ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, September 23, 2023

सरोजा वैद्यनाथन-नृत्य के एक युग का अवसान

राजस्थान पत्रिका, 23 सितम्बर, 2023

सरोजा वैद्यनाथन का बिछोह नृत्य के एक युग का अवसान है। भरतनाट्यम में कथा—अभिप्रायों के जरिए सम—सामयिक संदर्भों का उन्होंने विरल संसार रचा था।

भरत मुनि के नाट्य शास्त्र से प्रसूत इस नृत्य को बीसवी सदी के आरम्भ में ई. कृष्ण अय्यर और रुक्मणी अरुंडेल ने आधुनिकी दी पर इस नृत्य में गुरु—शिष्य परम्परा के तहत इसकी सैद्धान्तिकी पर किसी ने महती कार्य किया तो वह सरोजा वैद्यनाथन थी। सत्तर के दशक में दिल्ली में गणेश नाट्यालय की स्थापना कर उन्होंने विश्वभर में भरतनाट्यम को लोकप्रिय किया। अस्सी की वय के बाद भी नृत्य में वह निरंतर संक्रिय रही। 

सरोजा जी के नृत्य की विशेषता है, भाव—कहन। वह आंगिक क्रियाओं में कथा—रूपों का अनूठा संयोजन करती थी। नृत्य क्या है? शरीर की गतियों की  सूक्ष्म अंग—प्रत्यंग व्याक्रिया माने विश्लेषण ही तो! सरोजा को नृत्य करते जब भी देखा, अपूर्व ऊर्जा का संचार उनमें पाया। वह कहती भी थी, जब तक थक नहीं जाती थी नृत्य का रियाज करती थी। नृत्य करते शारीरिक गतियों, मुद्राओं, अंगहारों का वह लालित्य रचती थी। आदि—शंकराचार्य और मंडन मिश्र के मध्य हुए शास्त्रार्थ, बुद्ध कथाओं में यशोधरा और सुब्रहम्ण्यम भारती की कविताओं पर नृत्य का सौंदर्य संसार उन्होने सिरजा। पुराण कथानकों के साथ ही नारी सशक्तिरण और नृत्य के जरिए सामाजिक संदेश प्रदान करते हुए इस कला को जन—जन से जोड़ने का भी कार्य सरोजा जी ने किया। वह संगीत में भी पारंगत थी। कृष्ण लीलाओं को नृत्य में जीवंत करते वह जब 'कहीं देखो रे घनश्यामा...'गाती तो कृष्णमय हो जाती।

नृत्य माने गति में जीवंतता। यामिनी कृष्णमूर्ति तो कहती भी रही है, नृत्य और नदी में समानता होती है। दोनों ही गति में जीवंत होते हैं। कहूं, सरोजना वैद्यनाथन इस दृष्टि से नर्तकी नहीं नृत्य—शिल्पी थी। उनका नृत्य शरीर के अंग—प्रत्यंगों का गति—अनुष्ठान ही तो है! वह चैन्नई में जन्मी। प्रख्यात नृत्यांगना ललितमा से उन्होंनें नृत्य सीखा। देश—विदेश में नृत्य प्रस्तुतियों के साथ ही नृत्य की भारतीय परम्परा पर—द क्लासिकल डांस ऑफ इंडिया, भरतनाट्यम अ डेप्थ स्टडी, कर्नाटक संगीतम और द साइंस ऑफ भरतनाट्यम जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी।

भरतनाट्यम माने भाव,राग और ताल। समभंग, अभंग, त्रिभंग में यह अभिनय और नृत्य का मधुर संगम है। 

इस नृत्य का पहला सूत्र तमिल महाकाव्य 'शिलप्पादिकारम' में मिलता है। शिलप्पादिकारम का अर्थ होता है—नूपुर की कहानी। महाकाव्य का नायक कोवलन एक रोज़ विख्यात नर्तकी माधवी का नृत्य देखने जाता है और उसके नृत्य सौंदर्य पर मुग्ध हो जाता है। पत्नी कण्णगी को छोड़कर वह नृत्यांगना माधवी पर अपनी सारी दौलत लुटा देता है। पर फिर एक दिन पश्चाताप करता पत्नी के पास लौट आता है। पत्नी कण्णगी उसे मदुरैई में व्यापार करने के लिए अपने रत्नजड़ित पैर की पायल देती है। ऐसी ही पायल मदुरैई की रानी के पास भी होती है। कोवलन जौहरी के पास जाता है तो उसे शक होता है। उसे लगता है यह रानी की चुराई पायल है। राजा के पास इसकी शिकायत होती है। रानी की पायल चुराने के आरोप में कोवलन को फांसी दे दी जाती है। पत्नी कण्णगी को इससे बहुत क्रोध आता है और वह मदुरई नगर को शाप से भस्म कर देती है। कहते हैं इस पर भी कण्णगी शांत नहीं हुई तो स्वयं देवी मीनाक्षी यानी मां पार्वती प्रकट हुई और उन्होंने उसे शांत किया।

 तमिलनाडु में आज भी देवी रूप में "कण्णगी-अम्मा" की पूजा होती है। शिलप्पादिकारम महाकाव्य में नृत्यांगना माधवी जिस नृत्य से नायक को मोहती है उसके बीज भरतनाट्यम में मिलते हैं। सरोजा वैद्यनाथन ने नृत्य की इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए महाकाव्यों की परम्परा के साथ सामाजिक जागरूकता के लिए इस नृत्य का मनोहारी रचा।


Saturday, September 9, 2023

रस—सिद्ध गान का बिछोह

राजस्थान पत्रिका, 9 सितम्बर 2023

भारतीय संगीत सुर प्रधान है। शब्द वहां नहीं भी हो तो खास कोई फर्क नहीं पड़ता। शब्द संकेत है, मूल आलापचारी है। स्वरसाधना! मल्लिकार्जुन मंसूर, कुमार गंधर्व, पंडित भीमसेन जोशी, किशोरी अमोणकर, पंडित जसराज आदि को सुनेंगे तो लगेगा राग के अनुशासन में रहते हुए भी उन्होंने सुरों की मौलिक सृष्टि की है। शास्त्रीय संगीत के इन मूर्धन्यों की परम्परा में ही बढ़त करने वाली विदुषी गायिका थी, मालिनी राजुरकर।

इसी बुधवार को हैदराबाद में 82 वर्ष की उम्र में उनसे हमारा बिछोह हो गया। पर हम उस मूल्यमूढ समय में जी रहे हैं जहां ख्यातविख्यात कलाकारों के अलावा जो बहुत महती करते रहे हैं,उन्हें याद नहीं करते। उनकी गायकी की आंतरिक दृष्टि और गहराई को बिसराते हैं।

मालिनी राजुरकर विरल थी। मूलत: ग्वालियर घराने से उनका नाता था पर उन्होंने अपनी गानशैली विकसित की। यह ऐसी थी जिसमें शास्त्रीय संगीत के विभिन्न घरानों का मेल था।  सुरों की उनकी बुलंदी, चंचलता और लयकारी ऐसी  है कि जिस किसी भी राग में उन्होंने गाया,  खिलता हुआ वह लुभाता है। 

कभी उनकी गायी राग भैरवी में 'फूल गेंदवा अब मारो' बंदिश सुनी थी। इस कदर सुरीला लगा कि फिर तो ढूंढढूंढ कर उनके गान की समग्रता को जिया। दिल को छूने वाली उनकी गायकी में राग बिहाग ही सुनें। 'चलो हटो जाओ छांडो मोरी बंईया...' उलाहने में भी धैर्य का जो माधुर्य यहां है, उसकी मिठास अवर्णनीय है। कहते हैं, राग केदार भगवान श्री कृष्ण को बहुत प्रिय था। इसमें मालिनी के गाए बोल  'नंदनंदन कान्हा रे' माधुर्य का जैसे अनुष्ठान है। राग सोहनी में 'रंग ना डारो शामजी' सुनेंगे तो लगेगा इस राग को उन्होंने पुनराविष्कृत किया है। उनका अपना स्वरचिंतन है। गायकी की समझ से जोड़ने वाला गायन। गाते हुए जैसे बिखरे स्वरगुच्छों को सहेजती वह उनकी माला पिरोती है। सुरीलेपन के साथ ही उनके स्वरसंधान पर भी अचरज होता है।

मालिनी राजुरकर राग में स्वरों का सटीक प्रयोग करती। आलापचारी से लय का जो बंधान वह स्थापित करती है, वह भी तो विरल है! स्वरों के छोटेछोटे स्वरपुंज। एक मीठी नैरन्तर्यता। रससिद्ध गान। गौर करेंगे तो यह भी अनुभूत होगा जितना उनके गान का बाह्य पक्ष सुदर है, उतनी ही उसकी आंतरिक प्रवृति भी सुरों के ओज में मौलिकता लिए है।  अचरज हेाता है, ऐसी गायिका के संगीत के आंतरिक पक्ष पर क्योंकर कभी समीक्षकों का ध्यान नहीं गया।

टप्पा में उन्होंने अपने आपको सर्वथा भिन्न अंदाज में साधा। यह बहुत कठिन साधना है। टप्पा माने टापना। स्वनों को उछालते हुए उनपर नियंत्रण रखना। लोक गायन की भांति इसमें खुलापन है।  इस शैली को ग्वालियर घराने में कृष्णराव शंकर और उनके पुत्र लक्ष्मण कृष्ण राव ने आगे बढ़ाया। मालिनी राजुरकर ने टप्पा और ठुमरी गान को नई ऊंचाइयां दी। गंगूबाई हंगल ने स्वरों की रंजकता को अनुभूत करते हुए ही कभी शास्त्रीय संगीत की महफिलों के लिए उनका नाम सुझाया था। राजस्थान के अजमेर मे वह जन्मी। यहीं संगीत महाविद्यालय से विधिवत संगीत की शिक्षा ली। पंडित वसंतराव राजुरकर से उन्होंने संगीत की बारीकियां सीखी। उन्हीं से बाद में उनका विवाह हुआ।

मुझे लगता है, कुमार गंधर्व की गायकी के निर्गुण का ओज मालिनी ने अपेन गान में सहेजा है तो किशोरी अमोनकर सी नफासत भी अंवेरी। किराना घराने में धीमी गति में ख्याल का उनका गान हो या फिर राग काफी में उनका टप्पा। चुलबुले स्वरों की उनकी आलाचारी, सुरचिंतन सदा लुभाएगा। अपने संपूर्ण सौंदर्य में राग उनके गान में खिलता है। हर बार। बारबार।