ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, May 9, 2020

‘रामायण’ धारावाहिक की लोकप्रियता के मायने

लोकप्रिय दैनिक 'राष्ट्रदूत' में आज यह अतिथि सम्पादकीय

"...मुझे लगता है, हम-सब में कुछ-कुछ राम बसता है। इसीलिए तो जब कहीं कुछ बुरा होता है, कोई कुछ गलत करता है तो औचक मुंह से निकलता है, ‘राम निसरग्यो!’ माने इसके भीतर का राम चला गया है। ...यह वक्त मनोरंजन शब्द के वास्तविक अर्थों को समझने का भी है। मनोरंजन माने वह जिससे मन रंजित हो। षडयंत्रों, डरावने, अश्लीलता परोसने वाली कथाओं से मन रंजित नहीं होता बल्कि त्रासदियों, अपराधबोध और अंततः अवसाद से ही घिरता है। स्वस्थ मनोरंजन अंतर्मन संवेदनाओं को अर्थ प्रदान करने वाला, भीतर से संपन्न करने वाला होता है। ‘रामायण’ धारावाहिक की लोकप्रियता को क्या इसी अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए! ...दर्शक संवेदना से लबरेज ऐसे धारावाहिक अभी भी अधिक पंसद करते हैं, जिन्हें बगैर किसी घालमेल के बनाया गया हो। जिनमें व्यावसायिक हितों की अपेक्षा मानवीय मूल्य केन्द्र में हो और जिनमें भव्यता के नाम पर दिव्यता को बिसराया नहीं गया हो।...अच्छेपन को हर कोई चाहता है। डरावने, आपराधिक मसलों के नाटकीय रूपान्तरण, नाग-नागिनों, सास-बहुओं आदि के बेसिरपैर की कथाओं के अंतहीन चलने वाले धारावाहिकों के प्रसारक चैनलों ने असल में इधर दर्शकों की रूचियों को मोड़ा नहीं है बल्कि बाजार की ताकतों के चलते उन्हें नशीले पदार्थों के सेवन की मानिंद अपना आदि बनाने का एक तरह से चक्रव्यूह रचा है। ...व्यक्ति एकान्त तो चाहता है परन्तु अकेलापन उसे नहीं भाता। आपा-धापी नहीं हो, कहीं जाने की उतावली नहीं हो और इस बात की फिक्र नहीं हो कि सब भाग रहे हैं, मैं कहीं पीछे नहीं रह जाऊं तभी ठहरकर अपने भीतर झांकने का वक्त मिलता है। अनर्गल कुछ भी सहने से तब वह बचने का भी उपाय तलाशता है। कोरोना में कुछ-कुछ ऐसा ही समय हरेक को मिला है। "...

Monday, May 4, 2020

आंचलिकता का लालित्य

"... इस  समय जो गद्य लिखा जा रहा है, उसमें ‘मेरी चिताणी’ इस मायने में विरल है कि लेखक ने इसमें अपने गांव के बहाने जीवन को व्यापक परिप्रेक्ष्य में गुना है। कहन के सहज, आंचलिक पर दार्शनिक बोध में लिखे का उनका आत्मकथात्मक लालित्य लुभाने वाला है।..."
राजस्थान साहित्य अकादेमी की पत्रिका "मधुमती" में -





Saturday, May 2, 2020

नवनीत, मई 2020 अंक

"...सतीश गुजराल ने चित्रों की अनूठी काव्य भाषा रची। उनके चित्र, मूर्तियों, म्यूरल और इमारतों की सिरजी संरचनाओं में भारतीय कलाओं के सर्वांग को अनुभूत किया जा सकता है।...आकृतिमूलक होते हुए भी सांगीतिक आस्वाद में अर्थ की अनंत संभावनाओं को उनकी कला में तलाशा जा सकता है। एक तरह की किस्सागोई वहां है। उनकी स्वैरकल्पनाएं (फंतासी) भावों का अनूठा ओज लिए सौंदर्यबोध की विरल जीवनदृष्टि है। यह सही है,उनके आरंभिक चित्र गहरा अवसाद लिए विभाजन की त्रासदियों पर आधारित है परन्तु बाद की उनकी कलायात्रा पर जाएंगे तो यह भी पाएंगे आत्मान्वेषण में उन्होंने भारतीय कला दृष्टि को अपने तई चित्र भाषा के नये मुहावरे दिये।..."