भरतमुनि ने नाट्य को अपने स्वरूप से ही दृश्य कला माना है। ऐसी दृश्य कला जिसमें दूसरी सभी कलाओं का समावेश है। नाट्यशास्त्र में नाटक को ’सर्वशिल्प-प्रवर्तकम्’ कहा गया हैं। गौर करें, हमारे यहां कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा भी शिल्प है। आज जिस सीमित अर्थ में ’शिल्प’ शब्द को लिया जाता है, वह नहीं बल्कि संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तु, चित्र आदि तमाम कलाएं तब शिल्प कही गयी है। एक महती बात यह भी है कि नाट्यशास्त्र में नाट्य कला को दूसरी कलाओं की साधना मानते हुए भी स्वतंत्र कला कहा गया है। शायद इसलिए कि इसमें प्रयोग की अनंत संभावनाएं हैं।पत्रिका, 11 मार्च 2023
यह विडम्बना ही तो है कि प्रयोग की इस अनंत संभावना पक्ष में जिन्होंने परंपरा से चले आ रहे रंगकर्म जड़त्व को तोड़ते नया कुछ किया है, उनके बारे में ढंग से कहीं कुछ विमर्श ही नहीं है। इस दृष्टि से संगीत नाटक अकादेमी की पत्रिका ’सगना’ का नवीन अंक संग्रहणीय है। इसमें इब्राहिम अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कार्नाड की मौलिक रंग-स्थापनाओं और चिंतन के आलोक में उनके व्यक्तित्व के अनछूए पहलू उभरकर सामने आए हैं। ' संगना' के इस अंक में देवेन्द्रराज अंकुर, जयदेव तनेजा, कमलाकर सोनटक्के, सुधा शिवपुरी, दलगोविंद रथ, गोविंद नामदेव, रानू मुखर्जी, शरद दत्त आदि के आलेखों, संस्मरणों में भारतीय रंगकर्म से जुड़ी शास्त्रीय और लोक परम्पराओं के अंतर्गत अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कर्नाड के नाट्यकर्म की अनायास ही विरल विवेचना सामने आई है। सुशील जैन और तेजस्वरूप त्रिवेदी ने संपादन के अंतर्गत बगैर किसी वैयक्तिक आग्रह के इन तीनों ही जनों के व्यक्तित्व संदर्भ में उनके कला अवदान की विश्लेषणात्मक सामग्री जतन कर जुटाई है।
अंक में इब्राहिम अल्काजी की रंगदृष्टि, मौलिक कल्पनाशीलता से जुड़ी यादें हैं और ढेर सारी वह बातें है जिनसे पता चलता है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को विश्व का प्रमुख संस्थान बनाने का किस कदर जुनून उनमें समाया हुआ था। थिएटर की जीवंता के संदर्भ में उनका यह कहा हुआ भी यहां मथता है कि ' लंबे समय से स्थापित परंपराओं पर सवाल खड़े करना चाहिए,...हमे ंउन सामान्य सत्यों के खिलाफ खड़े होना चाहिए जो बहुत समय पहले ही अनुत्पादक और बंजर हो चुके हैं।' इसी तरह इब्राहिम अल्काजी ने एक स्थान पर अभिनय के ’प्रशिक्षण' या ’अनुशासन’ की बजाय अपने द्वारा ’नर्सिंग’ शब्द के उपयोग का खुलासा किया है, जिसमें माली की तरह शिक्षक नाजुक और सुकुमार पौधे के विकास में प्रवृत्त होता है।
नाट्य निर्देशक, अभिनेता श्रीराम लागू ने कभी जब ईश्वर को रिटायर कर देने की बात कही थी तो उनका बहुत विरोध हुआ था। उनके प्रगतिशील रंगकर्म अवदान के संदर्भ में ’संगना’ के इस अंक में उनके इसी विचार की बढत है। इसके साथ ही उनका वह रंगकर्म चिंतन भी यहां है जिसमें अभिनेता को तत्वचिंतक और दार्शनिक होने पर जोर दिया गया है। एक आलेख में शरीर के लचीलेपन में अभिनय की संभावनाओं पर भी उनकी महती दृष्टि उभर कर सामने आई है।
हम सभी जानते हैं कि गिरीश कर्नाड ने पुरा और लोक कथाओं के आशयों में ’ययाति’, ’हयवदन’, ’नागमंडल’, तुगलक’ जैसी महती नाट्यकृतियां हमें दी है। अंक में उनके नाट्य चिंतन की यह बात भी विमर्श के लिए उकसाती है कि नाट्य में किस्सागोई, प्रतीकों के जरिए नए रूपक रचने और अर्थ की उत्पति से जुड़ी प्रयोधर्मिता जरूरी है। कर्नाड द्वारा प्रकाश पुंजो से कहानी की बढ़त और नाटक में अर्थ की उत्पति के संदर्भ में उनके रंगकर्म पर अंक में महती जानकारियां, उनका साक्षात्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर दिया वक्तव्य उनके विचारों से हमारी निकटता कराता है।
बहरहाल, अव्वल तो कलाओं पर स्तरीय पत्रिकाएं ही नहीं है और जो हैं, वह इस कदर सामान्य जानकारियां भरी होती है कि उनसे किसी मौलिक स्थापना की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इस दृष्टि से ’संगना’ का यह अंक अपने आप में खास है। इसलिए भी कि यहां इब्राहिम अल्काजी, श्रीराम लागू और गिरीश कर्नाड के विचार-उजास से पाठक रू-ब-रू होते हैं।
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