ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Friday, April 16, 2021

मनोरंजन का आधार बने कलाएं

मनोरंजन माने मन का रंजन। पर इधर मनोरंजन में कला पक्ष गौण प्रायः हो रहा है। कहने को रेडियो-टीवी सर्वाधिक मनोरंजन करने वाले माध्यम हैं पर मनोरंजन के नाम पर भाषा के अनर्गल, फूहड़पन में वहां भोंडे लतीफे, नाग-नागिन, सास-बहू जैसे कभी न समाप्त होने वाले धारावाहिक परोसे जा रहे है। भावपूर्ण पारम्परिक हमारे नृत्यों के स्थान पर शरीर के अंगो की लोच के करतब और भयावह अपराध गाथाओं को दिखाने को ही मनोरंजन मान लिया गया है। विचार करें, इसी से युवापीढ़ी क्या तेजी से अवसादग्रस्त नहीं होती जा रही!

राजस्थान पत्रिका, 16.4.2021
कलाएं हमारे यहां रूप-रंगो से ही नहीं उत्सवधर्मिता से भी जुड़ी रही हैं। मनोरंजन में कलाओं के लोक-आलोक से ही मन रंजित होता है। नाट्य की हमारी समृद्ध परम्परा में विदूषक की उपस्थिति स्वस्थ मनोरंजन का कभी बड़ा आधार थी। संस्कृत नाट्य साहित्य के लोकप्रिय रूपक ‘मृच्छकटिकम्’ के एक प्रसंग में विदूषक से राजा कहते हैं, ‘कहानी सुनाओ।’ वह कहानी की शुरूआत करते कहता है, ब्रह्मदत्त नाम का राजा है। काम्पिल्य नाम की नगरी। राजा सुधारता है, ‘मूर्ख, राजा काम्पिल्य, नगर ब्रह्मदत्त। विदूषक इसको कईं बार रटता है। इतने में राजा को नींद आ जाती है। ‘सहस्त्र रजनी चरित’ में राजा हर रात एक स्त्री की हत्या करवाता है। एक दिन राजा के महामंत्री की पुत्री स्वयं आग्रह कर राजा के पास जाती है। रात्रि में वह राजा को कहानी सुनाना प्रारंभ करती है। भोर होने तक वह हर रात कहानी को ऐसे मोड़ पर ले आती है कि उसे सुने बिना राजा रह नहीं सकता। कहानी में कहानी। कहानी में एक और कहानी। इस तरह से कहानियों का जो सिलसिला प्रारंभ होता है वह निरंतर आगे बढ़ता रहता है। और एक रोज राजा का हृदय परिवर्तन हो जाता है। ‘सहस्त्र रजनी चरित्र’ कहीं ‘अलिफ लैला’ हैं तो कहीं ‘दास्तानें हजार रात’। ‘कथा सरित्सागर’ की कथाएं भी कम मनोरंजक नहीं है। विष्णु शर्मा रचित ‘पंचतंत्र’ में मूर्ख राजपुत्रों को जीव जंतुओं की कथाओं के जरिए नीति संदेशों में भी रंजन हैं। हमारे यहां तो पहेलियां भी इसका बड़ा आधार रही है। कभी दरड़ी ने ‘काव्यादर्श’ में सोलह प्रकार की प्रहेलिकाएं बतायी थी। कहते हैं उसी से बाद में खूसरो ने ‘बूझ पहेली’ और ‘बिन बूझ पहेलियां’ गढ़ी। संगीत के अंतर्गत ध्रुवपद में ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ जैसे निर्थक शब्द भी कुछ इसी तरह से आए। कहते हैं अमीर खुसरो जब भारत आए तो उन्हें ध्रुवपद की भारतीय परम्परा बहुत भायी पर संस्कृत के श्लोकों को देख वह घबराए। वह अरबी विद्वान थे। उन्होंने ध्रुवपद में संस्कृत शब्दों की बजाय निर्थक ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ शब्द गढ़ कर तरह-तरह के हिन्दुस्तानी राग गाए। यही बाद में तराने हुए। मनोरंजन के ऐसे ही कलात्मक रूपों में हमारी संस्कृति निरन्तर संपन्न होती रही है।
संगीत, नृत्य, नाट्य कलाएं ही तो स्वस्थ मनोरंजन का आधार है। इसलिए भी कि इनके ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक संदर्भ हैं और कोई भी समाज सांस्कृतिक संदर्भ खोकर आगे नहीं बढ़ सकता। इस दृष्टि से टीवी-रेडियो माध्यमों में मनोरंजन का बड़ा आधार क्या यह कलाएं ही नहीं होना चाहिए!