पत्रिका, 2 दिसम्बर 2023 |
हमारे सांस्कृतिक प्रतीकों पर जाएंगे तो यह गहरे से अनुभूत होगा कि वहां बाह्य पक्ष ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि विचार—उजास में परम्पराबद्ध ज्ञान की जड़ें वहां पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। मोर पंख को ही लें। बचपन में पढ़ाई करते तो इसे किताब में रखते। शुभ मान सहेजते। कहां से आई यह दृष्टि? कथा आती है कि गीत गोविंद की रचना करने वाले जयदेव तब राधा—माधव लीला रच रहे थे। एक पद में वह अटक गए। सुबह से सांझ होने को आई, कविता पूरी ही नहीं हुई। उहापोह में वह नहाए ही नहीं। पत्नी ने कहा, 'आप नहाकर भोजन करलें। संभव है, नया कुछ पा जाएं।' अनमने जयदेव नदी तट को हो लिए। अभी कुछ ही देर हुई कि द्वार खटखटाया। पत्नी ने कहा, 'आप इतनी जल्दी लौट आए? जयदेव ने कहा, ' हां, याद आ गया। अभी पद पूरा कर देता हूं।'
उन्होंने कविता पूर्ण की। पत्नी ने भोजन कराया और फिर सदा की तरह वह बिस्तर पर लेट गए। कुछ ही देर में किवाड़ फिर से बजा। पत्नी ने द्वार खोला तो हतप्रभ! गीले वस्त्रों में जयदेव थे। वह बोली, आप आए हैं तो फिर वह कौन है जो अंदर सो रहे हैं। जयदेव भागे—भागे कक्ष में पहुंचे। देखा उनका अधूरा छंद पूर्ण हुआ पड़ा था। पास ही मोरपंख रखा था। जयदेव समझ गए, प्रभु माधव खुद आए थे उनका पद पूर्ण करने!
कला-संस्कृति में संस्कारों की ऐसे ही बढ़त होती है। सौंदर्य की सूझ का मूल भी यही है। हम कहते हैं, कृषि- संस्कृति। कहां से आया यह शब्द? युग लग जाते हैं, तब कोई सधा हुआ शब्द—रूप इस तरह से सभ्यता में समाता है।
खेती का जब आविष्कार नहीं हुआ था तब मनुष्य पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर था। जो कुछ धरती पर पक्षी उगलते, उससे उपजे धरती—धन से ही उसका गुजारा होता। पेड़ों पर फल लगते तो वह उनको खाकर अपनी क्षुधा शांत करता। पर तब संकट का समय होता जब अकाल पड़ता या फिर कोई प्राकृतिक प्रकोप से उसका सामना होता। दिन—महिने मनुष्य को भूखे रहना पड़ता। ऐसे ही तब किसी मनुष्य को सूझा होगा कि कैसे धरती में बीज समाता है और अन्न् उपजता है। कैसे पेड़ पर फल लगते हैं। बस फिर क्या था? जंगल के एक हिस्से की सफाई कर मुनष्य ने झुम—खेती प्रारंभ कर दी। उत्पादन हुआ तो प्रकृति पर उसकी निर्भरता खत्म हो गयी। कृषि-संस्कृति के बीज ऐसे ही हममें समाए।
जीवन को अर्थ देने वाली या फिर नए ढंग से देखने की दृष्टि जहां भी हमें मिली है, हमने उसे सहेजा है। पर जहां उस दृष्टि का मूल हमें नहीं मिला, हमने उसे ईश्वर—प्रदत्त कहा है।
वेदों को ईश्वरीय ज्ञान कहा गया है। क्यों? इसलिए कि तब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था। ऋषियों के गूढ़ ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी कंठस्थ सहेजा गया। श्रुति परम्परा से यह आगे बढ़ा पर लिपि के आविष्कार से इन्हें पुस्तकाकार मिला। वैदिक काल में चित्रकला नहीं थी परन्तु रूप—कल्पना थी।
वृहदारण्यक उपनिषद् में अश्वमेघ यज्ञ के स्थान पर इस सारे विश्व को अश्व के रूप में मानकर उसका ध्यान योग द्वारा यज्ञ का निर्देश है। ऊषा अश्व का शिर माना गया है, सूर्य उसके नेत्र बताए गए हैं, वायु उसका प्राण, अग्नि उसका मुख और वर्ष उसकी आत्मा कही गयी है। इसी तरह अन्य उपमाओं से एक विराट् रूप का वर्णन है। यह जो कल्पनाएं हुई हैं, उन्हीं से कालजयी फिर रचा गया है। मूर्तिशिल्प, संगीत में या नृत्य में कोई नई उपज हुई है, नाट्य में कथा को नई दृष्टि से सहेजा गया है तो उसमें अंतर का यह अन्वेषण ही प्रमुख आधार रहा है।
हमारी परम्पराओं में संस्कृति समाहित है। बेहतरीन आलेख
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