राजस्थान पत्रिका, 9 सितम्बर 2023
भारतीय
संगीत सुर प्रधान है। शब्द वहां नहीं भी हो तो
खास कोई फर्क नहीं पड़ता। शब्द संकेत है, मूल आलापचारी है। स्वर—साधना! मल्लिकार्जुन मंसूर, कुमार गंधर्व, पंडित भीमसेन जोशी, किशोरी अमोणकर, पंडित जसराज आदि को सुनेंगे तो
लगेगा राग के अनुशासन में
रहते हुए भी उन्होंने सुरों
की मौलिक सृष्टि की है। शास्त्रीय
संगीत के इन मूर्धन्यों
की परम्परा में ही बढ़त करने
वाली विदुषी गायिका थी, मालिनी राजुरकर।
इसी बुधवार को हैदराबाद में 82 वर्ष की उम्र में उनसे हमारा बिछोह हो गया। पर हम उस मूल्य—मूढ समय में जी रहे हैं जहां ख्यात—विख्यात कलाकारों के अलावा जो बहुत महती करते आ रहे हैं,उन्हें याद नहीं करते। उनकी गायकी की आंतरिक दृष्टि और गहराई को बिसराते हैं।
मालिनी राजुरकर विरल थी। मूलत: ग्वालियर घराने से उनका नाता था पर उन्होंने अपनी गान—शैली विकसित की। यह ऐसी थी जिसमें शास्त्रीय संगीत के विभिन्न घरानों का मेल था। सुरों की उनकी बुलंदी, चंचलता और लयकारी ऐसी है कि जिस किसी भी राग में उन्होंने गाया, खिलता हुआ वह लुभाता है।
कभी उनकी गायी राग भैरवी में 'फूल गेंदवा अब न मारो'
बंदिश सुनी थी। इस कदर सुरीला
लगा कि फिर तो
ढूंढ—ढूंढ
कर उनके गान की समग्रता को
जिया। दिल को छूने वाली
उनकी गायकी में राग बिहाग ही सुनें। 'चलो हटो जाओ छांडो मोरी बंईया...' उलाहने में भी धैर्य का
जो माधुर्य यहां है, उसकी मिठास अवर्णनीय है। कहते हैं, राग केदार भगवान श्री कृष्ण को बहुत प्रिय
था। इसमें मालिनी के गाए बोल 'नंद—नंदन
कान्हा रे' माधुर्य का जैसे अनुष्ठान
है। राग सोहनी में 'रंग ना डारो शामजी'
सुनेंगे तो लगेगा इस
राग को उन्होंने पुनराविष्कृत
किया है। उनका अपना स्वर—चिंतन है। गायकी की समझ से
जोड़ने वाला गायन। गाते हुए जैसे बिखरे स्वर—गुच्छों को सहेजती वह
उनकी माला पिरोती है। सुरीलेपन के साथ ही
उनके स्वर—संधान पर भी अचरज
होता है।
मालिनी
राजुरकर राग में स्वरों का सटीक प्रयोग
करती। आलापचारी से लय का
जो बंधान वह स्थापित करती
है, वह भी तो
विरल है! स्वरों के छोटे—छोटे स्वरपुंज। एक मीठी नैरन्तर्यता।
रस—सिद्ध गान। गौर करेंगे तो यह भी
अनुभूत होगा जितना उनके गान का बाह्य पक्ष
सुदर है, उतनी ही उसकी आंतरिक
प्रवृति भी सुरों के
ओज में मौलिकता लिए है। अचरज
हेाता है, ऐसी गायिका के संगीत के
आंतरिक पक्ष पर क्योंकर कभी
समीक्षकों का ध्यान नहीं
गया।
टप्पा
में उन्होंने अपने आपको सर्वथा भिन्न अंदाज में साधा। यह बहुत कठिन साधना है। टप्पा माने टापना। स्वनों को उछालते हुए
उनपर नियंत्रण रखना। लोक गायन की भांति इसमें
खुलापन है। इस
शैली को ग्वालियर घराने
में कृष्णराव शंकर और उनके पुत्र
लक्ष्मण कृष्ण राव ने आगे बढ़ाया।
मालिनी राजुरकर ने टप्पा और ठुमरी गान
को नई ऊंचाइयां दी।
गंगूबाई हंगल ने स्वरों की
रंजकता को अनुभूत करते
हुए ही कभी शास्त्रीय
संगीत की महफिलों के
लिए उनका नाम सुझाया था। राजस्थान के अजमेर मे
वह जन्मी। यहीं संगीत महाविद्यालय से विधिवत संगीत
की शिक्षा ली। पंडित वसंतराव राजुरकर से उन्होंने संगीत
की बारीकियां सीखी। उन्हीं से बाद में
उनका विवाह हुआ।
मुझे
लगता है, कुमार गंधर्व
की गायकी के निर्गुण का
ओज मालिनी ने अपेन गान
में सहेजा है तो किशोरी
अमोनकर सी नफासत भी
अंवेरी। किराना घराने में धीमी गति में ख्याल का उनका गान
हो या फिर राग
काफी में उनका टप्पा। चुलबुले स्वरों की उनकी आलाचारी,
सुर—चिंतन सदा लुभाएगा। अपने संपूर्ण सौंदर्य में राग उनके गान में खिलता है। हर बार। बार—बार।
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