यह वर्ष कल बीत जाएगा। नव वर्ष में नई भोर संग हम और नये होंगे। यही जीवन है।
भारतीय संदर्भों में यह संस्कार हैं। एक तरह से आत्मान्वेषण की प्रकिया। जितना हम अपने आपको जानेंगे, उतना ही आगे बढेंगें। 'चरैवेति' का मूल भी यही है।
कठोपनिषद् में कथा है, नचिकेता पिता द्वारा यज्ञ पश्चात दक्षिणा में मरणासन्न गायों को दान होते देख व्यथित होता है। प्रश्न करता है, वह उन्हें किसे दान देंगे? क्रोधित पिता कहते हैं, यम को। नचिकेता यमलोक पहुंचता हैं। तीन दिन वह बिना अन्न—जल ग्रहण किए यम की प्रतीक्षा करता है। यम प्रसन्न हो उसे तीन वर मांगने को कहते हैं। नचिकेता मांगता है, क्रोधित पिता प्रसन्न हो जाए। यम कहते हैं, ऐसा ही होगा। दूसरा वर वह स्वर्ग में अमरत्व प्राप्ति के रहस्य जानने का मांगता है। यम इसका ज्ञान उसे देते हैं। पर नचिकेता जब तीसरा वर ब्रह्म को जानने के संबंध में मांगता है तो यम अचरज करते हैं। वह उसे यह वर नहीं मांग हर तरह के सुखों के भोग, पृथ्वी सम्राट बनने आदि का प्रलोभन देते हैं। नचिकेता नहीं मानता। अंतत: यम उसे जो ज्ञान देते हैं, उसका मूल है—ब्रह्म माने आत्म का अन्वेषण। अपने आपको जानना। मिथ्या ज्ञान की माया से यही हमें मुक्त करता है।
पर प्रश्न है, आत्म का ज्ञान कोई कैसे करे?
नव वर्ष का संकल्प क्या यही नहीं होना चाहिए कि हम अपने पास जो है, उसको देखने, उसके बारे में चिंतन की दृष्टि विकसित करें।
विचार करें, हममें से कितने हैं जिनके पास अपनी बरती, पढ़ी जाने वाली भाषा का शब्दकोश है? जर्मन दार्शनिक हेगल पश्चिम दर्शन के संस्थापक माने जाते है। उनकी 'कला का दर्शन' पुस्तक जगचावी हुई। इसमें उन्होंने स्थापत्य को प्रतीकवाद बताते उसमें संगीत के संबंधों पर चर्चा की है। एक अनुभूति शायद उन्हें किसी इमारत को देखकर हुई होगी कि वाह! यह तो संगीत की तरह है। बस, उन्होंने यह लिख दिया और फिर तो उनके इस ज्ञान से भी आगे सोचने की जैसे झड़ी लग गयी। बगैर सोचे—समझे स्थापत्य को कलाओं की जननी कहना प्रारंभ कर दिया गया। आज भी हमारे यहां कोई समाचार लिखा जाता है या वास्तु पर कोई बात होती है तो सूत्र वाक्य उभरता है, 'आर्किटेक्चर— द मदर ऑर ऑल आर्ट्स'।
विचार करें, कैसे यह हो सकता है? जब मनुष्य आदिम अवस्था में था तो आसमान उसकी छत थी। बाद में वह कंदराओं में रहने लगा। मन प्रसन्न होता तो नाचता। गाता। गुफा की दीवारों पर चित्र उकेरता। घर तो बहुत बाद में बने। तो स्थापत्य बाद की बात है। पहले नृत्य, संगीत, चित्र है। अनुभूति का सौंदर्य अलग है, कलाओं का इतिहास तथ्याधारित है। कलात्मक सौंदर्य कोई शब्द—अलंकार नहीं है कि जिसे हम इतिहास की किसी स्थापना से जुड़े विचार का वस्त्र पहना दें।
इसलिए आईए नव वर्ष में भाषा और शब्द की सूक्ष्म सूझ से हम अपने आपको जोड़ें। शब्द की अर्थगर्भित छटाओं को निहारने में रुचि लें। दृष्टि को तर्कसंगत बनाएं।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार ऐसे ही नहीं मिला। उन्होंने जो लिखा आत्मान्वेषण की साधना है। उन्होंने ताजमहल को अनंत काल के गाल पर आंसुओं की एक बूंद कहा है। कम शब्दों में कितनी गहरी बात उन्होंने कही है! शब्द—सौंदर्य में दृष्टिकोण इसी तरह तर्कसंगत बनता है।
हम कहते हैं, बंधु! कभी सोचा है, इसका अर्थ कितना गहरा है? बंधु माने वह जो बांध लेता है। तो आइए, हम अपने स्वयं के पास जो है, उसको खुली आंखो से देखते मनन करने में अपने आपको बांधें। इसी से नया कुछ मिलेगा। नव वर्ष की अग्रिम स्वस्तिकासना!