ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, May 21, 2022

कला आयोजनों संग जरूरी है उनकी व्याख्या

संगीत, नृत्य, नाट्य और चित्रकला आदि कलाएं संस्कृति की जीवंतता हैं। इनकी प्रस्तुतियां पर हमारे यहां सूचनात्मक दृष्टि तो  है, पर विचार प्रायः गौण हैं। कलाएं मन को रंजित ही नहीं करती, उनमें रचते-बसते ही हम अपने होने की तलाश कर सकते हैं। पर कला प्रस्तुतियों का जितना महत्व है, उतना ही  उन पर सूक्ष्म दृष्टि से लिखे, व्याख्यायित किए जाने का भी है। यह लिखा खाली सूचनाप्रद, समाचार रूप में ही होगा तो उसकी कोई सार्थकता नहीं है। सोचिए, क्योंकर हम फिर कलाओं के निकट जाने के लिए प्रेरित होंगे! पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने कभी कहा था, ‘हमें तानसेन नहीं कानसेन बनाने हैं।  यह उन्होंने इसीलिए कहा था कि तानसेन जैसे गुणी संगीतकारों को सुनने के लिए ध्यान से उन्हें सुनने वालों की भी जरूरत है।

आनंद कुमार स्वामी ने पहले पहल जब श्री कृष्ण के बांसुरी बजाते बांकपन  स्वरूप, शंख, चक्र, गदा, हस्त के विष्णु, शिव के नटराज स्वरूप को देखा तो चकित  रह गए। मानव स्वरूप से इतर इन विग्रहों के निहितार्थ में वह वेद, पुराणों में लिखे, व्याख्याओं पर गए। भारतीय कलाओं  पर उनकी सूक्ष्म आलोचना दृष्टि से ही कला-कृतियों को वहृद स्तर पर हम संजो सके, सहेज पाए।

 पंडित रविशंकर का सितार जगचावा हुआ।  पर उनकी लोकप्रियता शास्त्रीय रागों के मधुर वादन भर से ही नहीं हुई। अपनी आत्म कथा में उन्होंने स्वीकार किया है, 'दूसरे देशों में मेरे सितार को आरम्भ में स्वीकार ही नहीं किया गया। पर जब मैंने अपनी रागों, उनकी मधुरता के अर्न्तनिहित की व्याख्या, समीक्षाओं का सहारा लिया तो तेजी से मुझे और मेरे संगीत को प्रसिद्धि मिली।' पंडित शिव कुमार शर्मा ने संतूर की अपनी पहली प्रस्तुति जब दी तो समीक्षकों ने संतूर को शास्त्रीय वाद्य यंत्र मानने से ही इंकार कर दिया। पंडित जी ने समीक्षाओं को अपने लिए चुनौती रूप में लिया और सूफी गायन संग बजने वाले संतूर की सीमाओं को समाप्त करते उसे तकनीकी रूप में परिष्कृत कर गायकी अंग में कुछ इस तरह से बढ़त की कि स्वयं वह बाद में संतूर के पर्याय बन गए।

 माखन लाल चतुर्वेदी के लिखे में शब्दों की पुनरावृति हेाती थी। हरिशंकर परसाई ने एक दफा इस पर करारा व्यंग्य किया। चतुर्वेदीजी ने बुरा नहीं माना। अपने अध्ययन कक्ष की टेबल के पास इस लिखे को टांग लिया। जब कभी वह कुछ नया लिखते, परसाई जी के लिखे को देखते और इस तरह से उनके लिखे में शब्दों का पुनरावृत्ति दोष समाप्त हो गया। संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र आदि सभी कलाओं के प्रति समाज में रसिकता  भी तभी जगती है, जब सूक्ष्म दृष्टि से उनकी व्याख्या हो। पर इधर गूगल ने एकरसता का इस कदर प्रसार किया है कि पंडित शिव कुमार शर्मा जैसे विरल संगीतकार के अवसान पर उनके सन्तूर वादन के अन्तर्निहित में जाने की बजाय वही प्रकाशितप्रसारित हुआ जो गूगल ने सबको बताया था।

बहरहाल, कलाओं पर लिखे की सार्थकता तभी है, जब समय संदर्भों के साथ कला और कलाकार की विधा विशेष के अंर्तनिहित को छुआ जाए। दृष्य-श्रव्य कला में दिख रहे, सुने जा रहे संसार के परे भी भाव संवेदनाओं का आकाश बनता है। यह आकाश कलाकृति में रमते बसते ही सिरजा जा सकता है। समीक्षा को हमारे यहां रचना के समानान्तर और बहुत से स्तरों पर तो रचना से भी बड़ा इसीलिए माना गया है, कि वह कलाओं से हमें प्रेम करना सिखाती है। कलाओं के समग्र परिवेश को समझने की प्रक्रिया से भी आगे यह जीवन से जुड़े व्यापक और उदात्त दृष्टिकोण से भी हमें जोड़ती हैं। इससे ही तो बनता है, कलाओं का रसिक संसार।

 राजस्थान पत्रिका, 20 मई 2022


Saturday, May 7, 2022

अतीत से प्यार करता आधुनिकता में रचा-बसा शहर पेरिस

 कलाकृतियां सौंदर्य के संसार से जोड़ते जीवन को गढ़ती है।  वहां जो कुछ दिखता है, वही नहीं, आंतरिक स्वरूप का सत्यान्वेषण अधिक महत्वपूर्ण होता है। इस देखे में इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान और पदार्थविज्ञान का थोड़ा-थोड़ा अध्ययन यदि हो तभी बहुत कुछ विरल हम पा सकते हैं। पेरिस के लुव्र संग्रहालय में इसे निंरतर अनुभूत किया। सीन नदी के किनारे कभी फ्रंास का राजमहल रहा ‘म्यूजे द लूव्र’ विश्वभर में सर्वाधिक देखा जाने वाला संग्रहालय है। इसे देखने का अर्थ है, पश्चिम के कला इतिहास की यात्रा करना। भारतीय लेखक प्रतिनिधिमंडल में संग्रहालय में संजोई ख्यात कलाकारों की उकेरी मूल कृतियों को देखते यह भी लगा, कलाकृतियों के प्रिंट बहुत से स्तरों पर आंखों को भरमाते है। मूल में जो रंग, रेखाओं और सतह से जुड़ी झंकार होती है, वह प्रिंट में कहां! 

यूजीन डेलाक्रोइक्स, वाॅन गाॅग, मातिस, माने, व्हिसलर, रेनोया, माने, लियोनार्डो दा विंची जैसे कितने ही कलाकारों की कलाकृतियों को एक दिन में देखना वहां संभव भी कहां है! एक माह भी शयद कम पड़े। कलाकृतियां ही नहीं, संग्रहालय का स्थापत्य भी अद्भुत है। यहीं लियोनार्डो द विंची की अपार लोकप्रिय ‘मोनालिसा' भी है। पर जब देखने पहुंचा तो निराशा हुई। लोग़ कलाकृति नहीं, उसके संग फोटो खिंचवाने में ही टूट पड़ रहे थे। लगा, मूल कलाकृति देखने की अनुभूति की बजाय अपने को उसके संग दिखाने की होड़ भी यहां आने वाली भीड़ का एक बड़ा कारण है।

राजस्थान पत्रिका, 7 मई 2022


बहरहाल, पेरिस भव्य है। एक रोज़ वर्साइल जाना हुआ तो देखा, वहां संग्रहालय देखने के लिए स्थानीय लोगों की लंबी कतार लगी हुई है। इसमें छोटे बच्चे और सुंदरता को निहारने की उत्सुकता, कौतुक ने भी लुभाया। फ्रांस में बाल्यकाल से ही कला शिक्षा जोर रहता है। बच्चों को इसीलिए संग्रहालय ले जाया जाता है कि उनमें छवि पहचानने, उसमें निहित सौंदर्य की संवेदना जग सके। मुझे लगता है, यह है तभी तो कि फ्रांस ने अपने कला इतिहास और स्थापत्य के अतीत को अभी भी सर्वथा नवीन बनाए रखा है। पेरिस भ्रमण के दौरान निंरतर यह भी अनुभूत किया यह शहर नहीं, कला रूपों एवं अभिव्यक्ति की मूलभूत प्रेरणाओं और उसमें हुए परिवर्तनों के इतिहास की अनूठी व्यंजना है।

‘लूर देफेल’ यानी एफिल टावर के पास ही एक होटल में हम रूके थे। सो रोज़ ही उसे देखने का सुयोग होता। कभी मेले के आकर्षण हेतु इसे एलेग्जेंडर गस्तेव एफिल ने बनाया था। बाद में इसकी स्थिरता और भव्यता ने इसे पेरिस का भव्य स्मारक बना दिया। लिफ्ट से दो मंजिल तक ऊपर पहुंच कर एक रोज़ देखा सिन नदी पेरिस के  ठीक बीच से होकर गुजरती किसी नहर सी है। ऊपर से देखेंगे तो नदी ही नहीं उस पर बने सुंदर पुल, अंदर तैरते पोत, सड़कें, महल, दूर कहीं चलती मेट्रो, चर्च के स्वर्ण गुम्बद, ग्रांड आर्च की मीनारें, महाद्वार, वृक्ष, वनस्पतियांे का सधा सांैदर्य सदा के लिए जैसे मन में बस जाता है।

पेरिस से कोई एक घंटे की दूरी पर स्थित  प्रोविंस गांव भी एक दिन जाना हुआ। रास्ते के खेतों के पीले, हरे और धूसर रंगो में रमते वाॅन गाॅग भी तब निरंतर याद आए। वहां बना बारहवीं सदी का दुर्ग, गुफा में बना प्राचीन निवास स्थान और अब संग्रहालय, स्थापत्य सौंदर्य का जैसे पाठ बंचाता है। गोथिक शैली में बनी इमारतें और गांव का वातावरण भी कम रमणीय नहीं है। और हां, पहाड़ी पर बसे उस गांव की ढ़लान उतरते खिलखिलाते बच्चों को भी तो कहां भूल पाया हूं! संग फोटो खिंचवाया तो शर्त थी-सोशल मीडिया पर साझा न करूं। पेरिस के बच्चे आधुनिकता में रचे-बसे हैं, पर दिखावे से परे हैं। लगा, अतीत से प्यार करते आधुनिकता में रचा-बसा पेरिस इसीलिए अपने कला-सौंदर्य को बरसों से ऐसे ही सहेजे हुए है।

Thursday, May 5, 2022

भारतीय लेखक प्रतिनिधिमंडल में पेरिस यात्रा

भारतीय लेखक प्रतिनिधिमंडल में पिछले दिनों फ्रांस की राजधानी पेरिस की यादगार यात्रा में निरंतर यह महसूस किया कि अपनी संस्कृति, सभ्यता और भाषा के प्रति वहां के लोगों को अथाह प्यार है।


भाषा के प्रति तो इस कदर अभिमान भी है कि वह इतर भाषा में संवाद से लगभग परहेज ही करते हैं। अतीत से प्यार करते आधुनिकता में रचे-बसे फ्रांस के लोगों में साहित्य और कलाओं से विरल अनुराग है।

लूव्र संग्रहालय हो या फिर दूसरे और भी संग्रहालय—छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्गों की लम्बी कतार टिकट क्रय कर उन्हें देखने लालायित दिखी। ऐसे ही जिस 'पेरिस बुक फेअर—2022' में हम मेहमान थे, वहां भी पुस्तकों और साहित्य से जुड़े विविध सत्रों में अपार जनसमूह जैसे उमड़ पड़ा था।

पेरिस बुक फेयर—2022 : यात्रा वृतान्त का वाचन

भारतीय पवेलियन में अपने यात्रा वृतांत का पाठ किया। इसके साथ ही भारतीय और फ्रेंच भाषा के लेखन से जुड़ी विविधता, संस्कृत और संस्कृति की जीवंतता के साथ ही सामयिक भारतीय लेखन से जुड़े सरोकारों के समूह—सत्रों में भी अपनी बात रखी।

घुमक्कड़ हूं सो एक दिन यूनेस्को धरोहर में सम्मिलित गांव प्रोविंस भी घूम आया।

इस यात्रा में वहां के हरे, पीले, धूसरित खेतों और नीले आसमानी रंगो के प्रकृति कैनवस से रू—ब—रू होते वॉन गॉग की कलाकृतियां भी बहुत याद आयी।

यादों का वातायन