ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, December 30, 2023

नई भोर संग हम और नये हों-आत्मान्वेषण करते ...


यह वर्ष कल बीत जाएगा। नव वर्ष में नई भोर संग हम और नये होंगे। यही जीवन है। 
चलते रहें। कभी न थमें। पानी एक जगह ठहरता है तो सड़ांध मारने लगता है। बुद्ध ने इसलिए कहाचरत भिक्खवे चारिकं। भिक्षुओं चलते रहो। बहुश्रुत मंत्र हैचरैवेति। चरैवेति।

संस्कृति का यही मूल है। चलने का अर्थ पैर बढ़ाना भर नहीं है। पुरातन को छोड़ नूतन की ओर गमन है। विडम्बना हैहमने आधुनिकता को अभिनव मान लिया है। यह भ्रम पश्चिम ने फैलाया। वहां के लेखकों ने कलाओं और दूसरे अनुशासनों में आधुनिकता को युग बोध से जोड़ संस्कृति सापेक्ष बना दिया। असल में आधुनिकता फैशन नहींविचार है। 


भारतीय संदर्भों में यह संस्कार हैं। एक तरह से आत्मान्वेषण की प्रकिया। जितना हम अपने आपको जानेंगेउतना ही आगे बढेंगें। 'चरैवेतिका मूल भी यही है।


कठोपनिषद् में कथा हैनचिकेता पिता द्वारा यज्ञ पश्चात दक्षिणा में मरणासन्न गायों को दान होते देख व्यथित होता है। प्रश्न करता हैवह उन्हें किसे दान देंगेक्रोधित पिता कहते हैंयम को। नचिकेता यमलोक पहुंचता हैं। तीन दिन वह बिना अन्न—जल ग्रहण किए यम की प्रतीक्षा करता है। यम प्रसन्न हो उसे तीन वर मांगने को कहते हैं। नचिकेता मांगता हैक्रोधित पिता प्रसन्न हो जाए। यम कहते हैंऐसा ही होगा। दूसरा वर वह स्वर्ग में अमरत्व प्राप्ति के रहस्य जानने का मांगता है। यम इसका ज्ञान उसे देते हैं। पर नचिकेता जब तीसरा वर ब्रह्म को जानने के संबंध में मांगता है तो यम अचरज करते हैं। वह उसे यह वर नहीं मांग हर तरह के सुखों के भोगपृथ्वी सम्राट बनने आदि का प्रलोभन देते हैं। नचिकेता नहीं मानता। अंतत: यम उसे जो ज्ञान देते हैंउसका मूल है—ब्रह्म माने आत्म का अन्वेषण। अपने आपको जानना। मिथ्या ज्ञान की माया से यही हमें मुक्त करता है।


पर प्रश्न हैआत्म का ज्ञान कोई कैसे करे

नव वर्ष का संकल्प क्या यही नहीं होना चाहिए कि हम अपने पास जो हैउसको देखनेउसके बारे में चिंतन की दृष्टि विकसित करें। 


विचार करेंहममें से कितने हैं जिनके पास अपनी बरतीपढ़ी जाने वाली भाषा का शब्दकोश है?  जर्मन दार्शनिक हेगल पश्चिम दर्शन के संस्थापक माने जाते है। उनकी 'कला का दर्शनपुस्तक जगचावी हुई। इसमें उन्होंने स्थापत्य को प्रतीकवाद बताते उसमें संगीत के संबंधों पर चर्चा की है। एक अनुभूति शायद उन्हें किसी इमारत को देखकर हुई होगी कि वाह! यह तो संगीत की तरह है। बसउन्होंने यह लिख दिया और फिर तो उनके इस ज्ञान से भी आगे सोचने की जैसे झड़ी लग गयी। बगैर सोचे—समझे स्थापत्य को कलाओं की जननी कहना प्रारंभ कर दिया गया। आज भी हमारे यहां कोई समाचार लिखा जाता है या वास्तु पर कोई बात होती है तो सूत्र वाक्य उभरता है, 'आर्किटेक्चर— द मदर ऑर ऑल आर्ट्स'

 

विचार करेंकैसे यह हो सकता हैजब मनुष्य आदिम अवस्था में था तो आसमान उसकी छत थी। बाद में वह कंदराओं में रहने लगा। मन प्रसन्न होता तो नाचता। गाता। गुफा की दीवारों पर चित्र उकेरता। घर तो बहुत बाद में बने। तो स्थापत्य बाद की बात है। पहले नृत्यसंगीतचित्र है। अनुभूति का सौंदर्य अलग हैकलाओं का इतिहास तथ्याधारित है। कलात्मक सौंदर्य कोई शब्द—अलंकार नहीं है कि जिसे हम इतिहास की किसी स्थापना से जुड़े विचार का वस्त्र पहना दें।


इसलिए आईए नव वर्ष में भाषा और शब्द की सूक्ष्म सूझ से हम अपने आपको जोड़ें। शब्द की अर्थगर्भित छटाओं को निहारने में रुचि लें। दृष्टि को तर्कसंगत बनाएं।


 रवीन्द्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार ऐसे ही नहीं मिला। उन्होंने जो लिखा आत्मान्वेषण की साधना है। उन्होंने ताजमहल को अनंत काल के गाल पर आंसुओं की एक बूंद कहा है। कम शब्दों में कितनी गहरी बात उन्होंने कही है! शब्द—सौंदर्य में दृष्टिकोण इसी तरह तर्कसंगत बनता है। 


हम कहते हैंबंधु! कभी सोचा हैइसका अर्थ कितना गहरा हैबंधु माने वह जो बांध लेता है। तो आइएहम अपने स्वयं के पास जो हैउसको खुली आंखो से देखते मनन करने में अपने आपको बांधें। इसी से नया कुछ मिलेगा। नव वर्ष की अग्रिम स्वस्तिकासना!



Saturday, December 2, 2023

अन्तर अन्वेषण में उपजती कला—संस्कृति की परम्पराएं

पत्रिका, 2 दिसम्बर 2023 

हमारे सांस्कृतिक प्रतीकों पर जाएंगे तो यह गहरे से अनुभूत होगा कि वहां बाह्य पक्ष ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि विचार—उजास में परम्पराबद्ध ज्ञान की जड़ें वहां पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। मोर पंख को ही लें। बचपन में पढ़ाई करते तो इसे किताब में रखते। शुभ मान सहेजते। कहां से आई यह दृष्टि?  कथा आती है कि गीत गोविंद की रचना करने वाले जयदेव तब राधा—माधव लीला रच रहे थे। एक पद में वह अटक गए। सुबह से सांझ होने को आई, कविता पूरी ही नहीं हुई। उहापोह में वह नहाए ही नहीं। पत्नी ने कहा, 'आप नहाकर भोजन करलें। संभव है, नया कुछ पा जाएं।' अनमने जयदेव नदी तट को हो लिए। अभी कुछ ही देर हुई कि द्वार खटखटाया। पत्नी ने कहा, 'आप इतनी जल्दी लौट आए? जयदेव ने कहा, ' हां, याद आ गया। अभी पद पूरा कर देता हूं।' 

उन्होंने कविता पूर्ण की। पत्नी ने भोजन कराया और फिर सदा की तरह वह  बिस्तर पर लेट गए। कुछ ही देर में किवाड़ फिर से बजा। पत्नी ने द्वार खोला तो हतप्रभ! गीले वस्त्रों में जयदेव थे। वह बोली, आप आए हैं तो फिर वह कौन है जो अंदर सो रहे हैं। जयदेव भागे—भागे कक्ष में पहुंचे। देखा उनका अधूरा छंद पूर्ण हुआ पड़ा था। पास ही मोरपंख रखा था। जयदेव समझ गए, प्रभु माधव खुद आए थे उनका पद पूर्ण करने! 

कला-संस्कृति में संस्कारों की ऐसे ही बढ़त होती है। सौंदर्य की सूझ का मूल भी यही है। हम कहते हैं, कृषि- संस्कृति। कहां से आया यह शब्द?  युग लग जाते हैं, तब कोई सधा हुआ शब्द—रूप इस तरह से सभ्यता में समाता है। 

खेती का जब आविष्कार नहीं हुआ था तब मनुष्य पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर था। जो कुछ धरती पर पक्षी उगलते, उससे उपजे धरती—धन से ही उसका गुजारा होता। पेड़ों पर फल लगते तो वह उनको खाकर अपनी क्षुधा शांत करता। पर तब संकट का समय होता जब अकाल पड़ता या फिर कोई प्राकृतिक प्रकोप से उसका सामना होता। दिन—महिने मनुष्य को भूखे रहना पड़ता। ऐसे ही तब किसी मनुष्य को सूझा होगा कि कैसे धरती में बीज समाता है और अन्न् उपजता है। कैसे पेड़ पर फल लगते हैं। बस फिर क्या था? जंगल के एक हिस्से की सफाई कर मुनष्य ने झुम—खेती प्रारंभ कर दी। उत्पादन हुआ तो प्रकृति पर उसकी निर्भरता खत्म हो गयी। कृषि-संस्कृति के बीज ऐसे ही हममें समाए।

जीवन को अर्थ देने वाली या फिर नए ढंग से देखने की दृष्टि जहां भी हमें मिली है, हमने उसे सहेजा है। पर जहां उस दृष्टि का मूल हमें नहीं मिला, हमने उसे ईश्वर—प्रदत्त कहा है। 

वेदों को ईश्वरीय ज्ञान कहा गया है। क्यों? इसलिए कि तब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था। ऋषियों के गूढ़ ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी कंठस्थ सहेजा गया। श्रुति परम्परा से यह आगे बढ़ा पर लिपि के आविष्कार से इन्हें पुस्तकाकार मिला। वैदिक काल में चित्रकला नहीं थी परन्तु रूप—कल्पना थी। 

वृहदारण्यक उपनिषद् में अश्वमेघ यज्ञ के स्थान पर इस सारे विश्व को अश्व के रूप में मानकर उसका ध्यान योग द्वारा यज्ञ का निर्देश है। ऊषा अश्व का शिर माना गया है, सूर्य उसके नेत्र बताए गए हैं, वायु उसका प्राण, अग्नि उसका मुख और वर्ष उसकी आत्मा कही गयी है। इसी तरह अन्य उपमाओं से एक विराट् रूप का वर्णन है। यह जो कल्पनाएं हुई हैं, उन्हीं से कालजयी फिर रचा गया है। मूर्तिशिल्प, संगीत में या नृत्य में कोई नई उपज हुई है, नाट्य में कथा को नई दृष्टि से सहेजा गया है तो उसमें अंतर का यह अन्वेषण ही प्रमुख आधार रहा है।


Saturday, November 18, 2023

संघ गणराज्य संस्कृति से जुड़ा लोकतंत्र और श्री कृष्ण

 पत्रिका, 18 नवम्बर, 2023

पर्व का अर्थ है उत्सव। नई शुरूआत। उल्लसित मन से सब हिल—मिल जिसे मनाए, वह है पर्व। पर्व का मूलार्थ है—गाँठ या जोड़। इससे आगे पूंगल फूटती है। पुंगल माने प्राणियों की वह चेतन शक्ति जिससे वे जीवित रहते हैं। पर्व इसीलिए जीवंतता का संवाहक है। इस समय देश के पांच राज्यों में लोकतंत्र का पर्व मनाया जा रहा है। तीन दिसम्बर को जब वोटों की गिनती होगी तो इन राज्यों में जनतंत्र की नई शुरूआत ही तो होगी। वेदव्यास रचित महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है। कौरव—पाण्डवों का युद्ध अठारह दिन चला इसलिए अठारह पर्व है। युद्ध आरम्भ होने के ठीक पहले अर्जुन युद्ध करने से मना करता हैं तब श्री कृष्ण उन्हें जो उपदेश देते है, वही महाभारत के भीष्म पर्व का अंग 'श्रीमद्भगवद्गीता' है।  इसमें भी अठारह अध्याय हैं।

गीता के जरिए बगैर किसी फल की कामना कर्म का संदेश देने वाले भगवान अवतारों में अकेले श्री कृष्ण हैं जो संपूर्ण कला—पुरूष कहे गए हैं। भगवान राम भी अवतार हैं पर वह बारह कलाओं युक्त थे। सूर्य वंश में वह अवतरित हुए। सूर्य की बारह कलाएं है। श्री कृष्ण चन्द्र वंश से थे। चन्द्रमा आदि—अनादि शिव कृपा से आकाश में सोलह कलाएं बांटते हैं। पर यह भी जान लें कि कम या अधिक कला से किसी अवतार का महत्व अधिक—ज्यादा नहीं हो जाता है। अवतारों की कलाएं आवश्यकता आधारित हैं। श्री राम को रावण का वध कर मर्यादित समाज की स्थापना करनी थी, इसमें बारह कलाएं युक्त होना ही पर्याप्त था। कृष्ण द्वापर युग के अंत में जन्में। उन्हें धर्म की पुनर्स्थापना करनी थी। इसलिए सभी सोलह कलाओं की उन्हें जरूरत थी। वह सोलह कलाओं संग 64 विधाओं यानी गुणों से संपन्न थे। और फिर श्री कृष्ण हमारे देश के लोकतंत्र के भी सबसे बड़े नायक हैं। महाभारत में वर्णित अनेक राज्यों में कोई संघ राज्य नहीं था, बस एक द्वारका संघ राज्य थी। श्री कृष्ण ने ही इस संघ राज्य की नींव डाली। उसे पाला और वैभव दिया। समर्थ होते हुए, बड़ी शक्ति रखते हुए भी उन्होंने संघ के आदर्श को प्रधानता दी। एकतंत्र नहीं किया। चाहते तो कंस को मारने के बाद वह मथुरा के राजा बन सकते थे परन्तु उन्होंने संघ राज्य में विश्वास किया।   महाभारत में अकेला द्वारका ही एक ऐसा गणराज्य था जिसके संघ प्रमुखों की सेनाएं दोनों पक्षों की ओर से युद्ध लड़ रही थी। कृष्ण अर्जुन के सारथी बन पाण्डवों के साथ थे पर उनकी गोपवीरों की नारायणी सेना दुर्योधन के लिए लड़ी। द्वारका के ही एक और राजन्य कृतवर्मा ने अपनी सेना के साथ दुर्योधन का साथ दिया। तो कहें, भारत में गणराज्यों की नींव कलाओं के सर्वांग श्री कृष्ण के कारण ही पड़ी।

श्री कृष्ण भारतीय कलाओं ही नहीं हमारी संस्कृति में भी गहरे से रचे—बसे हैं। वह महाभारत के मानवीय नायक हैं तो धर्म और अध्यात्म के रूढ़ अर्थों से हमें मुक्त करते लौकिकता में अलौकिकता की अनुभूति कराने वाले हैं। गोवर्धन पर्वत उठाए,  वन में मुरली बजाते धेनु और कदम्ब संग, मोर—मुकुट की भांत—भांत की की उनकी मोहक मूरतें भारतीय लघु चित्रों की ही प्रेरणा नहीं रही है, हमारी संस्कृति को भी निरंतर पर्व—मय करती रही है। वेदव्यास जी ने श्रीमद् भागवत में श्री कृष्ण की जिन लीलाओं को शब्द—शब्द उकेरा है,  अद्भुत है। गीत गोविन्द में जयदेव ने जिस तरह से कृष्ण संग राधा का वास कराया है वह भी तो विरल है! कृष्ण की त्रिभंगी—बांसुरी बजाती, टेढ़ी गर्दन, टेढ़ी कमर की छवियां कितनी मोहक है। यह जो त्रिभंगी जिसकी है, उसमें ही तो विश्वात्मा का भाव—भव है। कलाओं की सर्वांग दीठ और लोकतंत्र में पुरुषार्थ से विजयी होने की प्रेरणा श्रीकृष्ण के इन कला—रूपों में ही मिलेगी। तो आईए,  लोकतंत्र के इस पर्व में श्री कृष्ण को स्मरण करते चुनें उनको जो आपके मत का महत्व समझते सही—सर्वहित की समझ भरा प्रतिनिधित्व करे।


Saturday, November 4, 2023

लोक रची व्यंजनाओं में समाई कला—दृष्टि

लोक का अनूठा माधुर्य रचने वाली जीते जी किंवदंती बनी गायिका अल्लाह जिलाई बाई की कल पुण्यतिथि थी। पर यह विडंबना ही है कि उन्हें किसी ने याद नहीं किया। कभी लता मंगेशकर ने भी 'पधारो म्हारे देस' को उन्हीं की तरह गाने का प्रयास किया पर लोक में घुली जिस शास्त्रीय छटा में अल्लाह जिलाई बाई ने इसे साधा उसकी कहां कोई होड़!  माड प्रादेशिक राग है। कहीं यह मांड भी कहा गया है पर मूलत: है यह माड ही। माड माने मड प्रदेश। संगीत रत्नाकर में इसे धोरा—धरा से जुड़ी उसकी अनुभूति कराती धुन माना गया है। विष्णु नारायण भातखण्डे ने इसे राग बिलावल थाट के अंतर्गत माना है।

राजस्थान के बीकानेर, जोधपुर और जैसलमेर में माड के अलग—अलग रूप—शुद्ध, सूब माड, सामेरी और आसा माड में नजर आते हैं। अल्लाह जिलाई बाई, गवरी देवी और मांगी देवी ने अपने तई माड के इन रूपों को जैसे पुननर्ववा किया। लंगा—मांगणियारों ने भी पारम्परिक वाद्य यंत्रों में इसे अपनी कल्पना से कम परवान नहीं चढ़ाया है। राजस्थान ही क्यों भारत के दूसरे प्रदेशों में भी देश, पीलू, तिलक कामोद, सोहनी आदि में शास्त्रीयता में घुले लोक स्वरों में माड गायकी सदा ही खिलती सुनने वालों को लुभाती रही है।  

राजस्थान पत्रिका, 4 नवम्बर, 2023

अल्लाह जिलाई बाई से अरसा पहले बीकानेर में उनके निवास पर लम्बा संवाद हुआ था। तभी उन्होंने गाते हुए समझाया था कि माड दोहों की अलंकृति है। यह सच है। राजस्थानी लोक संगीत में 'केसरिया बालम', 'कुरजां', 'उमराव', 'सुपनो', 'बायरियो', 'जल्लो' आदि गीत जगचावे हुए हैं। सुनेंगे तो उनमें निहित शब्दों में बसी अर्थ छटाएं मन में सदा के लिए बस जाएगी। भारतीय सिने—जगत ने भी माड राग से अपने आपको कम समृद्ध नहीं किया है। माड में घुले लोक—गीतों से निरंतर प्रेरणा ली जाती रही है। याद करें, फिल्म 'रेशमा और शेरा' का गीत 'तू चंदा मैं चांदनी'। सिने—संगीत में घुला यह जैसे लोक—उजास है। संगीतकार जयदेव के संगीत में दोहों की अलंकृति सरीखे बोलों की भांति लिखी बाल कवि बैरागी की पंक्तियां में निहित अर्थ—छटाओं पर जाएंगे तो मन करेगा गीत सुनें और बस सुनते ही रहें। 'तू चंदा मैं चांदनी'  मुखड़े के बाद लगभग सभी अंतरे भाव—भरी अंजूरी है। अनूठी व्यंजना देखें, 'चंद्रकिरण को छोड़ कर जाए कहाँ चकोर...अँगारे भी लगने लगे आज मुझे मधुमास रे।'  


बौद्ध साहित्य के सुभाषितों में चकोर पक्षी के चांदनी पीने का विवरण मिलता है। पूरा संस्कृत साहित्य ऐसी व्यंजनाओं से भरा पड़ा है। नल-दमयन्ती की कथा में दमयंती के स्वयंवर वर्णन में भी तो चकोर के चन्द्रमा की किरणों का सुधारस पीने का वर्णन है। असल में
 लोक में चकोर चन्द्रमा का प्रेमी है। ऐसा प्रेमी जो अंगारे खाता है। अंगारे माने चन्द्र किरणें। लोक का यही तो उजास है जिसमें कीटभक्षी पक्षी के चन्द्रकिरणों को जूगनू आदि चमकने वाले कीट समझकर खाने को कवियों ने अपने तई कल्पना करते भाव—प्रवण रूपान्तरण किया है। मुझे कई बार यह भी लगता है  कविता में घुली कलाएं युग—बोध में सदा—सर्वदा के लिए हममें जीवंत रहती संवेदनाओं को ऐसे ही पंख लगाती है।

मिथकों, धार्मिक विश्वासों और दैनिन्दिनी कार्यकलापो में जीवन से जुड़ी सहज दृष्टि कहीं है तो वह लोक रची व्यंजनाओं में ही है। चंदा—चकोर रूपी भाव—बोध का स्वस्थ मनोरंजन भी तो लोक ने ही रचा है!

Sunday, October 22, 2023

परख से सिरजे मूल्य—बोध से बनता है कलाकृतियां का बाजार

विश्व बाजार में अमृता शेरगिल की कलाकृति "द स्टोरी टेलर" कुछ समय पहले 61.8 करोड़ रुपये में बिकी है। इसके साथ ही दुनिया भर में नीलामी में बिकने वाली किसी भारतीय कलाकार की यह सबसे महंगी पेंटिंग बन गई है। इससे पहले रजा की एक कलाकृति भी 51.75 करोड़ में बिकी थी। भारतीय कलाकृतियों के प्रति बाजार का रूझान इधर तेजी से बढ़ा है। इसका बड़ा कारण है, उनमें निहित सौंदर्य की बढ़ती विश्व—समझ।

भारतीय कलाकृतियों की बड़ी सीमा आरम्भ से ही उनमें निहित विषयों की ठीक से व्याख्या नहीं होना है। कला—बाजार में कलाकृतियां का बाजार उनकी विशिष्ट परख से सिरजे मूल्य—बोध से बनता है। कभी अवनीन्द्रनाथ टैगोर की कलाकृति 'तिष्यरक्षिता' में निहित विषय—संवेदना ब्रिटेन की विक्टोरिया को इतनी भाई थी कि उन्होंने इसे ब्रिटेन मंगवा लिया था।  

राजस्थान पत्रिका, 21 अक्टूबर 2023

भारतीय कलाकृतियों की बड़ी विशेषता है, उनमें निहित अंतर का आलोक। दृश्य में भी बहुत सारा जो अदृश्य चित्रकार अनायास उकेरता है, वही उसका मूल सौंदर्य होता है। हेब्बार के रेखांकन ही लें। उन्होंने नृत्यांगना का चित्र यदि उकेरा है तो नर्तकी का पूरा—चित्र नहीं है। थिरकते पैर, घुंघरू और भंगिमाओं में ही उन्होंने नृत्य की सर्वांग अनुभूति करा दी है। ऐसे ही गायतोण्डे ने रंगो की विरल—छटा में ही कैनवस के मौन को खंड—खंड में अखंड रूप लिए मुखर किया है। भारतीय लघु चित्र शैलियों को ही लें। कृष्ण वहां उकेरे गए हैं तो वह सीधे—सपाट नहीं है, बांकपन में है। त्रिभंगी मुद्रा में बांसुरी बजाते वह लुभाते हैं। नटराज की मूर्ति है तो उसमें निहित लय—ताल और गति का छंद देखने वालों को सुहाता है। माने कलाएं हमारे यहां दिख रहे दृश्य ही नहीं उससे जुड़े बहुत से और संदर्भों की रमणीयता में आकृष्ट करती है। एक पर्युत्सुक भाव वहां सदा बना रहता है। रजा के चित्रों को ही लें। वृत्त, वर्ग और त्रिकोण में उन्होंने भारतीय संस्कृति की सुगंध को जैसे रंग—रेखाओं में रूपांतरित कर दिया है। बिन्दु की उनकी चित्र शृंखला ध्यान से जुड़ी हमारी परम्परा को देखते हर बार पुनर्नवा करती है। यही भारतीय कलाओं की बड़ी विशेषता है कि वहां पर जितना दृश्य होता है उतना ही वह रम्य अव्यक्त भी समाया होता है जिसमें कलाकृति अपने सर्वांग सौंदर्य में हमारे मन को मोहित करती है।

अभी कुछ दिन पहले ही इस समय की महती कलाकार निर्मला सिंह के चित्रों की एक प्रदर्शनी क्यूरेट की थी। उनके चित्र एक नजर में रंगो की छटा—भर लगते हैं पर गौर करेंगे तो पाएंगे वहां एक रंग दूसरे में घुलकर कलाओं के अंत:संबंधों का जैसे संवाहक बना है। घर, आंगन और मन में उठते भावों को उन्होंने रंगमय कैनवस में जैसे रूपांतरित किया है। धुंधलके से उठते उजास का उनका राग—बोध रंगो की रम्यता में ही कथा का पूरा एक संसार सिरजता है। शुक्रनीति में कलाओं के ध्यान से जुड़े विज्ञान पर महती विमर्श है।

भारतीय कलाएं कथा—रूपों में, साहित्य की संवेदनाओं में ही निरंतर बढ़त करती रही है। इसलिए कोई यदि यह कहता है कि साहित्य से जुड़ी समझ कलाओं के लिए घातक है तो इससे बड़ी कोई बोद्धिक दरिद्रता नहीं हो सकती है। कला की अतीत से लेकर वर्तमान तक की यात्रा को सहेजेंगे तो पाएंगे वहां सौंदर्य भाव—रूप में है। विद्यानिवास मिश्र ने कभी कहा भी था कि हमारे यहां साहित्य कलाओं में सम्मिलित नहीं है, बल्कि कलाओ की संयोजिका है। चित्र की कोई भाषा नहीं होती परन्तु उनमें निहित आशयो में जाएंगे तो कथाओं के अनगिनत गवाक्ष खुलते नजर आएंगे। इस दृष्टि से हमारी पारम्परिक और आधुनिक कलाकृतियां ध्यान के ज्ञान में अभी भी सूक्ष्म परख की मांग लिए है।

Monday, October 9, 2023

सूर्यमल्ल मिसण शिखर सम्मान

राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के सर्वोच्च सूर्यमल्ल मिसण शिखर सम्मान की घोषणा 5 अक्टूबर 2023 को की गयी। यह पुरस्कार आपके मित्र की 'दीठ रै पार' कृति को प्रदान किया गया है।

यह आप—मित्रो के सद्भाव, प्यार और लिखे पर विश्वास की ही परिणति है...आपकी बधाई और शुभकामनाएं मेरी प्रेरणा है। बहुत आभार...

राजस्थान पत्रिका, 6 अक्टूबर 2023

राष्ट्रदूत, 7 अक्टूबर 2023

दैनिक भास्कर, 8 अक्टूबर 2023

पंजाब केशरी, 7 अक्टूबर, 2023











कलात्मक अन्वेषण में मानव मन की थाह


इस वर्ष साहित्य का नोबेल पुरस्कार नॉर्वेजियन लेखक जॉन फॉसे को मिला है। अनुवाद के जरिए उनको पढ़ते अनुभूत किया, कलात्मक अन्वेषण में अपने लिखे में उन्होंने उन स्थितियों और घटनाओं का आलोक बुना हैं जिनमें मानव मन की थाह समाई है।  अज्ञेय के शब्द उधार लेकर कहूं तो उनका लिखा "सन्नाटे का छंदहै। जॉन फॉसे का संगीत से भी गहरा लगाव रहा है, इसीलिए उनके उपन्यास ही नहीं नाटकों में भी सांगीतिक कहन लुभाता है। उनके नाटक 'समवन इज गोइंग टू कम','नाइट सॉन्ग्स' उपन्यास 'मॉर्निंग एंड इवनिंग', 'रेड, ब्लैक', 'क्लोज्ड गिटार','वाकफुलनेस' गद्य कृति 'ट्रायलॉजी', कविता संग्रहों, निबंधों में मानव मन की वह दृष्टि है, जो प्रायः कहते भी अनकही रहती हैं। मुझे यह भी लगता है उनका लेखन शब्द के भीतर बसे शब्दों में निहित मौन की मुखरता है।

राजस्थान पत्रिका, 7 अक्टूबर, 2023

जो कुछ दिख रहा है, जो आपकी अनुभूति है या स्मृतियां हैं, उन्हें यदि लिखे में शब्दों में सपाट बरता जाएगा तो कहन की सघनता महसूस होगी। लिखे का स्थायी महत्व और उसकी कलात्मकता इसमें है कि कैसे हम अपने सोचे को पाठक का सच बनाते उसका राग अनुराग बनाएं। उनके लिखे के अंग्रेजी में अनुदितअंश ढूंढढूंढ कर पढ़ते यह भी लग रहा है, वह शब्द बरतते उस चुप्पी को भी अनायास स्वर देते हैं जिसमें कोई अपने होने की तलाश करता है।  उनके लिखे मेंअर्थ एक अचरज, ईश्वर की अंतर्सृष्टि, भरी हुई जगह में मौजूद खालीपन, अणु में व्याप्त परमाणु जैसे वाक्यांश मुहावरे सरीखे हैं। इनमें उनकी वह गहन कला दृष्टि भी जैसे निहित है जिसमें शब्दब्रह्म बनता है। शब्दाद्वैतवाद में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। बतौर लेखक चिंतन करता हूं, यह शायद इसलिए है कि मन की जो तीन गतियां है- स्मृति, कल्पना और चिंतन, इनकी जीवंतता शब्द से ही है। जैन पंथ में जल्प और अंतर्जल्प शब्द है। जल्प माने बोला हुआ व्यक्त। जैन मुनि मुंह बंद होने, होंठ स्थिर होने पर भी मन से इतना प्रभावी होते हैं कि होंठ खोलकर भी वह नहीं कहा जा सकता। यही अंतर्जल्प है। ध्वनि विज्ञान के दो भाग हैं, श्रव्य और अश्रव्य। यही आहत और अनाहत नाद है। अनाहत वह जो अंतर्मन से सुना जाए। पर इसके लिए आत्म का अन्वेषण जरूरी है।

उपनिषद कथा है, ऋषि वाजश्रवस विश्वजीत यज्ञ के बाद बूढ़ी एवं बीमार गायों को दान कर रहे थे। यह देख उनके पुत्र नचिकेता को बहुत ग्लानि हुई। नचिकेता ने अपने पिता से पूछा कि आप मुझे दान में किसे देंगे? क्रोध से भरकर वह बोले, मैं तुम्हें यमराज को दूंगा। शब्द चूंकि यज्ञ के समय कहे गए थे, इसलिए नचिकेता को यमराज के पास जाना पड़ा। यमराज अपने स्थान से बाहर थे। नचिकेता ने तीन दिन और रात उनकी प्रतीक्षा की। यमराज लौटे तो नचिकेता के धीरज और वचनबद्धता से प्रसन्न हो उसे वह तीन वर मांगने को कहते हैं। नचिकेता ने पहला वर पिता द्वारा उन्हें स्वीकार करने और उनका क्रोध शांत होने का मांगा। दूसरा वर स्वर्ग में अनवरत स्वर्ण अग्नि के रहस्य जानने का मांगा। यम ने तथास्तु कहा। तीसरा वर नचिकेता ने ब्रह्म का रहस्य समझाने का मांगा। यमराज ने नचिकेता को सारे सुखवैभव प्रदान करने, पृथ्वी का एकछत्र राज देने आदि का प्रलोभन दिया पर नचिकेता माना। अंतत: यमराज ने यह मानकर की वह कामनाओं से मुक्त हो गया है, उसे ब्रह्म का रहस्य बताया। ब्रह्म माने परमज्ञान।  आत्म खोज प्रक्रिया। अद्वैत कहता हैब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। माने ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या। सच-झूठ से परे आत्म अन्वेषण में ऐषणाओं से मुक्त हो जाते हैं। शब्द को ब्रह्म इसीलिए कहा गया है कि उसके जरिए लेखक अंतर-उजास रचता है। यही कला है।  लिखना बहुत सरल मान लिया गया है, पर विचारें यह शब्दों को ज्यों का त्यों धरना नहीं है। लेखक शब्द शब्द उजास में रमकर अर्थ अनंतता का नाद करता है, तभी शब्द ब्रह्म बनता है। यही कला अन्वेषण है।