ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, December 30, 2019

वर्ष 2019 की उल्लेखीय, पठनीय पुस्तकों का संसार

हिन्दी साहित्य में यह दौर स्थापनाओं का है। एक ओर सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के इस समय में मुद्रित शब्द के अतीत होते चले जाने का हर ओर बोलबाला है तो दूसरी ओर पुस्तकें बहुतायत से छप रही है, बिक रही है और ‘लिटरेचर फेस्टिवल्स’, ‘साहित्य आज तक’ जैसे आयोजनोें से पुस्तक-लेखक को प्रचारित करने का भी एक नया ट्रेंड बाजार में चल निकला है। पर विडम्बना यह भी है कि कुछेक प्रकाषन समूहों, लेखकों की बिरादरी ही इनमें नजर आती है या फिर इस बिरादरी ने जिन्हें स्थापित करने की ठानी है, वही हर तरफ प्रमुखतया से प्रचारित किए जा रहे हैं। पुस्तकें भी ऐसे-ऐसे शीर्षकों और सज्जा से प्रकाषित करने की होड़ मच रही है, जिससे पाठक उसे खरीदे ही खरीदे-यह देखने के लिए कि आखिर उनमें है क्या? हिन्दी अंग्रेजी भाषा में भी जैसे कोई भेद नही ंरह गया है। साहित्य के नाम पर रहस्य, रोमांच के साथ ही भूत-प्रेत गाथाओं से संबद्ध प्रकाषनों की भी बाजार में जैसे बाढ़ आ गयी है।
वर्ष 2019 साहित्य की दृष्टि से इस रूप में महत्वपूर्ण रहा कि अज्ञेय द्वारा संपादित ‘चैथा सप्तक’ के कवि, नाटककार, आलोचक राजस्थान के नंदकिषोर आचार्य को हिन्दी का केन्द्रीय साहित्य अकादेमी सम्मान उनकी काव्य कृति ‘छिलते हुए अपने को’ पर मिला तो राजस्थानी का यह सम्मान ख्यात कथाकार रामस्वरूप किसान को उनकी कथाकृति ‘बारीक बात’ के लिए मिला। हिन्दी के लिए राजस्थान के किसी लेखक को पहली बार साहित्य अकादमी का सम्मान मिला है। पुस्तको के प्रकाषन की दृष्टि से देखें तो यह साल उम्मीदें जगाने वाला रहा। सालभर पुस्तकों के प्रकाषन का दौर चलता रहा। बहुतेरी प्रकाशित पुस्तकेां में हिमांषु वाजपेयी का  उपन्यास ‘किस्सा-किस्सा लखनउवा’, प्रभात रंजन का ‘पालतू बोहेमियान: मनोहरष्याम जोषी की एक याद’, राजेन्द्र मोहन भटनागर का उपन्यास ‘अथ पद्मावती’, उदय प्रकाष का कविता संग्रंह ‘अम्बर में अबाबील’, कृष्ण कल्पित का ‘हिन्दनामा’ खूब चर्चित रहीं।
बहरहाल, पुस्तकों के बड़ी संख्या में प्रकाषन को देखते हुए सहज यह कहा जा सकता है कि पुस्तकों के पाठक हैं और भविष्य में भी रहेंगेे।  प्रकाषित कथाकृतियों में  ईषमधु तलवार की ‘रिनाला खुर्द’ विभाजन की त्रासदी को बंया करता दो देषो के भाषायी, भावनात्मक संसार की अनूठी कथा व्यंजना है। सूर्यबाला की औपन्यासिक कृति ‘कौन देस को वासी: वेणु की डायरी’ कृति आधुनिक समय संवेदना का एक तरह से लालित्य भरा कथा कोलाज है। सूर्यबाला के पास अनूठी किस्सागोई है और भाषा का लालित्य भी। मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘मल्लिका’ भारतेन्दु हरिष्चन्द्र और उनकी प्रेमिका के अकथ प्रेम की व्यंजना है। पढ़ते भारतेन्दु हरिष्चन्द्र के युग से ही पाठक साक्षात् नहीं होते बल्कि शब्दों की उस दृष्य लय से भी औचक साक्षात् होते हैं जिसमें घटनाएं, समय और परिवेष जीवंत होता सदा के लिए हममें बस जाता है। इसी तरह जितेन्द्र सोनी की कथाकृति ‘एडियोस-ढाई आखर की ढाई कहानियां’ ढाई अक्षरों में व्यंजित प्रेम का अनहद नाद सुनाती पात्रों की मर्मान्तक मजबूरियों के क्षणों का सुंदर कथा संयोजन कथाकार जितेन्द्र सोनी ने किया है। बेहद सामान्य सी लगने वाली स्थिति-परिस्थितियों से प्रारंभ कर कहानियों को बड़ा और मार्मिक अर्थ कथाकार ने दिया है। राजस्थानी कहानी की गौरवमयी परम्परा के साथ ही आधुनिक दृष्टि और बदले परिवेष का षिल्प समृद्ध संसार लिए डाॅ. नीरज दईया द्वारा संपादित ‘एकसौ एक राजस्थानी कहानियां’ इस मायने में महत्वपूर्ण रही है कि इसमें राजस्थानी कहानी की परम्परा और वर्तमान के विविध पक्षों की गहराई है। भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही कहानी की भी एक तरह से यह विरल दीठ है।
वर्ष 2019 में कविता की भी बहुत सारी पुस्तकें प्रकाषित हुई परन्तु उनमें राकेश रेणु की काव्य कृति ‘इसी से बचा जीवन’ प्रेम, प्रकृति और जीवन को कविता के चालू मुहावरे की बजाय वैचारिक सघनता में अनुभव की आंच पर पकी है। कवि मायामृग की ‘मुझसे मिठा तू है’ काव्यकृति में कविता बोलती नहीं बल्कि दिखती हुई हममें बसती है। कवि के पास कहन की अनूठी संवेदना है तो पेड़, धरती और आसमान को देखने की उदात्त दृष्टि भी है। राकेष मिश्र के कविता संग्रह ‘जिन्दगी एक कण है’ में विचार, भाव और रूप का अनूठा साहचर्य है। आंतरिक अन्वेषण में उनकी कविताएं ‘याद की बारिष’ से सराबोर करती है तो भ्रम बीजों से उपजी खुषियों की फसल की अनुभूतियां से भी साक्षात् कराती है।
कथेतर गद्य में वर्ष 2019 में रामबक्ष जाट की आत्मकथात्मक, संस्मरण कृति ‘मेरी चित्ताणी’ गद्य का अनूठा उजास लिए है। इसमें अपने गांव के बहाने लेखक ने लोक संस्कृति, आधुनिकता में साहित्य और साहित्य से इतर जीवन का सांगोपांग कथात्मक चित्र उकेरा है। सत्यनारायण की ‘सब कुछ जीवन’ कृति रिपोर्ताज, रेखाचित्र रूप में हिन्दी गद्य की बढ़त हैं। लेखिका, संपादक उमा की कृति ‘किस्सागोई’ मे जीवनीपरक है परन्तु इसमें लेखकों के चरित्र के अपनापे को अनूठी कथा शैली में गुना और बुना गया है। यात्रा संस्मरण की महत्ती कृतियांे में असगर वजाहत की ‘स्वर्ग में पांच दिन’ हंगरी के इतिहास का वातायन ही नहीं है बल्कि जीवन और स्थानों की यात्रा से जुड़े संस्मरणों की उज्ज्वल शब्द दृष्टि भी है। प्रताप सहगल का यात्रा संस्मरण ‘देखा-समझा देस-बिदेस’ इस मायने मंे विषिष्ट है कि इसमें कहानी का अनूठा गद्य है तो डायरी की निजता भी है, निबंध का लालित्य है तो स्थान और परिवेष को देखने और समझने-समझाने की आलोचना दीठ भी है। डाॅ. गोपबंधु मिश्र का पेरिस प्रवास का यात्रावृतान्त ‘पारावार के पार’ मूल संस्कृत से हिन्दी मे अनुदित है पर इसमें पेरिस की सभ्यता और संस्कृति की सुंदर दार्षनिक व्याकरणिक व्याख्या करते भारतीय और पष्चिमी समय संवेदना के गहरे मर्म भी उद्घाटित हुए हैं।
इस वर्ष आयी गद्य की कुछ अन्य महत्वपूर्ण कृतियों में चार साल की ही उम्र में ही पोलियो से ग्रस्त होने के बावजूद कठिनाइयों से जूझते समाज में अपना एक विषिष्ट स्थान बनाने की कहानी कहती ललित कुमार कीे संस्मरणात्मक जीवन गाथा ‘विटामिन जिन्दगी’ चुनौतियों को अवसर में बदलने का जैसे प्रभावी सूत्र है। प्रयाग शुक्ल की ‘स्वामीनाथन: एक जीवनी’ बंधे-बंधाए ढर्रे से पृथक कलाकार स्वामीनाथन के साथ की यात्राओं, उनके कला प्रष्नों, कलाकृतियों और सृजन सरोकारों को सहेजते सिनेमा की मानिंद शब्दों का दृष्य रूपान्तरण सरीखी है। विजय वर्मा की व्यंग्यकृति ‘राग पद्मश्री’ सरकारी तंत्र, समाज और साहित्य-संस्कृति से जुड़ी जीवनानुभूतियों की से सूक्ष्म दीठ है। इस वर्ष शरद सिंह द्वारा संपादित ‘थर्ड जेंडर विमर्ष’ को तीसरे लिंग से जुड़ी वर्जनाओं, धार्मिक सामाजिक और भय से जुड़ी मानसिकता के चिंतन की महत्ती कृति कहा जा सकता है तो लेखिका सुजाता की ‘स्त्री निर्मिती’ स्त्रीवाद का जैसे आईना है। डाॅ. श्रीलाल मोहता और ब्रजरतन जोषी सपादित ‘संगीत: संस्कृति की प्रकृति’ इस मायने में इस वर्ष की विरल कृति कही जा सकती है कि इसमें भारतीय कलाओं के आलोक में संस्कृति से जीवंत संवाद में डाॅ. छगन मोहत्ता की महत्ती स्थापनाएं हैं।
-राजस्थान पत्रिका ‘हम लोग’ में प्रकाशित

29-12-2019

Monday, November 11, 2019

स्वर-सिद्ध कण्ठों के ध्रुवपद गान का बिछोह


स्मृति शेष : रमाकांत गुंदेचा



गुंदेचा बंधु रमाकांत गुंदेचा का बिछोह धु्रवपद की जड़़ होती परम्परा को बचाने के जतन में जलाए किसी दीए के बूझने सरीखा है। बरसों से धु्रवपद में गाये जा रहे पदों की एकसरसता को तोड़ते उन्होंने उसकी रागदारी में बढ़त की। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सूर, कबीर, तुलसी, पद्माकर के साथ ही आधुनिक कविताओं को धु्रवपद में उन्होंने पिरोया तो स्वयं भी बहुत से पद रचे। धु्रवपद के प्रचलित पदों के साथ ही सबद गाए, रवीन्द्र संगीत को धु्रवपद से जोड़ा और बहुतेरे वाद्य यंत्रों के साथ भी जुगलबंदी की।  मुझे लगता है, धु्रवपद गायकी को लोकप्रिय करते उन्होंने अपने तई संगीत में भाव दृष्यों का मधुर भव रचा।
कहते है, धु्रवपद में साथ में आवाज लगाने की परम्परा नहीं रही है। पर उमाकांत-रमाकांत गुंदेचा बंधुओ की गायिकी को सुनते यह मिथक जैसे टूटता हुआ सा लगता है। धु्रवपद में अल्लाबंदे खांन और जकीरूद्दीन खां की जुगलबंदी की भी बात होती है पर यह 1920-21 की बात है। पर, गौर करेंगे तो पाएंगे वहां दो आवाजें जरूर है पर वह साथ नहीं लगती थी। इस दीठ से उमाकांत-रमाकांत गुंदेचा बंधुओ ने जुगलबंदी में एक साथ स्वर मिलाते धु्रवपद के डागर घराने को अपने तई समृद्ध ही नहीं एक तरह से सपन्न किया। धु्रवपद के मूल को बरकरार रखते हुए भी उन्होंने चारूकेषी, षिवरंजनी, हंसध्वनि, सरस्वति और मारवा जैसे कम प्रचलित बल्कि कहें धु्रवपद में आमतौर पर नहीं गाये जाने वाले रागों में बढ़त की। उनके गायन का अति दु्रप भी लुभाता हैै। इसलिए नहीं कि वहां तेज गमक है, बल्कि इसलिए कि उसमें सुनने के अपूर्व रस की अनुभूति होती है। धु्रवपद में आलाप के जड़त्व को तोड़ते उसमें रोचकता का समावेष रमाकांत गुंदेचा ने किया।
धु्रवपद भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनमोल विरासत है परन्तु यह विडम्बना ही है कि इसमें घरानों की परम्परा में किसी तरह का प्रयोग नही ंके बराबर हुआ हैं परन्तु मुझे लगता है, रमाकांत-उमाकांत गुंदेचा ने इस धारणा को बदलते हुए ध्रुवपद की मूल संरचना मे बगैर किसी प्रकार का बदलाव किए निरंतर प्रयोग किए हैं। कर्नाटक संगीतकारों के साथ गायन की बात हो या फिर कथक में गान की उनकी संगत-धु्रवपद उनसे ही आम जन में सहज संप्रेषित हुआ है। अरसा पहले, प्रख्यात कथक नृत्यांगना चन्द्रलेखा के कथक प्रयोग में गति की मंथरता में मनोंभावों की विरल व्यंजना को अनुभूत किया था। सोचकर अचरज होता है, रमाकांत-उमाकांत गुंदेचा ने चन्द्रलेखाजी के नृत्य के उस मंथर में भी धु्रवपद की अद्भुत संगत की। माने जो ‘नहीं होता’ उसके होने को धु्रवपद में किसी ने संभव किया है तो वह गुंदेचा बंधुओ की जोड़ी है।
धु्रवपद में लयकारी और ताल पक्ष पर विषेष ध्यान देते उन्होंने परिपाटी की तरह परम्परा के प्रयोग की धारणा को भी एक तरह से बदला। रमाकांत गुंदेचा ने एक दफा कहा था, ‘कबीर ने सरल भाषा का इस्तेमाल किया था लेकिन उनके विचार पक्ष की गहनता फिर भी बरकार रही।’ मुझे लगता है, धु्रवपद में उन्होंने भी यही किया। उसे सरल, सहज, ग्राह्य बनाते हुए भी उन्होंने उसकी शास्त्रीय गंभीरता को तिरोहित नही होने दिया। कहना चाहिए, स्वर के प्रति धु्रवपद की जो संवेदनषीलता है, उसकी तमाम संभावनाओं को तुलसी, कबीर, निराला, पद्माकर और दूसरे आधुनिक कवियों के लिखे पदों में उन्होंने तराषा।  वह कहते भी थे, ‘स्वर को उसकी शुद्धि के साथ प्रस्तुत करने में धु्रवपद गायिकी में जो अवकाष है, वह दूसरी किसी भी गायिकी में नहीं।’ उन्हें सुनते लगता भी है कि इसका भरपूर इस्तेमाल उन्होंने अपनी गायिकी मंे किया भी। राग मालकौष में गाया उनका ‘षंकर गिरिजापति’ तो जितनी बार सुनेंगे, मन करेगा सुनें, सुनते ही रहें। ऐसे ही राग अडना में षिव की महिमा का उनका सस्वर ‘षंकर आदिदेव...’ सुनेंगे तो मन करेगा उन्हंे गुनें-गुनते ही रहें। राग चारूकेषी में कबीर के पद ‘झीनी झीनी-बीनी चदरिया’ या फिर राग जैजैवंती में ‘एक समय राधिका’, राग भिमपलासी में ‘नमो अंजनी नंदनम्’ या फिर राग भूपाली का उनका आलाप-सुनतें मन अवर्णनीय आनंद रस की ही तो अनुभूति करता हैै।
यह सही है, दो गायकों की जुगलबंदी में किसी एक की आवाज की परख आसान नहीं है परन्तु ध्यान से सुनंेगे तो अनुभूत होगा गुंदेचा बंधु का गान दो आवाजें हैं परन्तु दोनों नितान्त अलग-अनूठी हैं। रमाकांत गुंदेचा की वैयक्तिकता भी वहां अलग से अपने ओज में नजर आती है। यह भी कि आमतौर पर धु्रवपद की जुगलबंदी में एक ने कुछ गा दिया तो दूसरा उसी को नहीं करता। पहले उसे सुनता है फिर स्वरों में अपना सिद्ध गाता है परन्तु रमाकांत गुंदेचा ने धु्रवपद में संग गाते बोल-तान में जुगलबंदी का अनूठा रस-उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी गायकी धु्रवपद का नाद-ब्रह्म ही तो है!
ऐसे दौर में जब धु्रवपद क्या, दूसरे शास्त्रीय संगीत को सुनने श्रोता नहीं मिलते, धु्रवपद के गुणगान की बजाय उसे सुनने के लिए प्रेरित करने का कार्य रमाकांत गुंदेचा ने अपने भाई उमाकांत के साथ मिलकर किया। धु्रवपद की बरसों से चली आ रही गान परम्परा में श्रव्यता पर ध्यान देते उन्होंने उन रूढ़ियों को तोड़ा जिनके कारण धु्रवपद किन्हीं खास श्रोताओं की ही पसंद बना हुआ था। प्रस्तुति उन्मुख उनकी गायकी इसलिए ही पंसद की जाती है कि वहां पर शास्त्रीयता के घोर गरिष्ठ का आतंक नहीं है। धु्रवपद की विरासत को सहेजते, उसे पुनर्नवा करते रमाकांत गुंदेचा ने अपने भाई उमाकांत गुंदेचा के साथ धु्रवपद में अपने को सांस से ही नहीं चिन्तन और मनन से भी निरंतर साधा। रमाकांत गुंदेचा का असामयिक निधन धु्रवपद की विरल जुगलबंदी का सदा के लिए बिछोह है।
-राजस्थान पत्रिका, 11 नवम्बर, 2019 

Tuesday, September 10, 2019

राजस्थान पत्रिका, रविवारीय में "नर्मदे हर’"

राजस्थान पत्रिका, दिनांक 8 सितम्बर 2019  रविवारीय में - यात्रा वृतान्त ‘नर्मदे हर’ पर दीपक मंजुल की यह समीक्षा।

"डाॅ. राजेश कुमार व्यास की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘नर्मदे हर’ सुंदर, समृद्ध यात्राओं का चमकीला-महकीला एक जीवंत दस्तावेज है। इस यात्रा वृतान्त में स्थानों और प्रकृति के सौंदर्य को शब्द-शब्द सहेजा गया है। ...यह लेखक के आँखों देखे का ऐसा जीवंत विवरण और चित्रण है कि पढ़कर ही लगता है, हमने भी उनके संग यात्रा कर ली है। ...एक सुंदर और अच्छे यात्रा वृत्तांत में उस स्थल का इतिहास, भूगोल और साहित्य, संस्कृति, कला के रूप में एक पूरा जीवन धड़कना चाहिए। लेखक डाॅ. राजेश कुमार व्यास के ‘नर्मदे हर’ यात्रा वृतान्त में ऐसा ही हुआ है।"

बनास जन" अंक 32 में यात्रा वृतान्त ‘नर्मदे हर’

"बनास जन" अंक 32 में यात्रा वृतान्त ‘नर्मदे हर’ पर समालोचक डाॅ दुगाप्रसाद अग्रवाल जी ने अपनी समीक्षात्मक दीठ दी है। 

"...इन यात्रा वृतान्तों में जिस बात पर सबसे पहले ध्यान जाता है वह यह है कि वे जहाॅं भी जाते हैं उस स्थान को पूरी तरह आत्मसात कर लेते हैं और फिर वे जो लिखते हैं वह उस स्थान का मात्र पर्यटकीय वर्णन नहीं होकर उस स्थान से उनके भीतर उत्पन्न होने वाली काव्यात्मक और कुछ कुछ आध्यात्मिक अनुभूतियों की सरस अभिव्यक्ति होती है। बल्कि सच तो यह है वे पर्यटक वर्णन से भरसक बचने का प्रयत्न करते हैं। ...असल में यात्रा वृतान्त विधा में यह किताब इस मामले में अनूठी है कि यहां स्थान विशेष के पूरे माहौल जो अकथनीय मौजूद होता है उसे पहचानने, पकडने और अभिव्यक्त करने का अनूठा प्रयास है।...राजेश व्यास ने अपने गद्य को भी एक भिन्न सांचे में ढाला है, और उनके गद्य का अनूठापन उनके वृतान्तों को और अधिक आकर्षक बनाता है।..."