ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Thursday, December 30, 2021

उत्सवधर्मिता से सजा ‘लोक रंग’

कलाओं के उद्भव का मूल लोकभावना और सामूहिक चेतना ही है। असल में कला सृजन और उपभोग में भी सामुदायिक भावना ही हमारे यहां प्रधान रही है। आरम्भ में समूह मिल-जुल कर गाता, नाचता था। तब अभिप्रायों (मोटिव्स) में कलाएं मन को गहरे से रंजित करती थी। पर इधर आधुनिकता की आंधी में लोक से जुड़ी कलाओं की हमारी वह दृष्टि लोप प्रायः होती जा रही है। अब संगीत और नृत्य प्रस्तुतियों में तड़क-भड़क और इतना शोरोगुल होता है कि मन न चाहते हुए भी उनमें ही अटक-भटक जाता है। सोचिए, भटका और कहीं अटका मन कभी शांत होता है! पर लोक कलाओं के आलोक में जीवन धन, मन के चैन को हम सहज सहेज सकते हैं।


जयपुर के जवाहर कला केन्द्र के आमंत्रण पर पिछले दिनों जब ‘लोकरंग 2021’ में जाना हुआ तो मन यही सब-कुछ गुन रहा था। मुक्ताकाश मंच पर देशभर से आए लोक कलाकारों की प्रस्तुतियों से रू-ब-रू होते लगा, मन अवर्णनीय उमंग से जैसे सराबोर हो उठा है। जम्मू-कश्मीर, झारखंड, असम, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और गुजरात के कलाकारों की लोक कलाओं में ही मन जैसे रचने-बसने लगा था। कश्मीर के लोक कलाकारों की लोक नृत्य प्रस्तुत ‘रऊफ’ मन को तरंगित करने वाली थी। ‘रऊफ’ असल में कश्मीर में वसंत ऋतु के जश्न और ईद-उल-फितर की उत्सव व्यंजना है। पंक्तिबद्ध, हाथ में हाथ डालकर महिलाएं पारंपरिक कश्मीरी वेशभूषा में इसे करते जैसे मौसम के रंग में पूरी तरह से रंग जाती है।

जवाहर कला केन्द्र में भी ऐसा ही हुआ। संगीत के साथ होले-होले उठते कदमों की सामुहिक थिरकन में ‘रऊफ’ में बढ़त हुई और औचक जाने-पहचाने बोल ‘बुम्बरो बुम्बरो श्याम रंग बुम्बरो’ जैसी अनुभूति हुई तो चौंका। लगा, लोक कलाकारों ने फिल्म संगीत को लोक में घोला है पर पता चला, मूलतः यह कश्मीर का ही लोक संगीत है, जिस पर राहत इन्दौरी ने गीत लिखा और लोक संगीत को हूबहू संगीतकार शंकर-एहसान-लॉय ने उनके बोलों में ‘मिशन  कश्मीर’ फिल्म में सजा दिया। पर लोक कलाकारों की मूल प्रस्तुति इस कदर उम्दा थी कि चाह कर भी मन उसे कहां बिसरा सकता है!झारखंड के लोक कलाकारों की कर्मा नृत्य प्रस्तुति भी कुछ ऐसी ही थी। महिला-पुरूषों का नाचता-गाता समूह! खेती और दूसरे श्रम से जुड़े कार्यों के दौरान सहज नृत्य करते गायन की इस विरल प्रस्तुति में झारखंड का लोक जीवन जैसे गहरे से रूपायित हुआ है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में कर्मा लोक मांगलिक नृत्य है। करम पूजा, यानी कार्य करने को ही पूजा मानते वहां के लोगों को सहज थिरकते देख लोक में जैसे आलोक अनुभूत होता है। असम के कलाकारो द्वारा प्रस्तुत ‘बारदोही षिकला’ नृत्य, हरियाणा के लोक कलाकारों के ‘घूमर’ में लोक आस्था का अनूठा उजास था तो झारखंड का ‘षिकारी नृत्य’ आदिवासी जीवन से जुड़े जश्न  का जैसे आख्यान था। 

राष्ट्रदूत, 30 दिसम्बर 2021


ऐसे ही राजस्थान के ‘कालबेलिया’, पंजाब के झुमुर,  और होली पर किए जाने वाले शेखावटी अंचल के ‘डफ’ नृत्य के उल्लास में जीवन की सौंधी महक सदा ही अनुभूत होती रही है। असम के ‘झुमुरू’ नृत्य में ड्रम की थाप के साथ थिरकती नृत्यांगनाएं जीवन-संगीत से जैसे साक्षात् कराती है। चाय बागानों में काम करते जीवन की एकरसता तोड़ते वहां यह नृत्य किया जाता है। गुजरात के कलाकारों ने आदिवासी संस्कृति को ‘सिद्धि धमाल’ में अनूठे रंग में जीवंत किया। तेजी से बजते ड्रम और  नगाड़े की गूंज में लोक कलाकारों के मुंह से निकलते अजीबो-गरीब बोल और इसके साथ ही उछलते कूदते किए जाने वाले इस नृत्य में गुजरात के कलाकारों  की प्रस्तुति तन और मन को झंकृत करने वाली थी। उत्सव में कैसे कलाकार अपने आपको भुलकर गाते-नाचते हैं और ऐसा करते असंभव को भी कैसे सिद्ध किया जाता है, यह नृत्य जैसे इसकी गवाही दे रहा था। अनूठे बोल और संगीत-नृत्य संग देह की अद्भुत हरकतों से रोमांचित करते कलाकारों की यह प्रस्तुति आदिवासी जीवन की छटा का जैसे अनूठा छंद है।

बहरहाल, ‘लोक रंग’ में कला की सभी प्रस्तुतियां अलग-अलग भी पर सबकी सब अपने आप में विशिष्ट भी। ऐसी जिनसे मन उर्वर हो उठे। झुम उठे। भाषा भेद के कारण बोल समझ नहीं भी आ रहे थे पर ताल और लय संग कलाकारों संग मन भी नाच-गा रहा था। जवाहर कला केन्द्र जब ‘लोक रंग’ का आस्वाद करने पहुंचा तब साथ में पत्नी डॉ. अरुणा  और बच्चे भी थे पर उनका कहना था, ‘कुछ देर ठहर वह जरूरी काम निपटाने जाएंगे।’ पर गौर किया, कलाकारों की कला संग वे भी भाव-विभोर हो पूरे समय वहीं बैठे रहे। यह लोक कलाकारों की अनूठी कलाओं का रंजन ही था कि जरूरी काम निपटाना भूल सब उनके संग ही उमंग, उल्लास में डूब-डूब चले थे। लोक के उस आलोक को गुनते मैंने यह भी अनुभूत किया, शास्त्रीय संगीत, नृत्य आदि कलाएं अनुशासन  के आदर्श में हमें बहुत से स्तरों पर जकड़ते हैं पर लोक कलाएं मन में उमंग, उत्साह जगाते हमें अपने सहज होने का अहसास कराती हैं। यह है तभी तो कलाकारों के गान और नृत्य में रमते मन उनके संग हसंते हुए औचक गाने भी लगता है। पांव अपने आप थिरकते उनके संग बगैर किसी की परवाह किए नाचने को मचलते महसूस होते हैं। कला संस्कृति मंत्री डॉ. बी.डी. कल्ला की पहल पर केन्द्र की अतिरिक्त महा निदेषक अनुराधा गोगिया ने इधर जतन कर लोक से जुड़े देषभर के कलाकारों की प्रस्तुतियों को संयोजित किया है। याद है, जवाहर कला केन्द्र में एक क्यूरेटर, महामाया को जब कुछ समय के लिए महानिदेशक  बनाया गया था तो पश्चिमी कलाओं से यह पूरा केन्द्र आक्रांत हो उठा था और तभी लोक कलाओं से जुड़ा ‘लोकरंग’ भी बंद हो गया था। इस पर बहुत सा हो-हल्ला भी मचा था पर कौन परवाह करता! बाद में  विरल छायाकार और राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अधिकारी फुरकान खान ने इसे फिर से प्रारम्भ किया पर कोविड के दौर में एक साल यह फिर नहीं हो पाया। कला संस्कृति मंत्री डॉ. बी.डी. कल्ला की पहल पर केन्द्र की अतिरिक्त महा निदेषक अनुराधा गोगिया ने इधर जतन कर लोक से जुड़े देषभर के कलाकारों की प्रस्तुतियों को फिर से संयोजित करने का महत्ती कार्य किया है। गौर किया, वह स्वयं भी लोक कलाकारों की इन प्रस्तुतियों में निरंतर स्वयं मौजूद रहकर कलाओं से लोगों की निकटता बढ़ाने में जुटी रहती है। यही कारण है कि कड़ाके की ठंड के बावजूद लोकरंग आयोजन के सभी दिनो के दौरान केन्द्र के मुक्ताकाश दर्शक दीर्घाओं  में भीड़ उमड़ती रही है। लोक का यही तो वह उजास है, जिसमें संग मिल सब झुमने को मजबूर होते  हैं।
लोक माने मन का रंजन। कहीं कोई दिखावा या बनावटीपन नहीं। इसीलिए तो लोक कलाकारों की प्रस्तुतियों में दर्शक-श्रोता और कलाकारों का भेद समाप्त हो जाता है। नृत्य, गायन संग सुनने वाले और देखने वाले भी एकमेक हो जाते हैं। मिथकों, धार्मिक विश्वासों और दैनिन्दिनी कार्यकलापो में जीवन से जुड़ी सहज दृष्टि वहां है। वहां शिक्षा  है, स्वस्थ मनोरंजन है और सबसे बड़ी बात पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांरित होता वह परम्परागत बोध भी है, जिसमें जीवन की सूक्ष्म व्याख्या को सहज समझा जा सकता है।
बहरहाल, यह सच है कि आधुनिकीकरण की आंधी में लोक कलाएं निरंतर हमसे दूर होती जा रही है। सामूहिकता के ह्रास और अपनी स्थापनाओं के आग्रह में कलाओं के सहज सौंदर्यबोध से निरंतर हम दूर हो रहे हैं। स्वतः स्फूर्त परिवर्तन को स्वीकार करते लोक कलाएं निरंतर बढ़त  करती रही है, करती रहेगी। इसलिए कि लोक कलाओं में ही जीवन की शक्ति और सांस्कृतिक चेतना की हमारी परम्परा समाई हुई है। ऐसे दौर में जब उपभोक्ता संस्कृति हमें हमारी जड़ों से उखाड़ने का पुरजोर प्रयास कर रही है, यह जरूरी है कि लोक कलाओं में ही हम जीवन की उत्सवधर्मिता का यह नाद सुनें और इसे गुनें भी।

Sunday, December 19, 2021

गीतों की भोर, रंगों की सांझ

कलाएं रस निरंजन हैं। यह कलाएं ही हैं जो जीवन को तरंगायित करती नया कुछ सीखने को भी सदा प्रेरित करती है। इसलिए कहते हैं, कलाओं से जुड़ा व्यक्ति कभी उम्रदराज नहीं होता। रवीन्द्र नाथ टैगौर को ही लें। उन्हें ‘गीतांजलि’ पर नोबल मिल चुका था, रवीन्द्र संगीत और ‘ताशेर देश’ जैसे उनके नाट्य अपार लोकप्रिय हो चुके थे पर फिर भी उम्र के 67 वें वर्ष में उन्होंने चित्रकला की शुरूआत की। संयोग देखिए, कविता लिखते वक्त पंक्तियों की काट छांट में उन्होंने रेखाओं में निहित चित्रों के आकार छुपे देखे। जिस कविता ने रवीन्द्र नाथ टैगौर को विश्व कवि रूप में अपार लोकप्रियता दिलाई, उसी से प्रसूत रेखाओं के आकारों ने उन्हें चित्रकार भी बनाया।  माने कलाएं बढ़त है।

बहरहाल, रेखाओं की मुक्ति के निमित कला की टैगौर की यात्रा कविता की लय सरीखी है। रवीन्द्र एक स्थान पर कहते भी है, ‘मेरी चित्रकला की रेखाओं में मेरी कविताएं है।’ पैरिस की गैलरी पिगाल में 1930 में उनके चित्रों की प्रथम प्रदर्शनी जब लगी तभी रवीन्द्र के चित्रकर्म पर औचक विश्वभर का ध्यान गया। बाद में लंदन, बर्लिन और न्यूयार्क गैलरियों के साथ यूनेस्को द्वारा आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय आधुनिक कला प्रदर्शनियों में भी उनके चित्र सम्मिलित हुए।

रवीन्द्र के चित्रों की खास संरचना, उनमें निहित संवेदना और अंतर्मुखवृति के साथ परम्परा से जुदा मौलिकता ने सदा ही मुझे आकर्षित किया है। याद पड़ता है, पहले पहल रवीन्द्र का बनाया जब ‘मां व बच्चा’ कलाकृति देखी तो लगा जीवन को कला की अद्भुत दीठ से व्याख्यायित करते उनके चित्र कला की अनूठी दार्शनिक अभिव्यंजना है। उन्हीं का बनाया एक बेहद सुन्दर चित्र है ‘सफेद धागे’। इसमें स्मृतियों का बिम्बों के जरिए अद्भुत स्पन्दन है। ‘थके हुए यात्री’, ‘स्त्री-पुरूष’ जैसे मानव चित्रो के साथ ही पक्षियों के उनके रेखांकन में एक खास तरह की एकांतिका तो है परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं की सौन्दर्य सृष्टि भी है। सहजस्फूर्त रेखाओं के उजास में रवीन्द्र के कलाकर्म की रंगाकन पद्धति, सामग्री में निहित रेखाओं की आंतरिक प्रेरणा को सहज अनुभूत किया जा सकता है।

कविता से चित्रकर्म की यात्रा का उनका यह संवाद भी तो न भुलने वाला है, ‘मेरे जीवन की भोर गीतों भरी थी, चाहता हूं सांझ रंग भरी हो जाए।’ यह रवीन्द्र ही है जिनके गीतों की भोर भीतर से हमें जगाती है तो चित्रों का उनका लोक सुरमयी सांझ में सदा ही सुहाता है। रवीन्द्र के चित्रों में पोस्टर रंगो, पेड़ों की पत्तियों और फूलों की पंखुड़ियों के रस के साथ ही पानी में घुलने वाले और दूसरे तमाम प्रकार के प्राकृतिक रंगों का आच्छादन, उत्सव लोक भी अलग से ध्यान खींचता है। एक व्यक्ति में कला के कितने-कितने रंग—रूप हो सकते हैं, यह भी तो रवीन्द्र के ही व्यक्तित्व में है। नहीं!

Sunday, December 12, 2021

देखने का संस्कार देती कलाएं

कलाएं अतीत, वर्तमान और भविष्य की दृष्टि को पुनर्नवा करती है। और हां, देखने का संस्कार भी कहीं ठीक से मिलता है तो वह कलाएं ही हैं। चित्रकला और मूर्तिकला की ही बात करें। इटली की मूर्तिकार एलिस बोनर ने कभी ज्यूरिख में नृत्य सम्राट उदय शंकर का नृत्य देखा और बस देखती ही रह गई। यह उनके देखने का संस्कार ही था कि मंदिरों में उत्कीर्ण मूर्तियों को बाद में उसने अपनी कला में गहरे से जिया।

मुझे लगता है, कलाओं से साक्षात् भी अपनी तरह की साधना है। आपने कोई चित्र देखा है, मूर्ति का आस्वाद किया है। तत्काल कुछ भाव मन में आते हैं-उसके प्रति। कुछ समय बाद फिर से आस्वाद करेंगे तो कुछ और सौन्दर्य भाव अलग ढंग से मन में जगेंगे। जितनी बार देखेंगे मन उतना ही मथेगा। याद पड़ता है, इन पंक्तियों के लेखक ने कभी ख्यात निबंधकार विद्यानिवास मिश्र को अपना कविता संग्रह भेंट किया था। उन्होंने कविताएं पढ़ी और लिखा, ‘कविताएं घूंट घूंट आस्वाद का विषय है। मैं कर रहा हूं।’ माने कविताओं को वह पढ़ ही नहीं रहे थे, मन की आंखो से देख भी रहे थे। इस देखने से ही मन में शायद प्यार जगता है। 

स्पेन के प्रख्यात सिनेकार जोसे लुई गार्सिया की फिल्म ‘कैडल सांग’ का संवाद है, ‘जो देखना जानाता है, वही प्यार कर सकता है।’ चित्र-मूर्तियों के अंकन में ही जाएं। भारत ही नहीं विश्वभर में भगवान बुद्ध की एक से बढ़कर एक मूर्तियां मिल जाएंगी पर बुद्ध क्या वास्तव में मूर्ति में जैसे है, वैसे ही रहे होंगे? आरंभ में बुद्ध की उपस्थिति उनकी मूर्ति से नहीं उनसे जुड़े प्रतीकों से की जाती। बोधिवृक्ष। धर्मचक्र परिवर्तन कराते कर। छत्र। पादुका और उनकी दूसरे प्रतीक। उनसे ही तथागत की उपस्थिति का आभास होता। इन प्रतीकों के आधार पर ही मूर्तियां दर मूर्तियां गढ़ी गई। ठीक वैसे ही जैसे राजा रवि वर्मा ने देवी-देवताओं को जिस रूप में बनाया, वही बाद में पूज्य हो गए। उनके बनाए चित्रों से पृथक कहीं शिव, कृष्ण, राम दिखते हैं तो वह हमें स्वीकार्य नहीं।  माने अपनी दीठ से कलाकार ने जो सिरज दिया, वही सर्वव्यापी हो गया।
 
बहरहाल, आम शिकायत है कि एब्सट्रेक्ट चित्र समझ नहीं आते पर उन पर गौर करेंगे तो अर्थ का वातायन खुलता नजर आएगा। एब्सट्रेक्ट क्या है? किसी अर्थ खुलते अंश की व्यंजना ही तो! और हां, देखने का संस्कार पाना है तो प्रकृति से बड़ा सिखाने वाला और कौन होगा! आप आसमान को देखें। समय के साथ बदलता नीला, भूरा, पीला और लाल होता आकाश! रात्रि की नीरवता में तारों को देखें और आसमान में बदलते रंगों में अपनी अनुभूतियों को घोलें। और नहीं तो रूसी चित्रकार रोरिक के हिमालय चित्रों को ही देखें। पल-पल बदलते हिमालय के हजारों-हजार रंगों को उन्होंने अपने कैनवस पर जिया ही तो है। साल बीतने को है। कलाओं में रचेंगे-बसेंगे तो सहज-सरल में भी बहुत कुछ नया पाएंगे ही।

Saturday, December 11, 2021

चित्त शिक्षित हो, मन सर्जक

नई शिक्षा  नीति में उच्च एवं तकनीकी  शिक्षा   के पाठ्यक्रम को बोझिलता से बचाने के लिए उनमें कला और संस्कृति से जुड़े अध्ययन के समावेश  की बात कही गयी है। ऐसा व्यवहार में यदि हो जाता है तो  शिक्षा   सच में विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास की वाहक हो सकती है। 

कलाएं शिक्षण  में बोझिलता को दूर करती है। संस्कारों की सूझ भी बहुत से स्तरों पर कलाएं ही देती है। पर इस समय की  शिक्षा   को देखें तो पाएंगे, अंतिम लक्ष्य वहां नौकरी प्राप्त करना भर है। पढ़ाई इसीलिए शायद व्यक्तित्व निर्माण, संस्कारों की खेती नहीं कर पा रही। और ऐसे में जिन्हें नौकरी नहीं मिलती वे युवा प्रायः भटक भी जाते हैं। पर कलाओं से यदि शिक्षण  को जोड़ा जाता है तो पढ़ाई नौकरी की विवशता  नहीं, संस्कारों की जीवंतता बन सकती है।

उच्च एवं तकनीकी शिक्षण संस्थानों में अतिथि अध्यापन के अंतर्गत निरंतर जाना रहता है और पाता हूं, बोझिल पढ़ाई की यंत्रणा जैसे वहां विद्यार्थी निरंतर झेलते हैं। पर देखता हूं, कला संस्कृति से जुड़ा कोई आयोजन वहां होता है तो विद्यार्थी खिल-खिल जाते हैं। सोचता हूं, क्या ही अच्छा हो इस तरह का उल्लास शिक्षण के दौरान भी रहे। यह मुश्किल नहीं है, बशर्ते  तकनीक में कलाओं का छोंक भर लगा दिया जाए। कुछ समय पहले पर्यटन मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कार्यरत भारतीय यात्रा एवं पर्यटन प्रबंध संस्थान में व्याख्यान देने जाना हुआ। अचरज हुआ कि पर्यटन  शिक्षा   प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को महापंडित राहुल सांकृत्यायन के बारे में जानकारी नहीं थी। माने पर्यटन की पढ़ाई व्यवसाय और प्रबंधन भर के ज्ञान से इतनी भरी है कि ‘घुम्मकड़ शास्त्र’ लिखने वाला उद्भट विद्वान ही वहां नदारद है। यह है तभी तो इस क्षेत्र के शिक्षित  बाद में भारतीय संस्कृति और संस्कारों से बाद में नहीं जुड़ पाते।  एक दफा मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वास्तुकला विभाग में  छायांकन पर व्याख्यान देने जाना हुआ। छायांकन से जुड़ी कलाओं पर रोचक बातें जब साझा कर रहा था तो अनुभूत किया विद्यार्थी जैसे खिल-खिल उठे थे। लगा, सुनने की विवशता  उदासी ओढाती है पर जब किस्से-कहानियों में वास्तु और पर्यटन से जुूड़ी कला-संस्कृति वहां हो तो पढ़ाई सुनने वालों के लिए रोचक हो उठती है।

राजस्थान पत्रिका, 11 दिसम्बर 2021

शिक्षण में कलाओं का समावेश  विद्यार्थियों को रोबोटिक होने से बचा सकता है। पर यह इस तरह से न हो कि विद्यार्थी पूर्ववर्ती कलाकारों, सांस्कृतिक धरोहर के बारे में अध्ययन भर करे। सार्थकता इसमें है कि शिक्षण संस्थानों में मौलिक दृष्टि विकसित करने से जुड़े ज्ञान का समावेश हो।    वहां कलाओं के जरिए  शिक्षा  विद्यार्थी को संवेदनशील  बनाने से जुड़े। पढ़ाई की बोझिलता से उन्हें मुक्त करे। अनुभवों की सीर इसमें मदद कर सकती है। संस्कृति की सोच से जुड़े लेखकों, कला मर्मज्ञों के अनुभव आधारित ज्ञान का प्रसार यह संभव कर सकता है। इसी दृष्टि से उच्च एवं तकनीकी  शिक्षा   में कला-संस्कृति का समावेष करने की नई शिक्षा नीति पर कार्य किया जाए। याद है, वास्तु से जुड़ा विज्ञान सदा ही मुझे बोझिल लगता रहा है पर एक दफा जब चाल्र्स कोरिया का एक व्याख्यान सुना तो फिर ढूंढ ढूंढ कर वास्तु ज्ञान से जुड़ी और भी सामग्री पढ़ने का मन हुआ। यह बात यहां इसलिए साझा कि है कि रोचक और अनुभूतियों से भरा यदि कोई संवाद शिक्षण  में मिलता है तो मन और भी नया कुछ जानने को उत्सुक होगा। विरल शिक्षाविद  गिजूभाई के शब्दों में कहूं तो इसी से चित्त शिक्षित होगा और मन सर्जक।