ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, May 18, 2024

कला विरासत में भविष्य की दृष्टि

राजस्थान पत्रिका 18 मई 2024

आज अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस है। इस बार यह दिवस "शिक्षा और अनुसंधान के लिए संग्रहालय" विषय पर केन्द्रित रखा गया है। संग्रहालय का मूल ध्येय ही शिक्षा और अनुसंधान है। सीखनेनवीन कुछ पाने की चाह और सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देने में संग्रहालयों की भूमिका अहम हैबशर्तें इनके निहितार्थ में हम जाएं। पर हमारे यहां संग्रहालयों के महत्व पर खास कुछ काम हुआ नहीं है। इसलिए वे जड़ता में आबद्ध है। भूले—भटके या फिर किसी की विशेष रूचि हैतभी वह वहां पहुंचता है। कारण शायद यह भी है कि हमने कलाओं की अन्तर्दृष्टि में उन्हें संवारा नहीं। क्या ही अच्छा होतासंग्रहालय कला—संवाद के हेतु बनते। वहां संग्रहित पुरा महत्व की वस्तुएं इतिहास और हमारी संस्कृति का आलोक बनती।

अपनी ही बात कहूं तो,जब कभी किसी संग्रहालय पहुंचा हूंअनुभव हुआ है जैसे किसी टाइम मशीन में पहुंच गया हूं। अतीत में  झांकने की दृष्टि वहां पाई है तो बीते समय के पदचिन्हों में भविष्य की आहटें भी निरंतर सुनी है। याद हैभारतीय लेखक प्रतिनिधिमंडल के सदस्य रूप में फ्रांस जाना हुआ तो संसार के सबसे बड़े संग्रहालयों में से एक लूव्र संग्रहालय भी जाना हुआ। वहां तो खैर विश्व भर के दर्शकों की भीड़ सदा रहती ही है परन्तु पेरिस के दूसरे संग्रहालयों के बाहर भी बच्चों की इंतजार करती लंबी कतारें देख उनका महत्व स्पष्ट समझ आता है। संग्रहालय पुरा—वस्तुओं का भंडार भर नहीं हैवहां दृष्टि व्यापक होती है।   मुझे लगता है शिक्षण का बड़ा आधार भी संग्रहालय बन सकते हैंबशर्ते वहां फैली उदासीनता को दूर किया जाए। वहां पसरे सन्नाटे में संवाद संभव किया जाए।  संग्रहालयों में सौंदर्य के बीज बिखरे पड़े हैंइन्हें यदि विद्यार्थी मस्तिष्क में बोया जाए तो देखने कासमझने का और परिवेश से बहुत कुछ सीखने का संस्कार हम विकसित कर सकते हैं। संग्रहालय क्या हैअतीत का वातायन ही तो! ऐसाजहां से हमारी विरासत में झांककर हम भविष्य की अपनी दृष्टि में बढ़त कर सकते हैं।

केन्द्रीय ललित कला अकादेमी के आमंत्रण पर अरसा पहले व्याख्यान के लिए बनारस जाना हुआ था। तभी काशी विश्वविद्यालय प्रांगण में स्थित भारत कला भवन भी गया। राय कृष्णदास ने अपना सम्पूर्ण जीवन इसके संग्रह हेतु समर्पित कर दिया था। एक स्थान पर उन्होंने कहा हैमैने अपनी जिंदगी में कभी कोई झूठ बोला हैतो बस इस संग्रहालय में वस्तुएं एकत्र करने के लिए। आरंभ में इसका नाम 'भारतीय कला परिषद्था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर इसके प्रथम सभापति थे। इसका जब उद्घाटन हुआ तो महात्मा गांधी ने विजिटर बुक में लिखा, 'भारतीय संस्कृति के अध्ययन की दृष्टि से यह अनुपम है।उन्होंने बाकायदा ‘यंग इंडिया’ में इसके लिए कलापूर्ण या ऐतिहासिक वस्तुएँ देकर आम जन से सहायता की विज्ञप्ति भी प्रकाशित की।

शिक्षाविद देवी प्रसाद की एक महती पुस्तक है, 'शिक्षा का वाहन कला।इसमें उन्होंने अपने अनुभवगत ज्ञान के आलोक में लिखा है कि कला जीवन को समृद्ध बनाती है। नंदलाल बोस ने कला—शिक्षा की दृष्टि से इस पुस्तक को बहुत महती माना था। शिक्षा के जिस वाहन रूप में कलाओं की बात पुस्तक में हैमुझे लगता है—उस वाहन के पहिए संग्रहालय हैं। संग्रहालय देखने का संस्कार प्रदान करते हैंवह दृष्टि देते हैं जिससे हम अतीतवर्तमान और भविष्य को गुन—बुन सकते हैं। क्या ही अच्छा होसंग्रहालयों में बच्चों—बड़ों को चीजें देखने के बाद उनके अन्तर आलोक से साक्षात् कराता कोई रोचक व्याख्यान भी सुनने को मिले।  हमारी सांस्कृतिक विरासत और इतिहास से जुड़ने के लिए यह संवाद संग्रहालयों को जीवंत करेगा। यही इस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।


Friday, May 10, 2024

पुस्तक संस्कृति' में 'कलाओं की अंतर्दृष्टि'


'...कलाओं की अंतर्दृष्टि' एक मौलिक रचना है, जिसे शब्दों की परिधि में समीक्षा के रूप में बांधा जाना संभव नहीं है। यह पुस्तक साहित्य, कला, संस्कृति आदि में रूचि रखने वाले पाठकों, शिक्षकों और शोधार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। पुस्तक की भाषा इतनी सहज और सरल है कि पाठक की तारतम्यता आरंभ से अंत तक बनी रहती है।"


Saturday, May 4, 2024

शिक्षा में मिले सीखने, देखने और परखने का मंत्र


राजस्थान पत्रिका, 4 मई 2024

अरसा पहले कला मर्मज्ञ मुकुंद लाठ जी के घर पर पंडित जसराज जी से संवाद हुआ था। याद है, उन्होंने तब सिखिया, दिखिया और परखिया शब्दों का प्रयोग किया था। यह संयोग ही है कि दूरदर्शन के कार्यक्रम 'संवाद' में प्रेरणा श्रीमाली ने भी इस बार सीखने, देखने और परखने के शब्दों में कथक सीखने का मंत्र दिया। मुझे लगता है, कला—शिक्षा का मूल—मर्म यही है। हमारे यहां पाठ्यक्रमों मे कलाओं की सैद्धान्तिकी का समावेश तो होता रहा है परन्तु उसकी व्यावहारिकी प्राय: वहां गौण है। यह वह विकट दौर भी है जब रोज़ ही लगभग यह समाचार मिलते हैं कि फलां प्रतियोगी परीक्षा की तैयार करते छात्र—छात्रा ने आत्महत्या कर ली।  दिशा—भ्रमित होकर ऐसे कदम उठाए जाते हैं परन्तु कलाएं इस भ्रम का निवारण कर सकती है बशर्ते उनके लिए शिक्षण संस्थाओं में स्थान बनें। 

कलाएं सृजन की सारी संभावनाओं के द्वार खोल उमंगउत्साह से लबरेज करती है। स्वतंत्रता से कुछ सोचने की दृष्टि देती है। यह विडंबना ही है कि संगीतनृत्यनाट्य चित्रमूर्तिवास्तु आदि के प्रदर्शन के जतन तो हमारे यहां बहुत है परन्तु उनके प्रति रसिकता जगाने की दृष्टि लोप प्राय: है। कहा गया हैरंजयति इति राग:। माने जो मन को रंग देवह राग है। कलाओं के इस राग से ही जीवन के प्रति अनुराग जगता है। शिक्षा की बड़ी जरूरत इस समय यही है।

महात्मा गांधी ने कभी कहा था कि जनता से जुड़ने का जो काम राजनीति में रहकर वह कर रहे हैंनंदलाल बोस वह कार्य अपनी कला में कर रहे हैं। चरखे के संगीत को सुनते स्वदेशी के प्रसार, आश्रम में प्रार्थना करवाने से जुड़े उनके कार्य जन— मन को जोड़ने की दृष्टि ही है। कलिंग युद्ध के बाद लाखों की संख्या में हुए नरसंहार को देख अशोक का जब हृदय परिवर्तित हो जाता है तो धर्म में जय की अपनी दृष्टि के प्रसार के लिए वह कलाओं का सहारा लेता है। कौशाम्बीवैशालीलाठ—लौरसारनाथ और अन्य धर्म—स्तूपो पर मूर्ति—अलंकरणाों में खुदी धर्मलिपि से ही धर्म की उसकी शिक्षाओं का प्रसार हुआ। गिजूभाई बच्चों को सृजन से जोड़ने पर ही जोर देते थे। उन्होंने तो लिखा है, 'कुछ हत्याएं पीनल कोड की धारा के अधीन नहीं आती।...जीवन के प्रति होने वाला अपराध बालक की सृजन शक्ति की हत्या है।'  मुझे लगता हैशिक्षा में सृजन संभावनाओं से होने वाली दूरी ही आज के दौर की सबसे बड़ी समस्या है। बढ़ती आत्महत्याओं का कारण भी यही है।

कलाओं की शिक्षा पाठ्यक्रमों से नहीं मिल सकती। कलाओं के लिए तो परिवेश से सीखनेदेखने और परखने की दृष्टि महत्वपूर्ण है। कहने को देशभर में संग्रहालय में प्राचीन धरोहर से जुड़ी महती वस्तुएं संजोई हुई है परन्तु वह उदासीनता पसराते अपने यहां आने को उकसाते नहीं है। अजन्ताएलोराकोर्णाकखजुराहो के शिल्प अद्भुत हैं परन्तु वहां पर्यटन प्रमुख है। असल में कलाओं को देखने—समझने और उसके अंतर आलोक में जाने के लिए कहीं कोई पहल नहीं है। जरूरी यह है कि हम विद्यार्थियों को देखनेसुनने और गुनने के लिए प्रेरित करें। कुछ समय पहले आईटीएम विश्वविद्यालयग्वालियर में व्याख्यान देने जाना हुआ। एक सुबह परिसर में वहां घुमते पाषाण की विशाल मूर्तियों का अनूठा संसार अनुभव किया। भांत—भांत के पेड़जिनके बारे में किताबों में पढ़ा भर थावहां उन पर फूल खिलखिलाते देखे। जहन में औचक कौंधा, शिक्षा के परिसर ऐसे ही प्रकृति और जीवन से जुड़ी सुगंध भरे हो। कोई बताने वाला नहीं होअपने आप परिवेश सीखनेदेखने और परखने की दृष्टि दे। हां संकेत जरूरी है। काश! मुझ अकिंचन को यही काम दे दिया जाए कि वह कलाकृतियों और परिवेश का वृतांत सुनाता विद्यार्थियों से बतियाता रहे। उपदेश की बोझिलता भरी कक्षा में नहींऐसे ही घुमते—घामते उन्हें सुनेंअपनी सुनाए। ऐसा अवकाश भी जरूरी है। तकनीकी शिक्षाचिकित्सा शिक्षा और प्रबंधन और दूसरी तमाम शिक्षाओं में कलाओं और प्रकृति से सीखनेदेखने और परखने की दिशा में पहल हो तभी कला—शिक्षा व्यवहार में बच्चों को सृजन सरोकारो से जोड़ उन्हें भविष्य की उंची उड़ान के लिए प्रेरित कर सकती है। शिक्षा की सार्थकता भी इसी में है।