ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Tuesday, January 18, 2022

यायावरी तीन छंद-कश्मीर से कन्याकुमारी, नर्मदे हर और आँख भर उमंग

राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका 'मधुमती' के जनवरी 2022 अंक में यात्रा वृतान्त 'कश्मीर से कन्याकुमारी', 'नर्मदे हर' और 'आँख भर उमंग' के आलोक में यह शोधपूर्ण आलेख सुधि समालोचक श्री कृष्णबिहारी पाठक ने लिखा है।

....सुखद लगता है, जब आपके लिखे की कूंत होती है...
















Saturday, January 15, 2022

‘देखने’ से बनता कलाओं का संसार

कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा हमारे यहां शिल्प है। शिल्प माने संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तु, चित्र आदि सभी कलाएं। पर विचार करता हूं, इन सभी कलाओं का मूल आधार ‘देखना’ है। राजा रवि वर्मा भोर में उठते। यह वह समय होता जब अंधकार विदा ले रहा होता और भोर का उजाला छा रहा होता था। कहते हैं, रवि वर्मा ने प्रकृति के उन रंगो को ही अपनी कलाकृतियों में सदा के लिए अंवेर लिया। इटली की मूर्तिकार एलिस बोनर ने ज्यूरिख में नृत्य सम्राट उदय शंकर का नृत्य देखा और बस देखती ही रह गयी। उनकी कला में रमते फिर वह भारत आकर यहां की कलाओं में ही रच—बस जाती है।

याद है, जयपुर के रविंद्र मंच पर कुछ वर्ष पहले पणिक्कर नाट्य समारोह हुआ था। पणिक्कर जी ने तब कहा था, ‘मेरे नाटकों को मन से देखें।' उनका कहा तब समझ नहीं आया था पर एक रोज़ उनका ‘कर्णभार’ नाटक देखा तो इसे जैसे गहरे से अनुभूत किया। पणिक्कर जी के साथ ही तब मंच के करीब बैठा हुआ था। घटोत्कच की भूमिका कर रहे अभिनेता ने पहाड़ उठाने का अभिनय किया। घटोत्कच की भार उठाती मुद्राएं देख एकबारगी तो सिहर उठा। अनुभूत हुआ, कहीं किसी चूक से पहाड़ हम पर न गिर जाए! जबकि असल में वहां पहाड़ था ही नहीं बस उसे उठाने का अभिनय भर था। तभी यह समझ आया कि बड़ा सत्य वह नहीं होता जो दिख रहा होता है, वह होता है जो दिखने के बाद मन में घट रहा होता है। सच्ची कलाएं यही कराती है। आपको उस स्थान पर ले जाती है, जहां आप पहले कभी नहीं गए हों। उस अनुभूति से साक्षात् कराती है जो पहले आपने कभी न की हो। मुझे लगता है, कलाएं इसी तरह देखने का अपना समय गढ़ती है।

राजस्थान पत्रिका, 15 जनवरी, 2022

हरेक कला में छंद, गति, विराम और लय का अपना गुणधर्म होता है। कालिदास के ‘मेघदूत’ को पढेंगे तो लगेगा पृथ्वी की विस्तारमयी छटाओं का विरल लोक जैसे उन्होंने सिरजा है। यह उनका उर्ध्व-आकाशीय देखना ही तो है जिसमें गतिमयता के सूक्ष्म बिम्ब उद्घाटित हुए हैं। अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ को याद करें। राजदरबार में वज्रकीर्ति निर्मित वीणा को कोई कलावंत बजा नहीं सका। आखिरकार प्रियंवद आता है और वीणा को गोद में लेकर बैठ जाता है। आंखे मूंद कर वह देखना प्रारम्भ करता है। वृक्ष से वीणा के बनने, वन्य प्राणियों के वहां से गुजरने, सांझ केे तारों की तरल कंपकंपी के स्पर्शहीन झरने आदि के कितने-कितने दृश्य प्रियंवद समाधिस्थ देख लेता है। और फिर जब औचक वीणा से संगीत झरता है तो राजदरबार में बैठा हर सुनने वाला अपनी भावनाओं के अनुरूप उसे मन में देखने लगता है। कलाएं इसी तरह बाहर से व्यक्ति को भीतर से देखने के लिए प्रेरित करती है। बौद्ध दर्शन में यही प्रक्रिया ‘तथता’ है। देखकर ही तो अंतर्मन सच को पाया जा सकता है।

इसीलिए कहता हूं, अनुभूत किए को लिखे गए शब्दों में, उकेरे किसी चित्र में, संगीत के सुरों में यदि मन के किसी दृष्य में उद्घाटित करने की क्षमता नहीं होगी तो वहां कला भी नहीं होगी। चिड़िया गाती है तो उसका कलरव हमें सुहाता है पर यह कला नहीं है। जब अनेक स्वरों में विशेष सांमजस्यपूर्ण ढंग से मन की आंखो से देखते किसी छंद में गूंथ उसे रागिनी में सिरज दिया जाता है, वह कला हो जाएगी। प्रकृति की धुनों को सुनने भर से नहीं, देखने से कला का भव बनता है। स्वाति मुनि ने जलाशय में खिले कमल के पत्तों पर वर्षा की बूंदो के गिरने को देखा। अनुभूत किया कि भिन्न भिन्न प्रकार के बड़े, मध्यम, छोटे पत्तोें पर गिरने वाली वर्षा बूंदों के स्वर गंभीर, मधुर, हृदयस्पर्षी आदि अलग-अलग ध्वनियां में है। उन्होंने इन्हें मन में गुना और मृदंग और अन्य वाद्यों का आविष्कार हो गया। देखे को मन में गुनते ऐसे ही तो सिरजा जाता है, कलाओं का संसार!

Thursday, January 6, 2022

यादों में—कमलेश्वर


आज कमलेश्वर जयंती है। उनका सान्निध्य सदा ही संपन्न करता था। हिन्दी साहित्य के वह हरफनमौला व्यक्तित्व थे। कोई विषय, साहित्य की कोई विधा ऐसी नहीं जो उनके लिखे से अछूती रही हो। बात में बात और कहानी में कहानी। लगातार सिगरेट पीते वह बोलते तो शब्द शब्द ज़हन में उतरते। कहीं कोई शिकवे—शिकायत भी हो तो सुनने वाला भुल जाए। उनसे जीवन जीने के मंत्र भी बहुत मिले। स्नेह इतना पाया कि उसका बेजा इस्तेमाल करते उनसे प्राय: बहस भी कर उलझ भी लेता था। पर वह कभी बुरा नहीं मानते थे  बल्कि उन्होंने दूरदर्शन के लिए लिखने के अवसर भी दिलाए। हां, मिठी झिड़कियां भी तो कहां भूलता हूं! याद है, तब संगीतकारों, गीतकारों, गायक—गायिकाओं से हुए संवाद आधारित किस्सों से जुड़ा अपना साप्ताहिक कॉलम 'सरगम' लिख रहा था। राजस्थान पत्रिका में हर शनिवार पांच—छह साल लगातार इसे लिखा था। पर प्रकाशित कॉलम में पूरा नाम नहीं जाकर केवल '—राजेश' लिखा होता था। कमलेश्वर जी ने एक बार ऐसे लिखे साप्ताहिक कॉलम जब देखे तो उन्हें वह बहुत पंसद आए। त्वरित उन्होंने प्रश्न किया? 'कॉलम' में तुम अपना पूरा नाम क्यों नहीं देते हो? कुछ कहता इससे पहले ही जैसे उन्होंने मन के भीतर झांक लिया था।  डांटते हुए जैसे सीख दी,  'यार, तुम हिन्दी लेखक फिल्मों से अवैध रिश्ता तो रखना चाहते हो, वैध रिश्ता रखने में डरते हो। यह क्या बात हुई! जब लिखते हो तो पूरा नाम जाना चाहिए।' उनके कहे को तभी गांठ बांध लिया और बाद में जो भी​ फिल्मों पर लिखा पूरे नाम से ही लिखा। 

कमलेश्वर के साथ लेखक

बहरहाल, उनके सान्निध्य को पहले पहल राजस्थानी में एक संस्मरण में अंवेरा था। वह तब राजस्थानी भाषा की पत्रिका 'जागती जोत' में प्रकाशित हुआ। इसे जब उन्हें भेजा तो उन्हें बहुत पंसद आया। त्वरित इस पर पत्र लिख उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया दी। राजस्थानी भाषा पर उनका लिखा यह पत्र आज ऐतिहासिक धरोहर रूप में मेरे पास संग्रहित है। इसे आप सबसे यहां पहले भी साझा किया था, आज फिर प्रसंगवश कर रहा हूं। उन्होंने लिखा था, 'हिन्दी भाषा नहीं, भाषा मंडल है और इसे राजस्थानी, ब्रज, सौरसेनी ने अपने रक्त से सींचा है...।'

जब पढ़ाई पूरी कर नौकरी की तलाश में था, बाकायदा उन्होंने अपने साथ एक पत्र में फीचर संपादक बतौर कार्य करने के लिए भी बुलाया था। पर जब पता चला कि लोकसेवा आयोग की लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका हूं, उन्होंने खुद ही धैर्य रखने और सरकारी सेवा में ही जाने की सीख दी थी। पर सरकारी सेवा में आने के बाद जब लिखना—पढ़ना छूट गया और आंतरिक घुटन महसूस हुई तो उसे छोड़ने का मन बना लिया। उन्हें पता चला तो तुरंत उनका मार्मिक पत्र मिला। उनका वह पत्र अभी भी संभाल कर रखा है। शब्द शब्द स्मृति में बसा। उन्होंने लिखा, 'राजेश, तुम नौकरी को जिओ। मैंने अपने दुर्दिनों में ब्रुकबॉण्ड कंपनी में रातपाली की चौकीदारी की है और रात के सन्नाटे में कूत्तों के सान्निध्य में सोया हूं। पर तब भी जो काम किया, मन से उसे जिया। रचना इसी से जन्म लेती है, एक वैध संतान के रूप में। अब यह तुम्हे तय करना है कि तुम वैध संतान चाहते हो कि अवैध संतान चाहते हो?' उनके इस पत्र ने इस कदर प्रेरणा दी दी कि नौकरी को फिर मन से जीने लगा। बल्कि कहूं आज आज भी जी रहा हूं। उसे जीते ही अवकाश के समय में लिखना—पढ़ना होता है। सुकून देता हुआ।



बहरहाल, उन्हें जब पहला कविता संग्रह 'झरने लगते हैं शब्द' भेजा तो उन्होंने इस पर भी बहुत सुंदर टिप्पणी लिखकर भेजी। लिखा कि तुम्हारी फलां, फलां कविताएं बहुत ही उम्दा है—नई जमीन लिए। लिखो—लिखो और इस दारूण समय को जिओ!...पर साथ में झिड़का भी था, 'भूमिका में दिए बड़े वक्तव्यों से बचो! तुम अभी इस काबिल नहीं हुए हो कि रचना की धारा को बदल सको। रचना विनम्रता की बड़ी शर्त है।'

बहरहाल, उनसे ही यह भी सीख भी मिली कि किसी भी माध्यम के लिए लेखक के लिए कोई भी विषय परहेज लिए नहीं होना चाहिए।  मौलिकता लिखे में होगी तो हर विषय में आपका अपना अंदाज दिखेगा ही!  बहुत सारी बातें, बहुत सी यादें उनके सान्निध्य की, पत्रों की है। 

...यह सच है, साहित्य में वह सर्वथा जुदा, विरल व्यक्तित्व थे। अथाह प्यार देने वाले। वह सच में बड़े थे। संवेदना से लबरेज। अपनत्व भरे। ...उन्हें ऐसे ही याद करते यह सब आप मित्रों के लिए लिख गया हूं। जयंती पर नमन!

Tuesday, January 4, 2022

यात्रा वृतान्त "आंख भर उमंग" की समीक्षा

आज दैनिक नवज्योति में सुधि आलोचक प्रो. अखिलेश कुमार शंखधर जी ने लिखी है यात्रा वृतान्त "आंख भर उमंग" की यह समीक्षा। आभार!

दैनिक नवज्योति, 4 जनवरी, 2022



विशाल शब्दकोश, समृद्ध संस्कृति के बावजूद मान्यता न मिलने का अभिशाप

राजस्थानी में विशाल शब्दकोश है, समृद्ध संस्कृति है फिर भी संवैधानिक रूप में यह भाषा अभी भी न बोल पाने का अभिशाप झेल रही है। इस अभिशप्त समय में पिछले दिनों जब राजस्थानी भाषा के ऑनलाइन शब्दकोश का लोकार्पण हुआ तो लगा, अपने आप में कोई अभूतपूर्व, अलौकिक घटा है।भाषा के भविष्य को कुछ हद तक आश्वस्त करता हुआ। अभूतपूर्व शब्द यहां इसलिए प्रयोग कर रहा हूं कि देश की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ी यह ऐसी भाषा के ऑनलाइन शब्दों की वैश्विक सहज उपलब्धता है, जिसमें नौंवी शताब्दी में ही लिखा साहित्य उपलब्ध होता आ रहा है।

यह महज संयोग नहीं है कि अप्रतीम भाषाविद् महामंडित राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. भगवतशरण उपाध्याय जैसे मनीषियों ने सीताराम लालस निर्मित राजस्थानी शब्दकोष का पहला भाग जब देखा तो सहज ही राजस्थानी को विरल भाषा की संज्ञा देते हुए इसमें हुए शब्दकोष के कार्य को ऐतिहासिक बताया था। इससे पहले ही गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने राजस्थानी साहित्य को पढ़कर प्रतिक्रिया यह दी थी कि राजस्थान ने अपने रक्त से जो राजस्थानी साहित्य निर्मित किया है उसकी जोड़ का साहित्य और किसी भाषा में नहीं मिलता। प्रारम्भिक काल में राजस्थानी राजस्थान ही नहीं बल्कि उसके आसपास के बहुत बड़े भूखंड की भाषा रही है। गुजराती भाषा के मर्मज्ञ एवं विद्वान स्वर्गीय झवेरचंद मेघाणी ने इसे स्वीकारते लिखा है कि मेड़ता की मीरां राजस्थानी में पदों की रचना करती और गाया करती थी। इन पदों को सौराष्ट्र की सीमा तक के मनुष्य गाते हुए अपना मानते रहे हैं। ग्रियर्सन ने के भाषा सर्वेक्षण को बांचेंगे तब यह और भी स्पष्ट हो जाएगा कि उन्होंने आजादी से पहले ही इस भाषा को बड़े भूभाग में बोली जाने वाली समृद्ध भाषा से अभिहित किया था।

राष्ट्रदूत, 4 जनवरी 2022


जो लोग यह कहते हैं, कि राजस्थानी कौनसी? उनको इस बात को समझने ही जरूरत है कि हिन्दी और तमाम दूसरी भाषाओं को अपनी बोलियों से ही भाषा का दर्जा मिला है। जिस भाषा में जितनी अधिक बोलियां, वह उतनी ही अधिक समृद्ध। बोलियां किसी पेड़ की वह टहनियां हैं जिनसे कोई वृक्ष हरा—भरा लहलहाता हुआ अपने होने की संपूर्णता जताता है। राजस्थानी ऐसा ही वृक्ष है जिसके विभिन्न अंचलों में बोली जानी वाली बोलियां उसकी हरी—भरी टहनियां हैं। ऐसे सभी लोग जो राजस्थानी की मान्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं, उन्हें राजस्थानी के ऑनलाइन शब्दकोश को जरूर ही देखना चाहिए। इसमें राजस्थानी शब्द हैं, भाषा का विवेचन है और हां, राजस्थानी व्याकरण भी है। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि जोधपुर महाराजा गजसिंह, डॉ. लक्ष्मणसिंह, जगतसिंह राठौड़, महेन्द्रसिंह तंवर, सुरेन्द्र सिंह लखावत, मनोज और स्नेहा मिश्र की बाकायदा एक प्रबंधन समिति बनाकर राजस्थानी शब्दकोश परियोजना पर संयुक्त रूप से कार्य करने की पहल हुई है। राजस्थानी के ऑनलाइन शब्दकोश के साथ ही इसका मोबाइल एप भी लांच किया गया है। ढाई लाख से अधिक शब्दों को संजोए राजस्थानी  शब्दकोश  में जो शब्द हैं वह तो है ही, और भी नए शब्द जोड़ने के लिए भी राजस्थानी भाषाविद-समिति गठित की गयी है। राजस्थानी भाषा के आधिकारिक विद्वानों की इस समिति में राजस्थानी भाषा की विभिन्न बोलियों के प्रतिनिधि है। राजस्थानी के शब्दों एवं शब्दार्थों को प्रमाणित करने की मानक संस्था की तरह यह सब इस तरह से कार्य करेंगे कि राजस्थानी भाषा भविष्य में भी और अधिक फले—फुले। सभी जानते हैं, अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में हर वर्ष विश्व भर की भाषाओं के नए शब्द जोड़ते हैं और इसी से अंग्रेजी आज विश्व भाषाओं में तेजी से सिरमौर हो रही है। राजस्थानी भाषा की शब्दावली के इस प्रयास को इसी कड़ी में देखा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होना चाहए।

बहरहाल,कुछ दिन पहले ही कुबेरनाथ राय को पढ़ रहा था। उन्होंने बहुत सुंदर व्यंजना की है कि भाषा का अर्थ ही होता है सिंटेक्स के साथ संस्कृति। कोई भी भाषा 'व्याकरण' और 'शब्दावली' दोनों से ही बनती है। व्याकरण ढांचा देता है परन्तु आकृति—प्रकृति शब्द बनाते हैं। शब्दों के पीछे संस्कार परम्परा है, और यह संस्कार परम्परा ही अभिव्यक्ति को 'व्यक्तित्व' या विशिष्टता प्रदान करती है। शब्द ऋषि सीताराम लालस द्वारा तैयार वृहदाकार राजस्थानी—हिन्दी शब्दकोश को देखकर सहज कोई भी यह कह सकता है कि विश्व भर की किसी भी भाषा से यह कमतर नहीं है।

किसी भाषा के ढाई लाख शब्दों के लाखों—करोड़ों पर्यायवाची होने और उसके नौंवी शताब्दी के समय से अस्तित्व होने के बावजूद यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि आज भी यह राज—काज की भाषा नहीं बन पाई है। मैं यह मानता हूं कि राजस्थानी भाषा नहीं जीवंत संस्कृति है। ऐसी संस्कृति जिसमें हिन्दुस्तान की जड़ें जुड़ी हुई है। सीताराम लालस द्वारा तैयार राजस्थानी शब्दकोश पहली बार 1962 में प्रकाशित हुआ। बाद में 2013 में यह पुन: प्रकाशित हुआ। असल में सीताराम लालस राजस्थानी भाषा के युगपुरुष शब्द ऋषि हैं। ऐसे जिन्होंने चार दशकों की अनथक साधना से ढाई लाख से अधिक शब्दों का विरल 'राजस्थानी शब्दकोश' ही तैयार नहीं किया बल्कि 'राजस्थानी हिन्दी वृहद कोष' का भी निर्माण किया। उनका तैयार राजस्थानी शब्दकोश राजस्थानी भाषा के शब्दों का सौंदर्य उजास तो है ही, इसमें राजस्थानी भाषा से जुड़ा अनूठा भाव—भव भी है। बकौल सीताराम लालस इससे पहले डिंगल में रचे गये  माला कोश, अनेकार्थी कोश तथा एकाक्षरी कोश अल्प संख्या में उपलब्ध रहे हैं परन्तु साहित्य के अध्ययन में उनकी उपादेयता नहीं पाते हुए उन्होंने राजस्थानी शब्दकोश तैयार किया। यह बहुत दुरूह कार्य था।  इसके लिए बाकायदा उन्होंने पुराने हस्तलिखित ग्रंथों, पुस्तकों को अपने तई संजोया। समस्या यह भी थी कि राजस्थानी शब्दों के शुद्ध रूपों का पूरा निर्वहन उन ग्रंथों में भी कहीं था नहीं। बहुतेरे राजस्थानी ग्रंथ अपूर्ण अवस्था में भी थे। शब्द वर्तनी के दृष्टिकोण से भी उपलब्ध पुस्तकों का सम्पादन  इतना दोषपूर्ण था कि उनसे शब्द-चयन अपने आप में कठिनतम कार्य था। पर सीताराम जी ने उपलब्ध सभी प्रकार की राजस्थानी पुस्तकों को एकत्र कर स्वयं पढ़ा और शब्दों को अपने स्तर पर एकरूपता रखते तैयार किया। इस कार्य के लिए वह स्वयं सुदूर गाँवों में घूम-घूम कर उन्होंने विभिन्न जातियों, कारीगरों, कलाकारों, कहारों, जुलाहों, गाड़ीवानों, महाजनों, महावतों आदि से उनके द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाले शब्दों को एकत्रित करने का लूंठा कार्य किया। असल मे यह उनकी वह साधना थी जिसमें किसी भाषा के बिखरे रूपों को सहेज कर एक करने का चुनौतीपूर्ण जतन था। यही नहीं, उन्होंने राजस्थानी में इतिहास, भूगोल, गणित, दर्शन शास्त्र, खगोल शास्त्र, वास्तु विद्या,राजनीति, युद्ध, अर्थशास्त्र, काम विज्ञान, धर्म शास्त्र, नीति शास्त्र आदि से संबंधित शब्दों को भी ढूंढ ढूंढ कर सहेजा। इसमें मूल एवं मुख्य शब्द के साथ बहुतेरे पर्यायवाची शब्द भी हैं। उन्होंने एकत्र शब्दों की लाखों स्लिप तैयार की। कोई 300 राजस्थानी पुस्तकों से उन्होंने शब्द इकट्ठे किये। प्रकाशित पुस्तकों को एक बार पढ़ कर लिए जाने वाले शब्दों को रेखांकित किया और फिर उनका अर्थ मिलान भी लेखकों से सम्पर्क कर किया। पांच हजार के लगभग फुटकर राजस्थानी डिंगल गीतों से भी शब्द जुटाए। राजस्थानी शब्दार्थ के साथ-साथ व्यापक जन—मानस  में प्रयुक्त मुहावरों और कहावतों को भी एकत्र कर उन्हें कोष में स्थान दिया। उनके जुनून को इसी से समझा जा सकता है कि प्रेस में पृष्ठों के छापे जाने के समय तक वह राजस्थानी के नवीनतम मिले शब्दों को अंकित करने का प्रयास करते रहे थे।

बहरहाल, पिछले दिनों दो विरल घटनाएं राजस्थानी भाषा के लिए हुई। पहली महत्वपूर्ण ऑनलाइन शब्दकोश  का लोकार्पण और दूसरी प्रभा खेतान फाउंडेशन द्वारा 'आखर' के जरिए जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में राजस्थानी लेखक युवा सम्मेलन का आयोजन। यह ऐसा आयोजन था जिसमें ठंड के बावजूद राजस्थान भर के लेखकों ने भाग लिया। इतनी बड़ी संख्या में लेखक—लेखिकाओं की सहभागिता के साथ राजस्थानी की विविध विधाओं में लिखे जा रहे साहित्य को देख सहज यह कहा जा सकता है कि राज की मान्यता नहीं मिलने के बावजूद राजस्थानी में निरंतर स्तरीय लिखा जा रहा है। कोई भाषा निरंतरता के लिखे में ही जीवंत होती जन—मन में रचती—बसती है। इसे समझते इस भाषा को मान्यता मिलनी ही चाहिए। मान्यता का अर्थ है, राजस्थानी में जो बोला जाएगा, उसे संवैधानिक स्तर पर दर्ज किया जाएगा। भाषा पाठ्यपुस्तकों का माध्यम बनेगी और इसकी समृद्ध शब्द संपदा हम वृहद स्तर पर अंवेर सकेंगे।

अभी तो स्थिति यह है कि लोकतांत्रिक हमारे राष्ट्र के सर्वोच्च सदन विधानसभा और लोकसभा में कोई जनप्रतिनिधि चाहे भी तो अपनी मातृभाषा में अपनी बात नहीं रख सकता है। विशाल शब्दकोश है, समृद्ध संस्कृति है पर न बोल पाने का इससे बड़ा कोई अभिशाप और क्या होगा!