ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Tuesday, March 28, 2023

भरतनाट्यम की नवीन दृष्टि


राजस्थान पत्रिका, 25 मार्च 2023
भरत मुनि के नाट्य शास्त्र को पढ़ेंगे तो पाएंगे नाटक संगीत और नृत्य के बगैर अपना पूर्ण रूप ग्रहण  नहीं करता है। अभिनव गुप्त ने नाट्यशास्त्र की जो व्याख्या की है, उसमें नृत्य को ' शोभा' कहा गया है। माने नाट्य का सौंदर्य नृत्य में है। यों शास्त्रीय नृत्य हमारे यहां बहुतेरे हैं परन्तु जिन ज्ञात शास्त्रीय नृत्यों की व्याख्या हमारे यहां उपलब्ध हैं, उनमें  भरतनाट्यम प्रमुख है। भरतनाट्यम का मूल है—भावम्, रागम् और तालम्। माने भ से भाव, र से राग, त से लयबद्ध ताल और नाट्यम का अर्थ है, नृत्य।  नंदिकेश्वर के लिखे अभिनय दर्पण में इस नृत्य से जुड़ी मुद्राओं, अंग संचालन, हाव—भावों के संबंध में बहुत सुंदर व्याख्या है। तमिलनाडु के मंदिरों में देवदासियों द्वारा विकसित इस नृत्य का एक दौर वह भी आया जब यह मूल रूप से लुप्त प्राय: हो रहा था तब ई. कृष्ण अय्यर और रुक्मिणि देवी अरुंडेल के प्रयासों से यह फिर से अपने नए रूप में वि​कसित हुआ।

इधर इस नृत्य को नए प्रयोगों के साथ जो कलाकार आगे बढ़ा रहे हैं उनमें संध्या पुरेचा का नाम प्रमुख है।  रीतिबद्ध मुद्राओं, लयबद्ध गति के साथ ही नृत्य में ताल का विरल ढंग से निर्वहन करती संध्या के नृत्य को देखते रुक्मिणी देवी खास तौर से याद आती हैं। जिस तरह से अरुंडेल ने इस नृत्य में परम्परा से चले आ रहे श्रृंगार के प्रभुत्व को तोड़कर भक्ति भावों के आलोक में इसे जीवंत किया और नृत्य के शिक्षाशास्त्र से इसे जोड़ा ठीक उसी प्रकार संध्या पुरेचा ने दूसरे शास्त्रीय नृत्यों का इसमें समावेश कर अपने तई एक नई नृत्य भंगिमा 'अक्षत नायिका' के जरिए प्रयोगधर्मिता में इसे पुर्ननवा किया है। रुक्मिणी देवी अरुंडेल ने जिस तरह से रामायण की ‘भरतनाट्यम श्रृंखला’ के जरिए सुदूर देशों तक भारतीय संस्कृति का प्रसार किया ठीक वैसे ही संध्या पुरेचा ने सनातन धर्म की तीन प्रमुख शैव, वैष्णव और शाक्त धाराओं के मेल में भरनाट्यम को सर्वथा नवीन दृष्टि प्रदान की है। जयदेव कृत अष्टनायिका की उनकी प्रस्तुति हो या फिर शिव के तांडव, श्रृंगार और  रोद्र रूप से जुड़े भावों की व्यंजना, वह नृत्य में मनोहारी दृश्यों का जैसे अनुष्ठान करती है।  प्रस्तुति के लालित्य संग भंगिमाओं के प्राणवंत छंद में वह भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों को भी जैसे अपने में समाहित करती हममें बसती है।

याद है, खजुराहो नृत्य समारोह में उनकी राग और ताल मालिका से सजी अर्धनारीश्वर, उमा महेश्वर स्त्रोत 'रूपम देहि, जयं देहि'का आस्वाद किया था। भगवान विष्णु के द्वारिकाधीश और विट्ठल स्वरूप को नृत्त भावों में उन्होंने जैसे हूबहू साकार ​किया थ। दुर्गा शप्तशती के अर्गला स्त्रोत में शक्ति उपासना की उनकी प्रस्तुति, ऐसे ही आठ नायिकाओं का नृत्य रूपान्तरण कभी न भुलाने वाला है। वह नृत्य करती है तो अंग—प्रत्यंग भी तरंगित हो उठता है। अंगो के लयपूर्ण छंद! भाव—भंगिमाओं का विरल विन्यास। वाद्यों के साथ लय में स्पन्दित उनके हाथ, पैर और पूरा शरीर। नृत्य नहीं गति का एक तरह से आख्यान। नृत्य क्या है? गति—स्थिति का सामंजस्य ही तो!

बिरजू महाराज ने कभी संवाद में कहा था, हम नृत्य थोड़े ना करते हैं। हम तो हवा में चित्र बनाते हैं जो बनते हैं और मिटते रहते हैं। ठीक ऐसे ही संध्या पुरेचा अपने नृत्य में भावों का विरल अंगहार सिरजती भांत—भांत की भंगिमाओं के चित्र जैसे आंखों में बसाती है।

संध्या पुरेचा भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की भी मर्मज्ञ विदुषी हैं। राजस्थान ललित कला अकादेमी के पूर्व अध्यक्ष और देश के ख्यातनाम सुरबहार वादक अश्विनी दलवी ने एक दफा कलाओं के अंत:संबंधों पर जयपुर में महती विमर्श की पहल की थी। तभी उनसे नाट्यशास्त्र, अभिनय दर्पण के आलोक में ढेर सारी बातें हुई थी। बाद में भोपाल में उनके साथ एक जूरी में नृत्य की शास्त्रीय और लोक परम्पराओं के साथ कला संस्थाओं की भूमिका पर संवाद हुआ था। सुखद है इस समय वह संगीत नाटक अकादेमी की अध्यक्ष की भूमिका में हैं। उम्मीद करते हैं, उनके कार्यकाल में संगीत, नृत्य और नाट्य के साथ ही कलाओं पर विमर्श से नई राहों का सूत्रपात होगा।

Saturday, March 11, 2023

इब्राहिम अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कार्नाड के रंग-अवदान पर विमर्श

पत्रिका, 11 मार्च 2023
भरतमुनि ने नाट्य को अपने स्वरूप से ही दृश्य कला माना है। ऐसी दृश्य कला जिसमें दूसरी सभी कलाओं का समावेश है। नाट्यशास्त्र में नाटक को ’सर्वशिल्प-प्रवर्तकम्’ कहा गया हैं। गौर करें, हमारे यहां कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा भी शिल्प है। आज जिस सीमित अर्थ में ’शिल्प’ शब्द को लिया जाता है, वह नहीं बल्कि संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तु, चित्र आदि तमाम कलाएं तब शिल्प कही गयी है। एक महती बात यह भी है कि नाट्यशास्त्र में नाट्य कला को दूसरी कलाओं की साधना मानते हुए भी  स्वतंत्र कला कहा गया है।  शायद इसलिए कि इसमें प्रयोग की अनंत संभावनाएं हैं।

यह विडम्बना ही तो है कि प्रयोग की इस अनंत संभावना पक्ष में जिन्होंने परंपरा से चले आ रहे रंगकर्म  जड़त्व को तोड़ते नया कुछ किया है, उनके बारे में ढंग से कहीं कुछ विमर्श ही नहीं है। इस दृष्टि से संगीत नाटक अकादेमी की पत्रिका ’सगना’ का नवीन अंक संग्रहणीय है। इसमें इब्राहिम अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कार्नाड की मौलिक रंग-स्थापनाओं और चिंतन के आलोक में उनके व्यक्तित्व के अनछूए पहलू उभरकर सामने आए हैं। ' संगना' के इस अंक में देवेन्द्रराज अंकुर, जयदेव तनेजा, कमलाकर सोनटक्के, सुधा शिवपुरी, दलगोविंद रथ, गोविंद नामदेव, रानू मुखर्जी, शरद दत्त आदि के आलेखों, संस्मरणों में भारतीय रंगकर्म से जुड़ी शास्त्रीय और लोक परम्पराओं के अंतर्गत अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कर्नाड के नाट्यकर्म की अनायास ही विरल विवेचना सामने आई है। सुशील जैन और तेजस्वरूप त्रिवेदी ने संपादन  के अंतर्गत बगैर किसी वैयक्तिक आग्रह के  इन तीनों ही जनों के व्यक्तित्व संदर्भ में उनके कला अवदान की विश्लेषणात्मक सामग्री जतन कर जुटाई है।
अंक में इब्राहिम अल्काजी की रंगदृष्टि, मौलिक कल्पनाशीलता से जुड़ी यादें हैं और ढेर सारी वह बातें है जिनसे पता चलता है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को विश्व का प्रमुख संस्थान बनाने का किस कदर जुनून उनमें समाया हुआ था। थिएटर की जीवंता के संदर्भ में उनका यह कहा हुआ भी यहां मथता है कि ' लंबे समय से स्थापित परंपराओं पर सवाल खड़े करना चाहिए,...हमे ंउन सामान्य सत्यों के खिलाफ खड़े होना चाहिए जो बहुत समय पहले ही अनुत्पादक और बंजर हो चुके हैं।' इसी तरह इब्राहिम अल्काजी ने एक स्थान पर अभिनय के ’प्रशिक्षण' या ’अनुशासन’ की बजाय अपने द्वारा ’नर्सिंग’ शब्द के उपयोग का खुलासा किया है, जिसमें माली की तरह शिक्षक नाजुक और सुकुमार पौधे के विकास में प्रवृत्त होता है।

नाट्य निर्देशक, अभिनेता श्रीराम लागू ने कभी जब ईश्वर को रिटायर कर देने की बात कही थी तो उनका बहुत विरोध हुआ था। उनके प्रगतिशील रंगकर्म अवदान के संदर्भ में  ’संगना’ के इस अंक में उनके इसी विचार की बढत है। इसके साथ ही उनका वह रंगकर्म चिंतन भी यहां है जिसमें अभिनेता को तत्वचिंतक और दार्शनिक होने पर जोर दिया गया है।  एक आलेख में शरीर के लचीलेपन में अभिनय की संभावनाओं पर भी उनकी महती दृष्टि उभर कर सामने आई है।

हम सभी जानते हैं कि गिरीश कर्नाड ने पुरा और लोक कथाओं के आशयों में ’ययाति’, ’हयवदन’, ’नागमंडल’, तुगलक’ जैसी महती नाट्यकृतियां हमें दी है। अंक में उनके नाट्य चिंतन की यह बात भी विमर्श के लिए उकसाती है कि नाट्य में किस्सागोई, प्रतीकों के जरिए नए रूपक रचने और अर्थ की उत्पति से जुड़ी प्रयोधर्मिता जरूरी है। कर्नाड द्वारा प्रकाश पुंजो से कहानी की बढ़त और नाटक में अर्थ की उत्पति के संदर्भ में उनके रंगकर्म पर अंक में महती जानकारियां, उनका साक्षात्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर दिया वक्तव्य उनके विचारों से हमारी निकटता कराता है।

बहरहाल, अव्वल तो कलाओं पर स्तरीय पत्रिकाएं ही नहीं है और जो हैं, वह  इस कदर सामान्य जानकारियां भरी होती है कि उनसे किसी मौलिक स्थापना की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इस दृष्टि से ’संगना’ का यह अंक अपने आप में खास है। इसलिए भी कि यहां इब्राहिम अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कर्नाड के विचार-उजास से पाठक रू-ब-रू होते हैं।