ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, August 26, 2023

सहेजें लोक कलाओं का उजास

 कलाओं का आलोक सदा लोक चेतना से जुड़ा रहा है। सभ्यता के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता की जब भी बात होगी तो कलाओं के लोक स्वरूपों पर ही हमें विचारना होगा। लोक माने इंद्रियगोचर प्रत्यक्ष अनुभव। व्यष्टि की बजाय समष्टि। कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैला है इनका वैविध्य। हरेक प्रांत की अपनी लोक कलाओं ने हमारी आधुनिक कलाओं को भी निंरतर समृद्ध और संपन्न किया है। 



राजस्थान पत्रिका, 26 अगस्त 2023


जे. स्वामीनाथन ने कभी आदिवासी और लोक कलाओं के संग्रहण का महती कार्य भोपाल में भारत भवन में रहते किया था। इसी संदर्भ में एक दफा वह एक सुदूर आदिवासी गावं गए तो उन्हें बहुत अचरज हुआ। ऐसे स्थान पर जहां शिक्षा की अलख कभी जगी नहीं थी, वहां आदिवासी कलाकार अपने सिरजे चित्रों में अक्षरों का प्रयोग कर रहे थे। लिपि के साथ सुंदर संसार उन्होंने अपनी कला में उकेरा था। पता चला, भोले आदिवासी कलाकारों ने यह देखा कि कोई अधिकारी, सरकारी कर्मचारी उनके यहां आता है और कागज पर लिखा कुछ देता है, लिखता है तो उससे उनको बहुत कुछ सरकारी योजनाओं का मिल जाता है। उन्हें लगा, यह जो लिखे हुए अक्षर हैं—चमत्कारी हैं। इनमें अद्भुत शक्ति है। बस उन्होंने इसे अपनी कला में संजो लिया। लोक से जुड़ी कलाएं ऐसे ही भांत—भांत रूपों मे हमें लुभाती है। उनके निहितार्थ में जाएंगे तो ऐसी और भी कहानियां चित्र सुनाते मिलेंगे।

 पर इधर बाजारवाद में लोक कलाएं अपने शुद्ध स्वरूपों में तेजी से लुप्त होती जा रही है। राजस्थान में जांगड़ा, सिंधु गायन या फिर मशक, अलगोजा, डेरू, भपंग आदि वादन और भील, मीणा, गरासियों के समूह गान हो या फिर जोगी, भाट, कामड़, सरगडी, भोपा आदि जातियों की कला परम्परा का शुद्ध स्वरूप अब ढूंढे से भी नहीं मिलता है। बहुत पहले लोक संस्कृति की एक शोध परियोजना पर काम करते गांव-गांव जाना हुआ था। तब "जांगड़ा" सुनने का संयोग पहली बार हुआ। ऐसे ही सिंधु देने की भी परंपरा इधर लुप्त हो रही है। सिंधु देना माने जोश जगाते टेर। खेतों में किसान मिलकर सिंधुड़ा देते रहे हैं। बहुत सा और भी  लोक का ऐसा है जो हमसे दूर हो रहा है।

याद है वर्षों पहले बीकानेर में वहीं पास के गांव के एक बुजुर्ग कलाकार को डेरू के साथ झूमते हुए भैरूंजी के हरजस सुने थे। और सुनने की चाह जगती रही। रात भर वह कलाकार डेरू पर झूमते हमें रस सिक्त करता रहा। इतने बरस हो गए, पर लोक का वह माधुर्य अभी भी ज़हन में बसा है। लोक ऐसे ही उजास देता है। वहां एकरसता नहीं है। 

हमारे देश में हर प्रांत की और हरेक समाज की अपनी लोक गायन और वादन परंपरा रही है। गान में आवाज लगाने की, उनके स्वर निभाव की अपनी रीत रही है। 

देश के हर प्रदेश के वाद्य यंत्र भी तो कितने बहुविध है! सुनेंगे तो पता चलेगा कितनी विविधता, भाव व्यंजना की दीठ इनमें है। महाराष्ट्र में सुंदरी का वादन होता है। यह शहनाई की छोटी बहन कही जाती है। पर इस लोक वाद्य के कलाकार भी अब गिनती के हैं। राजस्थान में डेरू, मशक, अलगोजा, भपंग कमायचा के वादक धीरे—धीरे लुप्त हो रहे हैं। पर भुले—भटके यदि इन्हें सुनने का अवसर मिले तो न गवांए। अतिसार में मशक और अल्गोजा बजते हुए ही कभी सुनें। मन अंतर के उजास से नहाएगा।



Saturday, August 19, 2023

'अमर उजाला', 19 अगस्त 2023
-"छायांकन कहन की दृश्य कला है। इसमें तकनीक ही महत्वपूर्ण नहीं है, छायाकार की छायांकन दीठ महती है। दृश्य को पकड़ते बहुतेरी बार छायाकार उस निःसंग को भी पकड़ता है जिसमें मौन भी बोलने लगता है और तब हजारों-हजार शब्दों में जो नहीं कह सकते, वह एक छायाचित्र कह देता है।... दादा साहब फाल्के कैमरे से सिरजी दुनिया के प्रति इतना अधिक जुनूनी थे कि उन्हें इसके लिए अपनी एक आंख तक गंवानी पड़ी थी। ‘द ग्रोथ ऑफ द प्लांट’ में क्षण—क्षण को उन्होंने कलात्मक ढंग से जिया है। फिल्मो में जो ‘स्पेशल इफेक्ट’ हम देखते हैं, वह उन्हीं की देन है। सत्यजित राय के साथ भी यही था, उन्होंने साधारण विषयों, दृश्य के भी सूक्ष्म ब्योरों के विरल कलात्मक रूप सिरजे हैं। प्रख्यात कलाकार रोरिक ने जो कलाकृतियां सिरजी है, उनमें हिमालय पर पड़ती सूर्य की लालिमा, धूप, छांव, अंधकार और प्रकाश से जुड़े दृश्यों का अद्भुत लोक रंग-रेखाओं में रचा है। इसी आलोक में रमते प्रस्तावित करता हूं, इस बार जब किसी कलात्मक छायाचित्र को देखें तो उसमें भी प्रकृति से जुड़े ऐसे ही मोहक छंदो की तलाश करें। बहुत कुछ नया, अभूतपूर्व आप पाएंगे ही।

कलाओं का छंद संस्कार

 

 राजस्थान पत्रिका, 12 अगस्त 2023
"छंद कलाओ का सहज गुण है।.. कालपरक रूपों में छंद संगीत, नृत्य काव्य आदि कलाओं में तो देशपरक में वह मूर्ति, चित्र आदि रूपों में स्वयमेव सधता है। 

संस्कृत वाङ्मय में लय को बताने के लिये छन्द शब्द का प्रयोग मिलता है। 

लय से ही कलाओं में रंजकता आती है। लय क्या है? काल का अनुभूत प्रवाह ही तो! जिस तरह काल की गति मंद-तीव्र होती है, लय का भी वैसा ही प्रवाह होता है। दुःख, विरह शांति, विश्रांति में काल की गति धीमी, विलम्बित और भय, डर आदि में तीव्र, द्रुत होती जाती है।

कलाओं की चर्चा संग छंद की बात आपसे यहां इसलिए की है कि उसके मूल में हम अपनी कला-अन्तर्दृष्टि की ओर अग्रसर हो सकें। 

हुआ बिल्कुल उलट है। हमने कलाओं में अपनी स्वयं की दृष्टि की बजाय पश्चिम की अवधारणाएं ओढ़ ली है।... 

पर पश्चिम हमें आज भी कलाओं में संकुचित अर्थ में देखता है। भारतीय संगीत का अध्ययन वहां ’एथ्नोम्यूजिकॉलोजी’ से कराया जाता है। ...