ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Wednesday, April 24, 2024

प्रकृति और जीवन से जुड़ी सुगंध का शिक्षा—स्थल-आईटीएम

बहुत से स्थानों पर व्याख्यान के लिए निमंत्रण मिलता है। निमंत्रण स्वीकार करने का एक लालच तो यही रहता है कि इस बहाने उन स्थानों की घुमक्कड़ी भी हो जाएगी। पर इस बार जिस आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर में व्याख्यान देने जाना हुआ, वह स्थान ही इतना मनोरम लगा कि अपने आप में जैसे एक यात्रा हो गयी। पाषाण की विशाल मूर्तियों का अनूठा भव, परंपरा बोध में गूंथा आधुनिक शिल्प। यत्र, तत्र, सर्वत्र सौंदर्य। जीवन से जुड़े गहरे अर्थ, मर्म उद्घाटित करता सृजन। कलाओं के जरिए सांस्कृतिक होने के लिए उकसाता।

ग्वालियर पहले भी जाना हुआ है। यहां के सुंदर दुर्ग, तानसेन और उनके गुरु मुहम्मद गौस की समाधि, सूर्य मंदिर आदि पर लिखा भी है। पर आईटीएम यूनिवर्सिटी परिसर में विचरना भी कलाओं के अनूठे जग से रूबरू होना है। यहां देश विदेश के मूर्तिकारों के सिरजे शिल्प में संस्कृति से जुड़ी हमारी परंपराओं की पहचान होती है। अतीत को देखने के लिए जिस वर्तमान की आंख चाहिए, वह यह मूर्तियां देती हैं। और सबसे सुंदर पक्ष यह कि मूर्तियों को जहां ठौड़ मिली है, वह सर्वथा उनके अनुकूल है। लैंड स्केपिंग, स्थानों का अवकाश, पेड़ पौधे और आस पास का परिवेश जैसे इन मूर्तियों के लिए ही रचा गया है या कि मूर्तियां ने इन स्थानों के हिसाब से अपना अपना स्थान ग्रहण किया है।

विशाल आधुनिक मूर्तियों के साथ प्रायः उनके रखे जाने के स्थानों में इस कदर लापरवाही देखता रहा हूं कि या तो वे भदेस प्रतीत होती हैं, या वह स्थान इतना सिकुड़ा, सिमटा और बेमेल होता है कि मूर्ति उस स्थान को और भद्दा करती लगती है। आईटीएम में ऐसा नहीं है। ऐसा लगता है, हरेक मूर्ति के लिए स्थान तय कर उसे वहां सहेजा गया है। और हां, वृक्ष भी इतने घने, भांत भांत के कि आप उनको देख कालिदास के लिखे संदर्भों, हजारी प्रसाद दिवेदी के निबंध को जीते हुए भगवान बुद्ध से जु​ड़े दर्शन को याद कर सकते हैं। अशोक वृक्ष को सदा हरी पत्तियों में आकाश की ओर खड़ा देखा है। पर यहां जो अशोक देखा वह पुष्प खिला, सौंदर्य बिखेरता पाया। पता चला, असली अशोक यही है। संस्कृत साहित्य में कोमल कहे जाने वाले शिरीष के फूल भी यहां देखें। कालिदास ने लिखा है कि शिरीष के फूल केवल भौंरों के पैरों का दबाव सहन कर सकते हैं, पक्षियों के पैरों का नहीं...बहुत सारा और भी लिखा, पढ़ा निरंतर यहां घूमते जहन में कौंधता रहा। विश्वविद्यालय नहीं, प्रकृति और जीवन से जुड़ी सुगंध का शिक्षा—स्थल ही लगा, आईटीएम। प्रकृति प्रदत्त सौंदर्य में पाषाण शिल्प भी कैसे जीवंत हो उठते हैं, कैसे उनमें भी जीवन की गंध परिवेश को सकारात्मक कर सकती है, कैसे कलाओं के जरिए हम अपने आपको पा सकते हैं—ऐसे ही बहुत से विचारों में तैरता—उतरता रहा मन । जल्द लिखूंगा, देखे—सुहाए—अनुभूत किए क्षणों की उन स्मृतियों को जो डायरी में अंवेरी है...मन की यात्रा जारी आहे!
सभी छायाचित्र C@Rajesh


















Monday, April 22, 2024

लोकतंत्र के पर्व में सांस्कृतिक होने की ओर अग्रसर हों

 संस्कृति के लोकतंत्रीकरण की ओर हम प्रेरित हों। शासन में संस्कृति के प्रति आस्था बढे।

... सांस्कृतिक संस्थाएं, संस्कृति के सरोकारों की उपस्थिति से ही असमानताएं पूरी तरह से मिट सकती है।

पत्रिका, 20 अप्रैल, 2024


Sunday, March 31, 2024

'कलाओं की अंतर्दृष्टि' पर '​दैनिक ट्रिब्यून' में...

"...भारतीय दृष्टि इस पुस्तक का वह प्राणतत्व है जो इसे जिज्ञासुओं के लिए अनिवार्यत: पठनीय बना देता है।

 ...मूल्यवान और गंभीर कृति।...

कुल 23 अत्यन्त चिंतनपरक निबंधों में लेखक ने भारतीय कलाओं के विभिन्न पहलुओं पर प्रामाणिक दृष्टि से विचार किया है।..."

--योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण', वरिष्ठ आलोचक 




हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, राजस्थान के स्थापना दिवस पर मुख्य व्याख्यान

हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, राजस्थान के स्थापना दिवस पर 'पत्रकारिता, पत्रकारिता शिक्षा और मानवीय मूल्य' पर मुख्य व्याख्यान के लिए आमंत्रित था। सुखद था, विद्यार्थियों ने इस विषय में सुनने में रुचि ली... 

पत्रकारिता, पत्रकारिता शिक्षा और मानवीय मूल्य- पर मुख्य व्याख्यान


विश्वविद्यालय कुलपति प्रो. सुधि राजीव, कुलसचिव श्री गौरव बजाड़ संग


"नवनीत" में "कलाओं की अंतर्दृष्टि"

नवनीत, फरवरी 2024 
 "नवनीत" पत्रिका के फरवरी 2024 अंक में

"कलाओं की अंतर्दृष्टि" पुस्तक पर ...


"...ब्रिटिश काल के बाद कलाओं में पश्चिम के सिद्धान्तों, अवधारणाओं में ही कलाएं समझी और परखी जाती रही है।


यह पुस्तक इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इसमें कलाओं की भारतीय अंतर्दृष्टि पर मौलिक चिंतन और मनन है।

भारतीय मूर्तिकला, शिल्प, चित्रकला, संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तु कलाओं के सूक्ष्म तत्वों में ले जाते हुए लेखक इनमें निहित आंतरिक उजास से पाठकों को जोड़ता है।

यह पुस्तक भरतमुनि के नाट्यशास्त्र, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, शुक्रनीति आदि के महत्वपूर्ण संदर्भ लिए है।

कलाओं में सौंदर्य बोध, कलाओं में श्लील-अश्लील, मूर्त-अमूर्त, योग के राग बोध, लोक और शास्त्रीय कलाओं के भेद के साथ ही इसमें कलाओं के अन्तः संबंधों और कला-संस्कृति की विचार विरासत पर लेखक की अपनी मौलिक स्थापनाएं हैं।"



Wednesday, March 13, 2024

दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रम 'संवाद' में

 दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रम 'संवाद' में इस बार

प्रख्यात ध्रुवपद गायिका डॉ. मधु भट्ट तैलंग से 

यह साक्षात्कार प्रसारित होगा 15 मार्च 2024 को



जीवन में क्यों है जरूरत कला—संस्कृति की


'राजस्थान पत्रिका' में इस बार...

कला और संस्कृति दो शब्द हैं पर दोनों में महीन भेद है। 

संस्कृति जीवन जीने का ढंग, हमारा स्वभाव है और कलाएं उसकी अभिव्यक्ति...



Saturday, March 2, 2024

आदिवर्त में समाया लोक—आलोक

 

कलाएं ईश्वर—रची सृष्टि में सब—कुछ रच सकने की क्षमता की छाया है। काल—बोध का रूपायन है। काल और कलाओं में यही महीन भेद है कि काल जीवन के सभी सूत्रों से हमें तोड़ देता हैं और कलाएं टूटे जीवन—सूत्रों को सहेजकर स्मृति की लूंठी—लय में सृजन की अनंत संभावनाओं से साक्षात् कराती है। काल को स्वीकार करके ही तो उसका अतिक्रमण किया जा सकता है।  कुछ दिन पहले 50 वें खजुराहो नृत्य समारोह में व्याख्यान देने जाना हुआ तो वहीं बने सांस्कृतिक गांव—आदिवर्त भी जाने का संयोग हुआ। लगा काल और कला-बोध का भी अनायास बहुत कुछ महत्वपूर्ण संजो लिया है।  

आदिवर्त में प्रवेश करते ही काष्ठ शिल्प में शिव—शक्ति की विरल प्रतिमा से साक्षात हुआ। एक ओर जटाधारी शिव दूसरी ओर उसी प्रतिमा का शक्ति रूप। पता चला, शैव और शाक्त परम्परा के अंतर्गत मध्यप्रदेश की लगभग सभी जनजातियों में शिव और शक्ति कहीं बड़ा देव, लिंगो देव, ठाकुर देव और बाबदेव आदि हैं तो देवी को बूढ़ी दाई, बूढ़ी माई, खैर महारानी ओर बड़की दाई आदि के रूप में पूजा जाता है। धरती किससे है? शिव और शक्ति से ही तो! सांस्कृतिक गांव आदिवर्त में शिव—शक्ति से सभी जीव—जंतुओं के पैदा होने और फिर उन्हीं में समाहित होने की लोक मान्यता का विरल रूपायन है।  यहीं पास ही 'सरग नसैनी' का भी कला—रूप है। स्वर्ग तक ले जानी वाली यह सीढ़ी तलवार की धार लिए है। स्वर्ग तक पहुंचने का मार्ग आसान कहां है! महाभारत के अंतिम पर्व, स्वर्गारोहण में पांडवों द्वारा धरती छोड़ स्वर्ग की यात्रा पर निकलने की कथा है। इसमें सबको छोड़ श्वान ही स्वर्ग तक पहुंचने का संदर्भ है। गोण्ड आदिवासियों में प्रचलित महाभारत के द्रोपदी स्वयंवर प्रसंग में अर्जुन ने अगरिया द्वारा बनाई गई सरग नसैनी पर चढ़कर ऊपर बैठी किलकिला चिड़िया और नीचे तैरती राधोमनसा मछली को एक ही तीर से भेद कर जीता था।

ऐसे ही लोक मान्यताओं के कला—रूपों से साक्षात् कराते सांस्कृतिक गांव आदिवर्त में कोरकू समुदाय में मृतक की स्मृति में मण्डो बनाने के रिवाज को भी जींवत किया गया है। सागौन की लकड़ी पर मृतक से जुड़े हुए चित्र और चांद—सूरज, पत्ते, फूल, पशु—पक्षी आदि की आकृतियां यहां है।  कौल जनजाति में कलात्मक सौंदर्य लिए मृतक स्मृति में बनने वाले स्तंभ भी यहां है तो दीये की लौ में प्रत्येक क्षण सूर्य में समाहित होने वाले जीवन के भी सुंदर रूपाकार आदिवासी कलाकारों ने यहां सिरजे हैं। यहां पर 'सृष्टि—कला', 'बाबदेव' सहित जनजातीय कलाओं के बहुविध रूपों में जनजातीय कलाओं की आधुनिक संस्थापन दृष्टि देखकर भी अचरज हुआ। लगा, लोक में शास्त्रीयता के बीज आधुनिक दृष्टि में इसी तरह समाए हैं। नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से उसके सागर में मिलने की यात्रा भी यहां है। यह नर्मदा के पवित्र तटों पर रहने वाले लोगों, वहां मनाए जाने वाले पर्व—त्योहांरो,  उत्सव—यज्ञ और अनुष्ठानों की स्वयमेव दृष्टि—यात्रा ही तो है।

लोक और जनजातीय कलाएं हूबहू में व्यंजित नहीं हैं। वहां अलंकारों और प्रतीक—बिम्बों का आलोक हर ओर है। वैसे भी कला का अर्थ ज्यों का त्यों निरूपण नहीं होता है। कलाएं स्मृति में रचे—बसे जीवन के सार को हमारे समक्ष उद्घाटित करती है। जनजातीय जीवन कलाओं से किसी भी स्तर पर अछूता नहीं है। इसीलिए सांस्कृतिक गावं आदिवर्त में गोंड, बैगा, भील, भारिया, कोरकू, कोल एवं सहरिया जनजातियों के जो घर वहीं रहने वाले कलाकारों ने बनाए हैं, वह जीवनोपयोगी वस्तुओं के साथ काल से जुड़े उनके कला—बोध को भी दर्शाते हैं। आदिवर्त संग्रहालय भर नहीं है, यह कलाओं के जरिए काल—बोध का रूपांकन है। क्या ही अच्छा हो,  लोक और हमारी जनजातीय संस्कृति को सहेजने में संग्रहालयों को इसी रूप में जीवंत करने का प्रयास देशभर में हो। इसी से हम जनजातीय और लोक कलाओं में समाए जीवन के जरिए कलाओं की सौंदर्य दृष्टि से जुड़ सकेंगें।

Sunday, February 18, 2024

अरब यार तोरी बसंत मनाई

बसंत ऋतुराज है। सारी ऋतुओं में श्रेष्ठ। इसलिए कि इसमें हर किसी का मनमयूर गाते हुए नाच उठता है। बहुतेरी बार लगता है, बसंत संगीत ऋतु है। संगीत क्या है? गीत, वाद्य और नृत्य का समुच्चय ही तो! शास्त्र कहता है, चैतवैशाख बसंत ऋतु, जेठअसाढ़ ग्रीष्म। शास्त्र और लोक में यही फर्क है। लोक शास्त्र से अधिक व्यावहारिक है। असल में बसंत फाल्गुन और चैत्र में ही होता है। माने फरवरी और मार्च की अवधि को ही हम बसंत कहेंगे। यह समय बसंत का है। धरती पर जब सब ओर फूल खिलने लगे, रंग छाने लगे तो समझ लीजिए बसंत ने दस्तक दे दी है। उत्तरायण होता सूर्य सर्दी से ठिठुरते जीवन को इस समय ही तो जगाता है। पेड़पौधे, जीवजंतु, मनुष्य सभी आलस्य त्याग जाग उठते हैं। 

मन
भी तो उत्साहउमंग से भर उठता हैं। यह पतझड़ के विदा होने का समय है। नए पत्ते उगने, फूलों के खिलने की ऋतु! वानस्पतिक प्राण चेतना संग तुष्टि और तृप्तिसुख का बोध पर्व है बसंत। कोयल कूकती है तो वनउपवन भी गा उठता है। हरी घास और हरी हो उठती है। चांद अपने यौवन में चांदनी का जो रस बरसाता है, वह भी तो इन दिनों अद्भुत अपूर्व होता है। विश्वास नहीं हो तो रात्रि को चांद निहारें। पर इमारतों के घटाटोप में यह सुख नहीं मिलेगा। प्रकृति मध्य जाएं, जहां कंक्रीट का जंगल नहीं खुला मैदान हो। चांद वहां आपको इस मधुमास में अपने आपको निहारने को ललचाएगा। अनुभव करेंगे तो लगेगा, चांदनी जैसे छिटक छिटक दुग्ध पान करा रही है।

बसंत कामदेव का पुत्र है। पौराणिक कथाओं में आता है, शिव की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव ने बसंत को उत्पन्न किया। कामदेव के घर पुत्र जन्मा तो प्रकृति झूम उठी। पेड़ों ने नव पल्लव का पालना डाला।  सरसों के खेत में पीले फूल खिल उठे। शीतल मंद पवन बहने लगी। इस मनभावन ऋतु में ​​मादक चाल से चलने वाले अपने वाहन हाथी पर सवार हो कामदेव ने शिव पर बाण छोड़ा तो योगी शिव का भी ध्यान भंग हो गया। आगे की कहानी कामदेव के भस्म होने की है। पर वह बसंत से नहीं जुड़ी हैइसलिए यहां इतना ही। पर सोचिए! बसंत होता तो महादेव का ध्यान भंग कैसे होता। कैसे फिर मां पार्वती संग शिव का विवाह होता। इसलिए बसंत मुझ अकिंचन का प्रिय पर्व है।

भारतीय संगीत में एक विशेष राग पूरा का पूरा वसंत के नाम पर ही है। रागमाला में प्रसन्नता और उमंग से भरा यह राग हिंडोल का पुत्र माना गया है। सुनेंगे तो लगेगा प्रकृति के वासंती रंग से मन सराबोर हो रहा है। कोटा शैली में निर्मित रागमाला का एक बहुत सुंदर हरे, नीले और चांद की अनूठी चांदनी का उजास लिए चित्र है"वसंत रागिनी" भगवान श्री कृष्ण इसमें गोपियों के साथ नाचतेगाते वसंतोत्सव मना रहे हैं। देखेंगे तो मन करेगा, बस देखते ही रहें। मन को उल्लसित करती, लोक का आलोक लिए बसंत ऋतु ऐसी ही है। हर कोई, इसमें बह गा उठता है। अमीर खुसरो ने इसी बसंत ऋतु में कभी सरसों के फूल अपने उपास्य हजरत औलिया के चरणों पर चढ़ाते हुए गाया था, 'अरब यार तोरी बसंत मनाई, सदा रखिए लाल गुलाल, हज़रतख्वाजा संग खेलिए धमाल।'

प्रकृति के रम्यरंगो संग घुलने की ऋतु ही तो है बसंत। ऋग्वेद में आता है, विष्णु के परम पद से मधु उत्पन्न होता है। बसंत को इसलिए मधुमास कहा गया है कि सृष्टि पालक विष्णु के रूप में यह सृष्टि के चरअचर के पत्तल में मधु परोसता हैं। भगवत गीता में श्रीकृष्ण इसीलिए उद्घोष करते हैं, 'ऋतुओं में कुसुमाकर मैं बसंत हूं।' आइए, हम भी इस ऋतु में पुराना सबभुलाकर पुनर्नवा हों। पुराने पत्ते झड़ेंगे तभी ना नया कुछ उगेगा!