कमलेश्वर के साथ लेखक |
जब पढ़ाई पूरी कर नौकरी की तलाश में था, बाकायदा उन्होंने अपने साथ एक पत्र में फीचर संपादक बतौर कार्य करने के लिए भी बुलाया था। पर जब पता चला कि लोकसेवा आयोग की लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका हूं, उन्होंने खुद ही धैर्य रखने और सरकारी सेवा में ही जाने की सीख दी थी। पर सरकारी सेवा में आने के बाद जब लिखना—पढ़ना छूट गया और आंतरिक घुटन महसूस हुई तो उसे छोड़ने का मन बना लिया। उन्हें पता चला तो तुरंत उनका मार्मिक पत्र मिला। उनका वह पत्र अभी भी संभाल कर रखा है। शब्द शब्द स्मृति में बसा। उन्होंने लिखा, 'राजेश, तुम नौकरी को जिओ। मैंने अपने दुर्दिनों में ब्रुकबॉण्ड कंपनी में रातपाली की चौकीदारी की है और रात के सन्नाटे में कूत्तों के सान्निध्य में सोया हूं। पर तब भी जो काम किया, मन से उसे जिया। रचना इसी से जन्म लेती है, एक वैध संतान के रूप में। अब यह तुम्हे तय करना है कि तुम वैध संतान चाहते हो कि अवैध संतान चाहते हो?' उनके इस पत्र ने इस कदर प्रेरणा दी दी कि नौकरी को फिर मन से जीने लगा। बल्कि कहूं आज आज भी जी रहा हूं। उसे जीते ही अवकाश के समय में लिखना—पढ़ना होता है। सुकून देता हुआ।
बहरहाल, उन्हें जब पहला कविता संग्रह 'झरने लगते हैं शब्द' भेजा तो उन्होंने इस पर भी बहुत सुंदर टिप्पणी लिखकर भेजी। लिखा कि तुम्हारी फलां, फलां कविताएं बहुत ही उम्दा है—नई जमीन लिए। लिखो—लिखो और इस दारूण समय को जिओ!...पर साथ में झिड़का भी था, 'भूमिका में दिए बड़े वक्तव्यों से बचो! तुम अभी इस काबिल नहीं हुए हो कि रचना की धारा को बदल सको। रचना विनम्रता की बड़ी शर्त है।'
बहरहाल, उनसे ही यह भी सीख भी मिली कि किसी भी माध्यम के लिए लेखक के लिए कोई भी विषय परहेज लिए नहीं होना चाहिए। मौलिकता लिखे में होगी तो हर विषय में आपका अपना अंदाज दिखेगा ही! बहुत सारी बातें, बहुत सी यादें उनके सान्निध्य की, पत्रों की है।
...यह सच है, साहित्य में वह सर्वथा जुदा, विरल व्यक्तित्व थे। अथाह प्यार देने वाले। वह सच में बड़े थे। संवेदना से लबरेज। अपनत्व भरे। ...उन्हें ऐसे ही याद करते यह सब आप मित्रों के लिए लिख गया हूं। जयंती पर नमन!
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