ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, April 19, 2020

एकांत को गुनते मौन को सुनें

कोरोना वायरस के इस दौर में जब हर ओर चुप्पी, सड़कों पर सन्नाटा पसरा है और घरों से बाहर जीवन थमा पड़ा है, मन का मौन जैसे भीतर के अनगिनत सवालों का जवाब है। मौन के गर्भ से ही तो भीतर की प्रज्ञा, बोध-शक्ति से साक्षात् होता है। यही वह समय भी है जब कईं बार मन आकाश बनता जैसे उड़ने को आतुर हो उठता है। मुझे लगता है, एकान्त ही हमें इच्छाओं, अपेक्षाओ से मुक्त करता है। इसलिए कि अपने भीतर झांकने, सोचने का अवकाश अकेले मे ही मिलता है। अन्यथा तो भौतिकता में, काम के बोझ में हम अपने से निरंतर दूर, बहुत दूर हुए जाते हैं।
भोर में उजास रोज ही होता है पर उसको देखने का अवकाश जैसे इन दिनों ही मिल रहा है। किताबे पढ़ते लगता है, ठीक से  समझ वह अभी ही आ रही है। 
यह जो एकान्त है, अपना खुद का चुना हुआ नहीं है इसलिए बहुतेरी बार बहुत बोझिल प्रतीत होता है पर किताबों में पढ़े हुए को गुनता हूं तो जैसे आलोक की किरणें यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी दिखाई देती है। इन्तजार करता हूं, सांझ का कि घर की छत पर पहुंच आकाश देखूं। पहले छठ-छमास ही घर की छत पर जाना होता था। पर इधर जब सब ओर बंद का आलम हैं। घर से बाहर, दुनिया के द्वार बंद है तो स्वाभाविक ही है, रोज ही छत पर जाना होता है। आकाश पर नजर जाती है। उसका नीलापन औचक मन का सूनापन जैसे मिटा देता है। निरंजन जो है, वह। विकार रहित। अनादि-अनंत। शाश्वत-सनातन। मन में विचार आते है, इसके  गर्भ से ही गृह नक्षत्रादि बनते और मिटते हैं। पर उनके अस्तित्व का अनुचिन्ह कभी आकाश अपने पास नहीं शेष नहीं रखता।  एकान्त का यह रस निरंजन है। कबीर की याद आती है, ‘एक नाद से राग छत्तीसो, अनहद बानी बोले।’  एकान्त के नाद में ही अनहद वाणी को सुना जा सकता है। अंदर  की पुकार सुनने का यही तो  समय है।
सांझ घिरने लगी है। सूर्य का ताप कम होता जान फिर से छत पर पहुंच जाता हूं। देखता हूँ, दिनभर पृथ्वी के कोने-कोने को भरपूर प्रकाशित करने के बाद थका-हारा सूर्य अब अपने घर लौट रहा है। आकाश में धूप की सफेदी के बाद श्यामली छांव का बसेरा होने लगा है। दूर कहीं पक्षियों की पूरी की पूरी एक टोली दिखती दूर कही विलीन हो गयी है। थोड़ी देर में ही पश्चिम में सिंदूरी होता व्योम अंधेरे की आहट सुनाने लगा। छत पर टहलते पता ही नहीं चला, कब आकाश मे तारों ने दस्तक दे दी। सर्वत्र छाए मौन में बचपन के वह दिन जैसे फिर से लौट आए है जिनमे घर की छत पर सोते असंख्य तारोंको गिनते-गिनते ही नींद आ जाती थी। पर अब कहाँ छत के वह दिन और तारों की वह गिनती और भरपूर नींद!  यही सोच रहा हूँ कि औचक आसमान में चमकते-दककते चांद ने जैसे अपनी और देखने की आवाज दी। तारों की छांव  के मध्य हीरे की अंगूठी की धज सा सुंदर चमकता चांद! आसमान मे छाए अंधेरे में चांद-तारों की रोशनी का चित्रपट और उसे निहारते विचारों का यह प्रवाह। कोरोना में थम से गये समय  की अनुभूति से ही तो उपजा है, मौन का यह मुखर। 
ऐसा पहली ही बार हुआ है, जब सामुहिक चेतना में कोरोना  से निजात पाने हम-सबने एकांत को चुना है।  इसी से हम अपने मनों से, आत्म से भी जुड़े हैं। जीवन के बने-बनाए ढर्रे, शोरोगुल और अधिक से अधिक पाने की उहापोह में अपने से ही गुम होते जाने की होड़ में यह वक्त हमें अपने होने का अहसास कराने वाला है। यह बचपन की यादों को जीवन में वापस लाने के दिन है। कुबेरनाथ राय का लिखा याद आता है, ‘पत्तियों का झरना धरती के सौंदर्य की करूणतम अवस्था है। करूणा में एक उदास सौंदर्य की उपलब्धि एक सर्वसाधारण अनुभव है।’  पर इस बात को भी समझें, करूणा विषाद नहीं है। महर्षि अरविन्द ने  बुद्ध की मूर्ति में उनके नेत्रों और ओष्ठों के भावों की अर्थपूर्ण व्याख्या की है।  उनके अनुसार भारतीय  बुद्ध प्रतिमाओं में करुणा का जो भाव घनीभूत रूप में विद्यमान है वह उनका अपना दुःख नहीं, अन्य सबका दुःख है। जगत के लिए करुणा है। वहां जो उत्कंठा दृष्टिगोचर होती है उसमें दुःख के निस्तार का आध्यात्मिक मार्ग छुपा है। यह सच है, करूणा में आस्था और विश्वास छुपा होता है। अच्छे से अच्छा होने की आस का बोध होता हैै। विषाद मृत्यु का बोध कराने वाला होता है। इसीलिये कहूँ, यह घड़ी विषाद की नहीं है।  हां, यह मानवता पर छाए कोहरे के प्रति करुणा के  दिन हैं। इसे उदासी का वक्त न कहें। आस्था और विश्वास की डोर हमें भविष्य के जीवन के नये सौंदर्यबोध से जोड़ेगी। इसलिए एकान्त के इस वास को आत्म की पुकार समझें।
छत पर टहलते यही सब कुछ मन विचार  रहा है। लगता है, घनीभूत एकान्त की इस वेला में प्रदूषण रहित आकाश में तारों की चमक रोशनी की राह है। 
आखों में नींद घुल रही है। छत की सीढ़ियां उतर रहा हूं। कुबेरनाथ राय का पढ़ा फिर से याद आने लगा,
‘एकान्त जितना पकहा होगा-मन उतना ही श्रीमद्भागवत का पन्ना बनता जाएगा।’
 और इसी के साथ ख़याल आता है, प्रकृति के मौन को सुनने, पक्षियों का कलरव सुनने, चांद की रोशनी  में नहाने और क्षण-क्षण की चेतना, आकाश की चित्रोपमता को अनुभूत करने के लिए कुछ समय के लिए थमना जरूरी है।  एक ही स्थान पर स्थिरता आवश्यक है। विचार करें, यह ऐसा ही समय है। घरों में रहें। समय के विलाप का नहीं अपने-विश्वास, आस्थाओं में जीवन चक्र को अनुभूत करते जीवंतता को कायम रखें। खुद से खुद का संवाद ही इसकी सबसे बड़ी राह है।
गुरू गोरखनाथ का जयघोष है ‘अलख निरंजन’। अलख का अर्थ होता है जगाना। निरंजन माने आकाश। वह अनंत, जहां कुछ भी शेष नहीं रहता। तो आइए, अपने को खाली कर, भीतर के प्रकाश से सम्पन्न होवें। कोरोना के इस प्रकोप में ‘अलख निरंजन’ के नाद के जयघोष में भविष्य के सुनहरेपन को  देखें। अपनी चुनी यांत्रिकता, शोरोगुल और भागमभाग में अपने भीतर न झांक पाने की अज्ञानता से मुक्त हों। यह सांस्कृतिक मनोपचार का दौर है। भले कुछ समय के लिए हम त्रासदी भोग रहे हैं पर खुद से खुद के वार्तालाप का यही वह समय भी है जो लौटकर फिर नहीं आएगा। इसे गुनें और किताबें पढ़ते, अच्छा कुछ सोचते, देखते, प्रकृति और जीवन की उदात्ता पर विचारते भविष्य के सुनहरेपन में इसे बुनें।

--"राष्ट्रदूत" में प्रकाशित अतिथि सम्पादकीय, 8 अप्रैल, 2020