ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, December 30, 2023

नई भोर संग हम और नये हों-आत्मान्वेषण करते ...


यह वर्ष कल बीत जाएगा। नव वर्ष में नई भोर संग हम और नये होंगे। यही जीवन है। 
चलते रहें। कभी न थमें। पानी एक जगह ठहरता है तो सड़ांध मारने लगता है। बुद्ध ने इसलिए कहाचरत भिक्खवे चारिकं। भिक्षुओं चलते रहो। बहुश्रुत मंत्र हैचरैवेति। चरैवेति।

संस्कृति का यही मूल है। चलने का अर्थ पैर बढ़ाना भर नहीं है। पुरातन को छोड़ नूतन की ओर गमन है। विडम्बना हैहमने आधुनिकता को अभिनव मान लिया है। यह भ्रम पश्चिम ने फैलाया। वहां के लेखकों ने कलाओं और दूसरे अनुशासनों में आधुनिकता को युग बोध से जोड़ संस्कृति सापेक्ष बना दिया। असल में आधुनिकता फैशन नहींविचार है। 


भारतीय संदर्भों में यह संस्कार हैं। एक तरह से आत्मान्वेषण की प्रकिया। जितना हम अपने आपको जानेंगेउतना ही आगे बढेंगें। 'चरैवेतिका मूल भी यही है।


कठोपनिषद् में कथा हैनचिकेता पिता द्वारा यज्ञ पश्चात दक्षिणा में मरणासन्न गायों को दान होते देख व्यथित होता है। प्रश्न करता हैवह उन्हें किसे दान देंगेक्रोधित पिता कहते हैंयम को। नचिकेता यमलोक पहुंचता हैं। तीन दिन वह बिना अन्न—जल ग्रहण किए यम की प्रतीक्षा करता है। यम प्रसन्न हो उसे तीन वर मांगने को कहते हैं। नचिकेता मांगता हैक्रोधित पिता प्रसन्न हो जाए। यम कहते हैंऐसा ही होगा। दूसरा वर वह स्वर्ग में अमरत्व प्राप्ति के रहस्य जानने का मांगता है। यम इसका ज्ञान उसे देते हैं। पर नचिकेता जब तीसरा वर ब्रह्म को जानने के संबंध में मांगता है तो यम अचरज करते हैं। वह उसे यह वर नहीं मांग हर तरह के सुखों के भोगपृथ्वी सम्राट बनने आदि का प्रलोभन देते हैं। नचिकेता नहीं मानता। अंतत: यम उसे जो ज्ञान देते हैंउसका मूल है—ब्रह्म माने आत्म का अन्वेषण। अपने आपको जानना। मिथ्या ज्ञान की माया से यही हमें मुक्त करता है।


पर प्रश्न हैआत्म का ज्ञान कोई कैसे करे

नव वर्ष का संकल्प क्या यही नहीं होना चाहिए कि हम अपने पास जो हैउसको देखनेउसके बारे में चिंतन की दृष्टि विकसित करें। 


विचार करेंहममें से कितने हैं जिनके पास अपनी बरतीपढ़ी जाने वाली भाषा का शब्दकोश है?  जर्मन दार्शनिक हेगल पश्चिम दर्शन के संस्थापक माने जाते है। उनकी 'कला का दर्शनपुस्तक जगचावी हुई। इसमें उन्होंने स्थापत्य को प्रतीकवाद बताते उसमें संगीत के संबंधों पर चर्चा की है। एक अनुभूति शायद उन्हें किसी इमारत को देखकर हुई होगी कि वाह! यह तो संगीत की तरह है। बसउन्होंने यह लिख दिया और फिर तो उनके इस ज्ञान से भी आगे सोचने की जैसे झड़ी लग गयी। बगैर सोचे—समझे स्थापत्य को कलाओं की जननी कहना प्रारंभ कर दिया गया। आज भी हमारे यहां कोई समाचार लिखा जाता है या वास्तु पर कोई बात होती है तो सूत्र वाक्य उभरता है, 'आर्किटेक्चर— द मदर ऑर ऑल आर्ट्स'

 

विचार करेंकैसे यह हो सकता हैजब मनुष्य आदिम अवस्था में था तो आसमान उसकी छत थी। बाद में वह कंदराओं में रहने लगा। मन प्रसन्न होता तो नाचता। गाता। गुफा की दीवारों पर चित्र उकेरता। घर तो बहुत बाद में बने। तो स्थापत्य बाद की बात है। पहले नृत्यसंगीतचित्र है। अनुभूति का सौंदर्य अलग हैकलाओं का इतिहास तथ्याधारित है। कलात्मक सौंदर्य कोई शब्द—अलंकार नहीं है कि जिसे हम इतिहास की किसी स्थापना से जुड़े विचार का वस्त्र पहना दें।


इसलिए आईए नव वर्ष में भाषा और शब्द की सूक्ष्म सूझ से हम अपने आपको जोड़ें। शब्द की अर्थगर्भित छटाओं को निहारने में रुचि लें। दृष्टि को तर्कसंगत बनाएं।


 रवीन्द्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार ऐसे ही नहीं मिला। उन्होंने जो लिखा आत्मान्वेषण की साधना है। उन्होंने ताजमहल को अनंत काल के गाल पर आंसुओं की एक बूंद कहा है। कम शब्दों में कितनी गहरी बात उन्होंने कही है! शब्द—सौंदर्य में दृष्टिकोण इसी तरह तर्कसंगत बनता है। 


हम कहते हैंबंधु! कभी सोचा हैइसका अर्थ कितना गहरा हैबंधु माने वह जो बांध लेता है। तो आइएहम अपने स्वयं के पास जो हैउसको खुली आंखो से देखते मनन करने में अपने आपको बांधें। इसी से नया कुछ मिलेगा। नव वर्ष की अग्रिम स्वस्तिकासना!



Saturday, December 2, 2023

अन्तर अन्वेषण में उपजती कला—संस्कृति की परम्पराएं

पत्रिका, 2 दिसम्बर 2023 

हमारे सांस्कृतिक प्रतीकों पर जाएंगे तो यह गहरे से अनुभूत होगा कि वहां बाह्य पक्ष ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि विचार—उजास में परम्पराबद्ध ज्ञान की जड़ें वहां पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। मोर पंख को ही लें। बचपन में पढ़ाई करते तो इसे किताब में रखते। शुभ मान सहेजते। कहां से आई यह दृष्टि?  कथा आती है कि गीत गोविंद की रचना करने वाले जयदेव तब राधा—माधव लीला रच रहे थे। एक पद में वह अटक गए। सुबह से सांझ होने को आई, कविता पूरी ही नहीं हुई। उहापोह में वह नहाए ही नहीं। पत्नी ने कहा, 'आप नहाकर भोजन करलें। संभव है, नया कुछ पा जाएं।' अनमने जयदेव नदी तट को हो लिए। अभी कुछ ही देर हुई कि द्वार खटखटाया। पत्नी ने कहा, 'आप इतनी जल्दी लौट आए? जयदेव ने कहा, ' हां, याद आ गया। अभी पद पूरा कर देता हूं।' 

उन्होंने कविता पूर्ण की। पत्नी ने भोजन कराया और फिर सदा की तरह वह  बिस्तर पर लेट गए। कुछ ही देर में किवाड़ फिर से बजा। पत्नी ने द्वार खोला तो हतप्रभ! गीले वस्त्रों में जयदेव थे। वह बोली, आप आए हैं तो फिर वह कौन है जो अंदर सो रहे हैं। जयदेव भागे—भागे कक्ष में पहुंचे। देखा उनका अधूरा छंद पूर्ण हुआ पड़ा था। पास ही मोरपंख रखा था। जयदेव समझ गए, प्रभु माधव खुद आए थे उनका पद पूर्ण करने! 

कला-संस्कृति में संस्कारों की ऐसे ही बढ़त होती है। सौंदर्य की सूझ का मूल भी यही है। हम कहते हैं, कृषि- संस्कृति। कहां से आया यह शब्द?  युग लग जाते हैं, तब कोई सधा हुआ शब्द—रूप इस तरह से सभ्यता में समाता है। 

खेती का जब आविष्कार नहीं हुआ था तब मनुष्य पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर था। जो कुछ धरती पर पक्षी उगलते, उससे उपजे धरती—धन से ही उसका गुजारा होता। पेड़ों पर फल लगते तो वह उनको खाकर अपनी क्षुधा शांत करता। पर तब संकट का समय होता जब अकाल पड़ता या फिर कोई प्राकृतिक प्रकोप से उसका सामना होता। दिन—महिने मनुष्य को भूखे रहना पड़ता। ऐसे ही तब किसी मनुष्य को सूझा होगा कि कैसे धरती में बीज समाता है और अन्न् उपजता है। कैसे पेड़ पर फल लगते हैं। बस फिर क्या था? जंगल के एक हिस्से की सफाई कर मुनष्य ने झुम—खेती प्रारंभ कर दी। उत्पादन हुआ तो प्रकृति पर उसकी निर्भरता खत्म हो गयी। कृषि-संस्कृति के बीज ऐसे ही हममें समाए।

जीवन को अर्थ देने वाली या फिर नए ढंग से देखने की दृष्टि जहां भी हमें मिली है, हमने उसे सहेजा है। पर जहां उस दृष्टि का मूल हमें नहीं मिला, हमने उसे ईश्वर—प्रदत्त कहा है। 

वेदों को ईश्वरीय ज्ञान कहा गया है। क्यों? इसलिए कि तब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था। ऋषियों के गूढ़ ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी कंठस्थ सहेजा गया। श्रुति परम्परा से यह आगे बढ़ा पर लिपि के आविष्कार से इन्हें पुस्तकाकार मिला। वैदिक काल में चित्रकला नहीं थी परन्तु रूप—कल्पना थी। 

वृहदारण्यक उपनिषद् में अश्वमेघ यज्ञ के स्थान पर इस सारे विश्व को अश्व के रूप में मानकर उसका ध्यान योग द्वारा यज्ञ का निर्देश है। ऊषा अश्व का शिर माना गया है, सूर्य उसके नेत्र बताए गए हैं, वायु उसका प्राण, अग्नि उसका मुख और वर्ष उसकी आत्मा कही गयी है। इसी तरह अन्य उपमाओं से एक विराट् रूप का वर्णन है। यह जो कल्पनाएं हुई हैं, उन्हीं से कालजयी फिर रचा गया है। मूर्तिशिल्प, संगीत में या नृत्य में कोई नई उपज हुई है, नाट्य में कथा को नई दृष्टि से सहेजा गया है तो उसमें अंतर का यह अन्वेषण ही प्रमुख आधार रहा है।