ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Thursday, January 6, 2022

यादों में—कमलेश्वर


आज कमलेश्वर जयंती है। उनका सान्निध्य सदा ही संपन्न करता था। हिन्दी साहित्य के वह हरफनमौला व्यक्तित्व थे। कोई विषय, साहित्य की कोई विधा ऐसी नहीं जो उनके लिखे से अछूती रही हो। बात में बात और कहानी में कहानी। लगातार सिगरेट पीते वह बोलते तो शब्द शब्द ज़हन में उतरते। कहीं कोई शिकवे—शिकायत भी हो तो सुनने वाला भुल जाए। उनसे जीवन जीने के मंत्र भी बहुत मिले। स्नेह इतना पाया कि उसका बेजा इस्तेमाल करते उनसे प्राय: बहस भी कर उलझ भी लेता था। पर वह कभी बुरा नहीं मानते थे  बल्कि उन्होंने दूरदर्शन के लिए लिखने के अवसर भी दिलाए। हां, मिठी झिड़कियां भी तो कहां भूलता हूं! याद है, तब संगीतकारों, गीतकारों, गायक—गायिकाओं से हुए संवाद आधारित किस्सों से जुड़ा अपना साप्ताहिक कॉलम 'सरगम' लिख रहा था। राजस्थान पत्रिका में हर शनिवार पांच—छह साल लगातार इसे लिखा था। पर प्रकाशित कॉलम में पूरा नाम नहीं जाकर केवल '—राजेश' लिखा होता था। कमलेश्वर जी ने एक बार ऐसे लिखे साप्ताहिक कॉलम जब देखे तो उन्हें वह बहुत पंसद आए। त्वरित उन्होंने प्रश्न किया? 'कॉलम' में तुम अपना पूरा नाम क्यों नहीं देते हो? कुछ कहता इससे पहले ही जैसे उन्होंने मन के भीतर झांक लिया था।  डांटते हुए जैसे सीख दी,  'यार, तुम हिन्दी लेखक फिल्मों से अवैध रिश्ता तो रखना चाहते हो, वैध रिश्ता रखने में डरते हो। यह क्या बात हुई! जब लिखते हो तो पूरा नाम जाना चाहिए।' उनके कहे को तभी गांठ बांध लिया और बाद में जो भी​ फिल्मों पर लिखा पूरे नाम से ही लिखा। 

कमलेश्वर के साथ लेखक

बहरहाल, उनके सान्निध्य को पहले पहल राजस्थानी में एक संस्मरण में अंवेरा था। वह तब राजस्थानी भाषा की पत्रिका 'जागती जोत' में प्रकाशित हुआ। इसे जब उन्हें भेजा तो उन्हें बहुत पंसद आया। त्वरित इस पर पत्र लिख उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया दी। राजस्थानी भाषा पर उनका लिखा यह पत्र आज ऐतिहासिक धरोहर रूप में मेरे पास संग्रहित है। इसे आप सबसे यहां पहले भी साझा किया था, आज फिर प्रसंगवश कर रहा हूं। उन्होंने लिखा था, 'हिन्दी भाषा नहीं, भाषा मंडल है और इसे राजस्थानी, ब्रज, सौरसेनी ने अपने रक्त से सींचा है...।'

जब पढ़ाई पूरी कर नौकरी की तलाश में था, बाकायदा उन्होंने अपने साथ एक पत्र में फीचर संपादक बतौर कार्य करने के लिए भी बुलाया था। पर जब पता चला कि लोकसेवा आयोग की लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका हूं, उन्होंने खुद ही धैर्य रखने और सरकारी सेवा में ही जाने की सीख दी थी। पर सरकारी सेवा में आने के बाद जब लिखना—पढ़ना छूट गया और आंतरिक घुटन महसूस हुई तो उसे छोड़ने का मन बना लिया। उन्हें पता चला तो तुरंत उनका मार्मिक पत्र मिला। उनका वह पत्र अभी भी संभाल कर रखा है। शब्द शब्द स्मृति में बसा। उन्होंने लिखा, 'राजेश, तुम नौकरी को जिओ। मैंने अपने दुर्दिनों में ब्रुकबॉण्ड कंपनी में रातपाली की चौकीदारी की है और रात के सन्नाटे में कूत्तों के सान्निध्य में सोया हूं। पर तब भी जो काम किया, मन से उसे जिया। रचना इसी से जन्म लेती है, एक वैध संतान के रूप में। अब यह तुम्हे तय करना है कि तुम वैध संतान चाहते हो कि अवैध संतान चाहते हो?' उनके इस पत्र ने इस कदर प्रेरणा दी दी कि नौकरी को फिर मन से जीने लगा। बल्कि कहूं आज आज भी जी रहा हूं। उसे जीते ही अवकाश के समय में लिखना—पढ़ना होता है। सुकून देता हुआ।



बहरहाल, उन्हें जब पहला कविता संग्रह 'झरने लगते हैं शब्द' भेजा तो उन्होंने इस पर भी बहुत सुंदर टिप्पणी लिखकर भेजी। लिखा कि तुम्हारी फलां, फलां कविताएं बहुत ही उम्दा है—नई जमीन लिए। लिखो—लिखो और इस दारूण समय को जिओ!...पर साथ में झिड़का भी था, 'भूमिका में दिए बड़े वक्तव्यों से बचो! तुम अभी इस काबिल नहीं हुए हो कि रचना की धारा को बदल सको। रचना विनम्रता की बड़ी शर्त है।'

बहरहाल, उनसे ही यह भी सीख भी मिली कि किसी भी माध्यम के लिए लेखक के लिए कोई भी विषय परहेज लिए नहीं होना चाहिए।  मौलिकता लिखे में होगी तो हर विषय में आपका अपना अंदाज दिखेगा ही!  बहुत सारी बातें, बहुत सी यादें उनके सान्निध्य की, पत्रों की है। 

...यह सच है, साहित्य में वह सर्वथा जुदा, विरल व्यक्तित्व थे। अथाह प्यार देने वाले। वह सच में बड़े थे। संवेदना से लबरेज। अपनत्व भरे। ...उन्हें ऐसे ही याद करते यह सब आप मित्रों के लिए लिख गया हूं। जयंती पर नमन!

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