लोकप्रिय दैनिक 'राष्ट्रदूत' में आज यह अतिथि सम्पादकीय
"...मुझे लगता है, हम-सब में कुछ-कुछ राम बसता है। इसीलिए तो जब कहीं कुछ बुरा होता है, कोई कुछ गलत करता है तो औचक मुंह से निकलता है, ‘राम निसरग्यो!’ माने इसके भीतर का राम चला गया है। ...यह वक्त मनोरंजन शब्द के वास्तविक अर्थों को समझने का भी है। मनोरंजन माने वह जिससे मन रंजित हो। षडयंत्रों, डरावने, अश्लीलता परोसने वाली कथाओं से मन रंजित नहीं होता बल्कि त्रासदियों, अपराधबोध और अंततः अवसाद से ही घिरता है। स्वस्थ मनोरंजन अंतर्मन संवेदनाओं को अर्थ प्रदान करने वाला, भीतर से संपन्न करने वाला होता है। ‘रामायण’ धारावाहिक की लोकप्रियता को क्या इसी अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए! ...दर्शक संवेदना से लबरेज ऐसे धारावाहिक अभी भी अधिक पंसद करते हैं, जिन्हें बगैर किसी घालमेल के बनाया गया हो। जिनमें व्यावसायिक हितों की अपेक्षा मानवीय मूल्य केन्द्र में हो और जिनमें भव्यता के नाम पर दिव्यता को बिसराया नहीं गया हो।...अच्छेपन को हर कोई चाहता है। डरावने, आपराधिक मसलों के नाटकीय रूपान्तरण, नाग-नागिनों, सास-बहुओं आदि के बेसिरपैर की कथाओं के अंतहीन चलने वाले धारावाहिकों के प्रसारक चैनलों ने असल में इधर दर्शकों की रूचियों को मोड़ा नहीं है बल्कि बाजार की ताकतों के चलते उन्हें नशीले पदार्थों के सेवन की मानिंद अपना आदि बनाने का एक तरह से चक्रव्यूह रचा है। ...व्यक्ति एकान्त तो चाहता है परन्तु अकेलापन उसे नहीं भाता। आपा-धापी नहीं हो, कहीं जाने की उतावली नहीं हो और इस बात की फिक्र नहीं हो कि सब भाग रहे हैं, मैं कहीं पीछे नहीं रह जाऊं तभी ठहरकर अपने भीतर झांकने का वक्त मिलता है। अनर्गल कुछ भी सहने से तब वह बचने का भी उपाय तलाशता है। कोरोना में कुछ-कुछ ऐसा ही समय हरेक को मिला है। "...
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