ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, January 6, 2024

अप्रतीम ‘सुर-बहार’ वादक अश्विन एम. दलवी

 

राजस्थान पत्रिका, 6 जनवरी 2024

सितार माने सप्त तारों का वाद्य। सुनेंगें तो सब ओर से मन आनंदित होगा। बोल निकालने, मींड खींचने और अंगुलियों के संचालन में सितार से बहुत मिलता ही है ‘सुर-बहार’। पंडित रविशंकर ने सितार में माधुर्य रचा परन्तु इसका राज उनकी सुरबहार से जुड़ी समझ है। कहते हैं, उनके सितार में प्राय: सुरबहार के तार चढ़े होते थे। ध्रुवपद अंग में आलाप, जोड़ और झाला का भावपूर्ण माधुर्य सितार की बजाय सुरबहार में अधिक खिलता है। इस समय हमारे देश में इस विरल वाद्य के जो गिने—चुने कलाकार हैं, उनमें अश्विन एम. दलवी प्रमुख है। 

सुरबहार में स्वर—कंपन संग वह माधुर्य की जैसे वृष्टि करते हैं। सुरबहार में उन्होंने नित—नए प्रयोग किए हैं। भारतीय संगीत की शुद्ध मिठास को बरकरार रखते दीर्घ मींड और लहक में वह नृत्य, वादन संग सुरबहार में गान—अंग जैसे जीवंत करते हैं। गहरी संगीत सूझ से ‘सुर बहार’ को   विश्व संगीत से जोड़ते पारम्परिक ध्रुवपद की उनकी बंदिशें मन मोहती है। उनकी सुनी बहुत सुंदर बंदिश हैं 'प्यारी तोरे नैनन मीन कर लीने...'। नैन और मीन की अर्थ व्यंजना में उनकी लूंठी गमक लुभाती है। प्रकृति और जीवन की सुंदर दृष्टि जो वहां है। वह गान अंग में सदा ऐसा ही करते हैं। हर बंदिश में उनकी लहक भी विरल होती है। लहक माने शोभा। मुझे लगता है, तार वाद्यों में शोभा का संधान उन्होंने ही किया है।

सुरबहार में असल में दो पद्धतियां हैं। पहली डागर घराने से संबद्ध और दूसरी है इटावा घराने से संबंधित। डागर पद्धति में सुरबहार में रूद्रवीणा और ध्रुवपद का गांभीर्य मिलेगा। सुरों की पूर्णता के लिए वहां पखावज का प्रयोग होता है। इटावा घराने के सुरबहार में पखावज नहीं लेते। ध्रुवपद की बजाय वहां ख्याल अंग प्रधान है। अश्विन दलवी का सुरबहार माधुर्य का अनुष्ठान है। ऐसा जिसमें मुर्कियां के बगैर भी सुर सधते आनंद की अनुभूति कराते हैं। वह कहते भी हैं, 'मुर्कियां होंगी तो ठुमरी और ख्याल गायकी अग में संगीत का गांर्भीय खत्म हो जाता है।' सुर बहार में इसीलिए उन्होंने लहक को प्रधानता दी। उनका सुरबहार भारतीय लघु चित्रों की मानिंद बंदिश में सुनने वालों को दृश्य की अनुभूति कराता है। यह शायद इसलिए भी है कि गान पर उनका गहरा अधिकार है।

अश्विन दलवी ने 'नाद साधना इंस्टीट्यूट फॉर इंडियन म्यूजिक एंड रिसर्च सेंटर' के जरिए भारतीय शास्त्रीय संगीत को विश्वभर में शोध—अनुसंधान की भी नवीन दृष्टि दी है। इस सेंटर में उन्होंने विलुप्त हो चुके वाद्य यंत्रों को बहुत जतन से सहेजा है।  बेगम अख्तर का सितार उनके इस संग्रह में है तो सुरसागर, सुरसोटा, सुरसिंगार, विचित्र वीणा, नागफनी, रणसिंगा जैसे बहुतेरे लुप्त—वाद्य यंत्र भी है। उनके पास दुलर्भ प्राय: 'मोहन वीणा' भी है।

अप्रतीम सरोद वादक राधिका मोहन मोइत्र ने देश में 1948 में 'मोहन वीणा' का आविष्कार किया था। यह दरअसल सरोद और और सुरबहार का मेल था। बाद में 1949 में आकाशवाणी के तत्कालीन मुख्य निर्माता ठाकुर जयदेव सिंह द्वारा ने इसके माधुर्य में रमते निरंतर इसका प्रसारण करवाया।  राधिका मोहन मोइत्र की 'मोहन वीणा' तब अत्यधिक लोकप्रिय हुई। उनकी यह 'मोहन वीणा' तो दलवी के पास है ही, वाद्य यंत्रों का विरल इतिहास और उससे जुड़े किस्से—कहानियों का भी अनूठा जग उनके पास है।

अश्विन दलवी सुरबहार की संगीत—साधना की धुन में ही थमे नहीं है। इधर उन्होंने राधिका मोहन मोइत्र की परम्परा में बढ़त करते सर्वथा नए वाद्य 'अंश वीणा' का आविष्कार किया है। यह उनकी वह नाद साधना है जिसमें बहुत सारी मीठी धुनों के मेल से उन्होंने इसे सिरजा है। 'अंश वीणा' सुनेंगे तो लगेगा रबाब, सरोद, सितार ओर दिलरूबा के स्वरों के संगम से हम साक्षात् हो रहे हैं।