ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, November 11, 2019

स्वर-सिद्ध कण्ठों के ध्रुवपद गान का बिछोह


स्मृति शेष : रमाकांत गुंदेचा



गुंदेचा बंधु रमाकांत गुंदेचा का बिछोह धु्रवपद की जड़़ होती परम्परा को बचाने के जतन में जलाए किसी दीए के बूझने सरीखा है। बरसों से धु्रवपद में गाये जा रहे पदों की एकसरसता को तोड़ते उन्होंने उसकी रागदारी में बढ़त की। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सूर, कबीर, तुलसी, पद्माकर के साथ ही आधुनिक कविताओं को धु्रवपद में उन्होंने पिरोया तो स्वयं भी बहुत से पद रचे। धु्रवपद के प्रचलित पदों के साथ ही सबद गाए, रवीन्द्र संगीत को धु्रवपद से जोड़ा और बहुतेरे वाद्य यंत्रों के साथ भी जुगलबंदी की।  मुझे लगता है, धु्रवपद गायकी को लोकप्रिय करते उन्होंने अपने तई संगीत में भाव दृष्यों का मधुर भव रचा।
कहते है, धु्रवपद में साथ में आवाज लगाने की परम्परा नहीं रही है। पर उमाकांत-रमाकांत गुंदेचा बंधुओ की गायिकी को सुनते यह मिथक जैसे टूटता हुआ सा लगता है। धु्रवपद में अल्लाबंदे खांन और जकीरूद्दीन खां की जुगलबंदी की भी बात होती है पर यह 1920-21 की बात है। पर, गौर करेंगे तो पाएंगे वहां दो आवाजें जरूर है पर वह साथ नहीं लगती थी। इस दीठ से उमाकांत-रमाकांत गुंदेचा बंधुओ ने जुगलबंदी में एक साथ स्वर मिलाते धु्रवपद के डागर घराने को अपने तई समृद्ध ही नहीं एक तरह से सपन्न किया। धु्रवपद के मूल को बरकरार रखते हुए भी उन्होंने चारूकेषी, षिवरंजनी, हंसध्वनि, सरस्वति और मारवा जैसे कम प्रचलित बल्कि कहें धु्रवपद में आमतौर पर नहीं गाये जाने वाले रागों में बढ़त की। उनके गायन का अति दु्रप भी लुभाता हैै। इसलिए नहीं कि वहां तेज गमक है, बल्कि इसलिए कि उसमें सुनने के अपूर्व रस की अनुभूति होती है। धु्रवपद में आलाप के जड़त्व को तोड़ते उसमें रोचकता का समावेष रमाकांत गुंदेचा ने किया।
धु्रवपद भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनमोल विरासत है परन्तु यह विडम्बना ही है कि इसमें घरानों की परम्परा में किसी तरह का प्रयोग नही ंके बराबर हुआ हैं परन्तु मुझे लगता है, रमाकांत-उमाकांत गुंदेचा ने इस धारणा को बदलते हुए ध्रुवपद की मूल संरचना मे बगैर किसी प्रकार का बदलाव किए निरंतर प्रयोग किए हैं। कर्नाटक संगीतकारों के साथ गायन की बात हो या फिर कथक में गान की उनकी संगत-धु्रवपद उनसे ही आम जन में सहज संप्रेषित हुआ है। अरसा पहले, प्रख्यात कथक नृत्यांगना चन्द्रलेखा के कथक प्रयोग में गति की मंथरता में मनोंभावों की विरल व्यंजना को अनुभूत किया था। सोचकर अचरज होता है, रमाकांत-उमाकांत गुंदेचा ने चन्द्रलेखाजी के नृत्य के उस मंथर में भी धु्रवपद की अद्भुत संगत की। माने जो ‘नहीं होता’ उसके होने को धु्रवपद में किसी ने संभव किया है तो वह गुंदेचा बंधुओ की जोड़ी है।
धु्रवपद में लयकारी और ताल पक्ष पर विषेष ध्यान देते उन्होंने परिपाटी की तरह परम्परा के प्रयोग की धारणा को भी एक तरह से बदला। रमाकांत गुंदेचा ने एक दफा कहा था, ‘कबीर ने सरल भाषा का इस्तेमाल किया था लेकिन उनके विचार पक्ष की गहनता फिर भी बरकार रही।’ मुझे लगता है, धु्रवपद में उन्होंने भी यही किया। उसे सरल, सहज, ग्राह्य बनाते हुए भी उन्होंने उसकी शास्त्रीय गंभीरता को तिरोहित नही होने दिया। कहना चाहिए, स्वर के प्रति धु्रवपद की जो संवेदनषीलता है, उसकी तमाम संभावनाओं को तुलसी, कबीर, निराला, पद्माकर और दूसरे आधुनिक कवियों के लिखे पदों में उन्होंने तराषा।  वह कहते भी थे, ‘स्वर को उसकी शुद्धि के साथ प्रस्तुत करने में धु्रवपद गायिकी में जो अवकाष है, वह दूसरी किसी भी गायिकी में नहीं।’ उन्हें सुनते लगता भी है कि इसका भरपूर इस्तेमाल उन्होंने अपनी गायिकी मंे किया भी। राग मालकौष में गाया उनका ‘षंकर गिरिजापति’ तो जितनी बार सुनेंगे, मन करेगा सुनें, सुनते ही रहें। ऐसे ही राग अडना में षिव की महिमा का उनका सस्वर ‘षंकर आदिदेव...’ सुनेंगे तो मन करेगा उन्हंे गुनें-गुनते ही रहें। राग चारूकेषी में कबीर के पद ‘झीनी झीनी-बीनी चदरिया’ या फिर राग जैजैवंती में ‘एक समय राधिका’, राग भिमपलासी में ‘नमो अंजनी नंदनम्’ या फिर राग भूपाली का उनका आलाप-सुनतें मन अवर्णनीय आनंद रस की ही तो अनुभूति करता हैै।
यह सही है, दो गायकों की जुगलबंदी में किसी एक की आवाज की परख आसान नहीं है परन्तु ध्यान से सुनंेगे तो अनुभूत होगा गुंदेचा बंधु का गान दो आवाजें हैं परन्तु दोनों नितान्त अलग-अनूठी हैं। रमाकांत गुंदेचा की वैयक्तिकता भी वहां अलग से अपने ओज में नजर आती है। यह भी कि आमतौर पर धु्रवपद की जुगलबंदी में एक ने कुछ गा दिया तो दूसरा उसी को नहीं करता। पहले उसे सुनता है फिर स्वरों में अपना सिद्ध गाता है परन्तु रमाकांत गुंदेचा ने धु्रवपद में संग गाते बोल-तान में जुगलबंदी का अनूठा रस-उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी गायकी धु्रवपद का नाद-ब्रह्म ही तो है!
ऐसे दौर में जब धु्रवपद क्या, दूसरे शास्त्रीय संगीत को सुनने श्रोता नहीं मिलते, धु्रवपद के गुणगान की बजाय उसे सुनने के लिए प्रेरित करने का कार्य रमाकांत गुंदेचा ने अपने भाई उमाकांत के साथ मिलकर किया। धु्रवपद की बरसों से चली आ रही गान परम्परा में श्रव्यता पर ध्यान देते उन्होंने उन रूढ़ियों को तोड़ा जिनके कारण धु्रवपद किन्हीं खास श्रोताओं की ही पसंद बना हुआ था। प्रस्तुति उन्मुख उनकी गायकी इसलिए ही पंसद की जाती है कि वहां पर शास्त्रीयता के घोर गरिष्ठ का आतंक नहीं है। धु्रवपद की विरासत को सहेजते, उसे पुनर्नवा करते रमाकांत गुंदेचा ने अपने भाई उमाकांत गुंदेचा के साथ धु्रवपद में अपने को सांस से ही नहीं चिन्तन और मनन से भी निरंतर साधा। रमाकांत गुंदेचा का असामयिक निधन धु्रवपद की विरल जुगलबंदी का सदा के लिए बिछोह है।
-राजस्थान पत्रिका, 11 नवम्बर, 2019