ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, May 20, 2023

भास के नाट्यकर्म की सौंदर्य संहिता

राजस्थान पत्रिका, 20 मई 2023


कालिदास ने नाटक को चाक्षुष यज्ञ कहा है। एक नहीं बहुत सारे रसों की अन्विति। नाटक साहित्य की ही एक विधा है, स्वाभाविक ही है बहुतेरे ऐसे हैं जो केवल उसे पढ़कर ही संतोष कर लेते हैं। पर, बहुत सारे नाटक देखने के बाद समझ यही आया है कि मंचीय प्रदर्शन में ही कोई लिखा नाटक अर्थ की पूर्णता के प्रवेश द्वार तक हमें ले जाता है। किसी एक ही लिखे नाटक की जब अलग-अलग निर्देशक अपने तई भिन्न युक्तियों से प्रस्तुति करते हैं तो उसे देखने वाले भी अर्थ की अनंत संभावनाओं से साक्षात् करते हैं। भरतमुनि ने नाटक को 'सर्वशिल्प-प्रवर्तकम्’ कहा है। इसलिए कि उसमें बहुत सारी कलाओं का समावेश है।

इधर भास के लगभग सभी नाटकों का पारायण किया है। कुछ दिन पहले कवि और चिंतन से जुड़े रंगकर्मी भारतरत्न भार्गव ने अपनी दो पुस्तकें पढ़ने के लिए भेजी थी, 'महाकवि भास के संपूर्ण नाटक’ और 'महाकवि भास का नाट्य वैषिष्ट्य’। दोनों ही विरल हैं। इस दृष्टि से कि भास के उपलब्ध नाट्य लेखन को संस्कृत और अंग्रेजी से हिंदी में इनमें जीवंत ही नहीं किया गया है बन्कि उनकी एक तरह से मीमांसा है और फिर संहिता भी। भास के सभी नाटकों के अर्थ-मर्म छुआती इन पुस्तकों में भास के नाट्य लेखन में छिपी असीमित मंचीय और अनंत अर्थ संभावनाओं का भी उजास है। नाटकों के विविध प्रसंगों के आलोक में जो विष्लेषण भारतरत्न भार्गव ने किया है, वह लूंठा-अलूंठा है। मुझे लगता है, इधर के वर्षों में इस तरह का यह अपने आप में अपूर्व कार्य है। साहित्य, कला और संस्कृति की दृष्टि से अनुकरणीय भी।

भास से कोई सौ वर्ष बाद कालिदास हुए हैं। पर अपने नाटक 'मालविकाग्निमित्रम्’ में सूत्रधार के जरिए वह  भास का संदर्भ देते हुए उससे यह कहलवाते हैं कि जब भास जैसे नाटककार के नाटक पहले से हैं तो फिर कालिदास जैसे नए नाटककार का नाटक क्यों? इस सवाल का उनका जवाब भी अनूठा है कि पुराना जो है, वही श्रेष्ठ नहीं है। नए की भी उसके गुणों के आधार पर परीक्षा होनी चाहिए। इस दृष्टि से भारतरत्न भार्गव के भास के नाट्यकर्म के किए इस कार्य को भी गहराई से अनुभूत करने की जरूरत है।

भास के नाटकों में महाभारत आधारित नाटक है-मध्यमव्यायोग, कर्णभारत, उरुभंग, पंचरात्र और दूतवाक्य। दो-अभिषेक और प्रतिभा वाल्मीकि रामायण पर अधारित हैं। एक-बालचरित कृष्ण कथाओं पर और चार उनके अपने कथानक के हैं-स्वप्नवासवदत्ता, प्रतिज्ञा यौगन्धरायण, अविमारक और चारूदत्त। पढेंगे तो लगेगा, नाट्य लेखन में कितनी-कितनी मंचीय संभावनाएं उन्होंने हमें सौंपी हैं! नाटकों में उनकी अपनी दृष्टि, लेखन की विरल युक्तियां और महाभारत या दूसरी पुराण कथाओं से इतर भी स्थापना के अद्भुत प्रसंग हैं। मसलन उन्होंने दूतवाक्य में सुदर्शन चक्र और अन्य आयुधों को नाट्यपात्र रूप में जीवंत किया है तो 'मध्यमव्यायोग’ में जीतेजी व्यक्ति के तर्पण की त्रासदी की अद्भुत व्यंजना की है। सभी नाटक अर्थगर्भित, पर संप्रेषणीय संकेत लिए हैं। 'स्वप्नवासवदत्ता’ का मूर्ति में रूपायित उनका वह प्रसंग तो बहुतों को स्मरण होगा जिसमें हाथी पर उदयन वासवदत्ता को भगाए ले जा रहा है, सैनिक उन्हें पकड़ने को पीछे भाग रहे हैं और उदयन का अनुचर स्वर्णमुद्राएं फेंक रहा है। सैनिक उन्हें बटोरने में लगे हैं। याद नहीं पर संभवत: भारत कला भवन, वाराणसी में कभी मूर्ति में इस दृश्य का आस्वाद किया था जो अभी भी ज़हन में बसा है।

भारत रत्न भार्गव ने भास के संपूर्ण नाट्यकर्म के अनुवाद और संपादन का ही महती कार्य नहीं किया है, विशद विश्लेषण किया है। क्या ही अच्छा हो, ऐसी मौलिक दृष्टि में ही हमारी कला-संस्कृति निरंतर ऐसे ही पुनर्नवा होती रहे।


Saturday, May 6, 2023

सुंदर सृष्टि और दृष्टि के संवाहक बनें

राजस्थान पत्रिका, 6 मई 2023


चार्ल्‍स कोरिया वास्तुविद् ही नहीं थे बल्कि कलाओं की गहरी सूझ से भी जुड़े हुए थे। कुछ अरसा पहले हरिश्चन्द्र माथुर राज्य लोक प्रशासन संस्थान में उनका एक व्याख्यान हुआ था। सुनने गया तो अनुभूत किया उनकी दृष्टि इमारतों में संस्कृति की जीवंतता से जुड़ी थी। संवाद में उनका कहा अभी भी ज़हन में बसा है कि कोई वास्तु संरचना तीन पायों पर खड़ी होती है। पहला पाया है जलवायु दूसरा—तकनीक और तीसरी संस्कृति। मुझे लगता है
, सबसे मजबूत कोई पाया है तो वह संस्कृति का है। कोई सार्वजनिक इमारत अपनी सार्थकता तभी बनाए रख सकती है जब वहां पर संस्कृति के मूल्यों का पोषण हो। इमारत सुविधा संपन्न तो तकनीक से हो सकती है परन्तु वहां स्पेस और अनुभूति मे सुदंरता तभी होगी जब कला—संपन्न दृष्टि उसके निर्माण की होगी। जयपुर के जवाहर कला केन्द्र और भोपाल के भारत भवन को देखेंगे तो इसे गहरे से महसूस कर सकेंगे। मुझे यह भी लगता है कोई इमारत सांस लेती प्रतीत भी तभी होती है, जब वहां संस्कृति से जुड़ी हमारी परंपराओं के आयोजनों में आधुनिक समय संदर्भों की गवाही हों।

वास्तु को हमारे यहां कलाओं की माता कहा गया है। यह सच भी है, किसी इमारत की सुंदरता का पैमाना यह नहीं है कि वह कितने क्षेत्रफल में और कितनी आधुनिक तकनीक से निर्मित हुई है। यह है कि वहां ठहरते हुए आपको अनुभूति किस प्रकार की हो रही है। पुराने हमारे मंदिरों के गर्भगृह में बहुत अंधेरा और संकड़ापन होता है परन्तु वहां अवर्णनीय आनंद की अनुभूति होती है। कन्याकुमारी में तीनों समुद्रों के संगम स्थल पर मां पार्वती को समर्पित मंदिर की वास्तु संरचना ऐसी है कि सूर्य का उजास सबसे पहले वहीं होता है। ग्वालियर से कोई 40 किलामीटर दूर मितावली में बने चौंसठ योगिनी मंदिर से प्रेरणा लेकर ही लुटियन ने भारतीय संसद की भव्य इमारत कल्पित की। पर इस सत्य को बहुत कम लोग जानते हैं। भारतीय वास्तु संरचनाओं में स्पेस के साथ अनुभूति से जुड़े भव पर विचार करेंगे तो बहुत कुछ और भी महत्वपूर्ण मिलेगा।

खजुराहो के मंदिरों संग वहां जब नृत्य महोत्सव होता है तो उसका जो दृश्य बनता है, वह विरल होता है। यह विडम्बना ही है कि हमने विकास का जो दृष्टिकोण अपनाया हुआ है, उसमें आय अर्जन और पूंजी निर्माण को ही सर्वाधिक महत्व दिया हुआ है। आर्थिक संपन्नता का अपना महत्व है परन्तु अर्थ का अतिरिक्त आग्रह मूल्य—मूढ़ समाज का निर्माण करता है। विकास के नाम पर इंट—गारे की इमारतों, बड़े—बड़े पुलों और सार्वजनिक पार्कों के जो जंगल तेजी से हमारे चारों ओर बन रहे हैं, वह विकास के कौनसे मॉडल की ओर हमें ले जा रहे हैं, इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

सार्वजनिक इमारतों, सार्वजनिक पार्कों, उद्यानों और नवनिर्मित कला केन्द्रों के संदर्भ में यह बात गहरे से देखी जानी चाहिए कि वहां पर कलाओं के नाम पर विभत्स तो नहीं रचा जा रहा? वास्तु और मूर्तिकला का आरम्भ से ही निकट का नाता रहा है। किसी वास्तु संरचना में यदि कलाकृतियां उकेरे जाने, मूर्तियों का संसार सिरजे जाने का आग्रह है तो यह जरूर खयाल रखा जाए कि आकृतियां आंखों को सुहाने वाली हों। जिन्हें देखकर मन सुकून पाएं। थोड़ा ठहरकर कलाकृतियां देखें तो मन उनसे विरक्त नहीं हों। पर यह विडम्बना है कि जो कुछ नए सार्वजनिक स्थल बन रहे हैं वहां पर कलाकृतियों के नाम पर कलाकारों की बजाय मजदूरों से प्राचीन कलाकृतियों, वास्तु संरचनाओं की नकल कराकर निर्माण कार्य तेजी से हो रहे हैं। विभत्स और भद्दा उकेरा जा रहा है। ऐसा ही यदि होता रहा तो भविष्य की सौंदर्य दृष्टि से सदा के लिए हम क्या महरूम नहीं हो जाएंगे!

ऐसे दौर में जब तेजी से विचार—विमुखता की ओर समाज उन्मुख हो रहा हो यह जरूरी है कि सुरूचिपूर्ण, भारतीय कला—संस्कृति से जुड़ी सौंदर्य—लय की ओर हम लौटें। वास्तु संरचना के हमारे इतिहास को खंगालते हुए सुंदर सृष्टि और दृष्टि के संवाहक बनें।