कुछ वर्ष पहले खैरागढ़ स्थित देश के एक मात्र इन्दिरा संगीत कला विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने जाना हुआ था। वहां से अस्सी किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के खजूराहो कहे जाने वाले कबीरधाम जिले में स्थित शिव धाम भोरमदेव भी तब जाना हुआ। रास्ते भर आदिवासी संस्कृति से साक्षात् होते मैनें पाया सड़क किनारे छपरेल के घरों में खास अंदाज में सिंदुरी रंग में चित्रकृतियां अंकित हैं। भोरमदेव पहुंचा तो वहां भी सिंदुरी रंग से सजा भोरमदेव मंदिर का संकेत चिन्ह अलग से दिखा। मंदिर की दीवारों पर शिल्पियों द्वारा अंकित सुंदर प्रतिमाएं। बहुत सारी मिथुन मूर्तियां भी। लौट आया पर वहां के वास्तु शिल्प और मिट्टी में समाए सिंदूरी रंग में ही मन रमा है। ऐसे ही हर स्थान में, वहां की मिट्टी का अपना एक खास रंग होता है, गौर करेंगे तो युगीन सरोकारों से जुड़ा और भी बहुत कुछ कला का हम पाएंगे ही। 

भुवनेश्वर में लिंगराज का सुंदर मंदिर है। यह शहर दो भागों मंे बंटा हुआ है। एक आधुनिकता से जुड़ा है तो दूसरा पूरी तरह से प्राचीन संस्कृति को अपने में समाए है। लिंगराज मंदिर और वहां के अंधेरे गर्भगृह में दीपक की रोशनी का भला-भला उजास अभी भी मन सहेजे हुए है। बिन्दु सागर झील और खंडहर पाषाण मंदिरों का शिल्प वैभव अतीत से जुड़े अनुभवों की जैसे यात्रा कराता है। धरोहर संपन्न बहुत से नगर, स्थान, छतों के कंगूरें, चौराहों पर स्थापित मूर्तिशिल्प अतीत के अन्वेषण को प्रेरित करते हैं! कहीं रखी हुई पुराने ढंग की बैंच, पुराना बाजा, घड़ियों, झाड़फानुशों को देखकर ऐसा अनुभव होता है जैसे हम पुराने युग में प्रवेश कर रहे हैं। रोड साईटों पर लगाये गये पिल्लरों, उनमें बंधी लोहे की सांकलों को ही लें। शहर की संस्कृति, वहां की कला से आपका सीधे जैसे साक्षात् होता है। गुलाबी नगरी जयपुर की चौपडें़, एकरस बनी दुकानें, गुलाबी रंग और यहा का वास्तु-सभी में सुव्यवस्थित बसावट की धरोहर जैसे हमें बहुत कुछ और भी पढ़ा-सुना याद दिलाती है। बीकानेर की तंग गलियांे, हवेलियों, चौक मोहल्लों में बिछे तख्त पाटों की संस्कृति में अपनत्व के संस्कार जैसे घुले हुए हममें बसते हैं। प्राचीन दुर्ग, मंदिरों, नगरों के शिल्प-स्थापत्य में युग ऐसे ही तो ध्वनित होता हममें जैसे समाता है। 




Sunday, April 3, 2022

यात्रा वृतान्त 'नर्मदा के कंकर सब शिवशंकर'


धुन के धनी संपादक मित्र हरीश बी. शर्मा के संपादन में प्रकाशित

​ 'कथारंग वार्षिकी 2022—2023' में प्रकाशित यात्रा वृतान्त...