ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, April 22, 2023

माधव-मास का संस्कृति पर्व

आस्था और विश्वास में ही जीवन सदा उत्सवधर्मी बना रहता है। भारतीय काल-गणना पर गौर करेंगे तो पाएंगे लौकिक उत्सवों में ही वह पूरी तरह से गुंथी हुई है। 

चैत्र से वर्ष प्रारम्भ होता है और दूसरा माह वैशाख ही है। हर मास का अपना गान है। चैत्र का स्वागत ’चैती’ गाकर होता है।  वैशाख में 'घांटो’ का गान होता है। ठीक वैसे ही जैसे फागुन में ’फाग’, सावन में ’मल्हार’, भादों में ’कजली’ आदि। 

राजस्थान पत्रिका, 22 अप्रैल 2023
वैशाख  शब्द 27 नक्षत्रों में से 16 वें विशाखा से आया है। इसका एक अर्थ राधा भी है। इसीलिए वैष्णवों के लिए यह ’राधा-मास’ है। श्रीमद्भागवत में यह ’माधव-मास’ है। वैशाख शुक्ल तृतीया इस माह का अनूठा संस्कृति पर्व है। लोक में यह आखातीज है। अक्षय यानी कभी कहीं जिसकी क्षय नहीं हो। तीन प्रमुख अवतार नर-नारायण, परशुराम और हयग्रीव इसी दिन हुए। बद्रीनाथ के कपाट इसी दिन खुलते हैं तो वृन्दावन में श्री बिहारी जी के चरणों के दर्शन वर्ष में एक बार इसी दिन होते हैं। किसी भी कार्य को करने का अनपूछा मुहूर्त है यह। अबूझ तिथि। शुभ! कोई भी कार्य प्रारम्भ करें, किसी से कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं। मंगलकारी दिन। इसीलिए सर्वाधिक विवाह इसी दिन होते हैं। खगोलीय रूप में गौर करेंगे तो पाएंगे विशाखा नक्षत्र विवाह समारोहों में प्रयुक्त होने वाले पत्तियों के तोरण के आकार का है। वर-वधु को पहनाई जाने वाली मालानुमा भी। 

अक्षय तृतीया कलाओं से जुड़ा दान पर्व भी तो है! अलंकृत घड़े, सुंदर सुराहियां, मिट्टी के बने और भी बर्तन, कलात्मक पंखियां दही, अन्न-धन आदि इस दिन बहन-बेटियों को देने का रिवाज है। अक्षयतृतीया पर लक्ष्मी सहित नारायण की पूजा होती है। वाणी जब सुसंस्कृत होती है, तब उसे सरस्वती का स्वरूप मिलता है पर शब्दों को फटक-फटक कर भाषा का जब निर्माण हुआ तो लक्ष्मी ने ही वाणी को निधि समर्पित की। वाणी, निधि सभी प्रतीक हैं। मंगलकामना, आध्यात्मिकता और पर्व रसिकता संग नवजीवन और पोषण देते प्रायः सभी उत्सवों में हम प्रतीकों का ही तो वरण करते हैं। 

अक्षय-तृतीया पतंग उत्सव भी है। बीकानेर में चिलचिलाती धूप, लू में भी घरों की छतें इस दिन आबाद होती है। पतंगे उड़ती है। स्थानीय भाषा में इन्हें किन्ना कहते हैं। वैशाख शुक्ल बीज, 1545, शनिवार के दिन बीकानेर शहर की स्थापना हुई थी। स्थापना की उमंग में बीकानेर में उत्सव मनाया गया। घरों में खीचड़ा बना। घी भर इसे लोगों ने खाया और जीभर पिया इमली का शर्बत। असल में आखातीज पर बीकानेर के संस्थापक राव बीका ने खुशी का इजहार करते, आसमान में उड़ते मन के प्रतीक रूप में चंदा यानी बड़ी पतंग उड़ायी। बस तभी से परम्परा हो गयी। पूरे विश्व में शायद बीकानेर एक मात्र जगह है जहां तपते तावड़े में छत पर चढ़कर लोग पतंगे उड़ाते हैं। कागज पर कोरे चित्र, आकृतियों से सजी कलात्मक पतंगे। इन्हें उड़ाना भी अपने आप में कला है। आसमान में गोते खाती पतंगों के उड़ाके तगड़े लड़ाके होते हैं। दूसरे की पतंग काटने में मजबूत डोर नहीं बल्कि पेच लड़ाने की कला प्रमुख होती है। ऐसी जिसमें कलाबाजियों खिलाते पतंग को अनायास ढील या औचक कसते हुए काटने के गुर निहित होेते हैं। 

वैशाख में शिवलिंग के ऊपर जल-पात्र बांधने की भी परम्परा है। समुद्रमंथन में निकले भयंकर कालकूट विष को शिव ने कंठ में धारण किया था।  वैशाख में जब अत्यधिक गर्मी पड़ती है, इस विष से राहत देने के लिए शिवलिंग पर ’गलंतिका’ बांधी जाती हैं। गलंतिका माने जल पिलाने का करवा या बर्तन। मटकी में जल ठंडा रहता है, इसलिए प्रायः इसे ही बांधा जाता है। बूंद-बूंद  जल इससे शिव को स्वयमेव अर्पित होता रहता है। इस रूप में शिव आराधना से भी जुड़ा है यह मास। मुझे लगता है-सत्यम्, शिवं और सुंदरम् की अनुभूति का आलोक पर्व ही है-वेशाख मास और इसमें आने वाली अक्षय तृतीया! 

Saturday, April 8, 2023

नाद सौंदर्य के स्वर—सिद्ध गायक-पंडित कुमार गंधर्व

आज 8 अप्रैल 2023 से पंडित कुमार गंधर्व की जन्मशती शुरू हो रही हैं। मुम्बई में कुमार गंधर्व प्रतिष्ठान, देवास और नेशनल सेंटर्स फॉर परफोर्मिंग आर्ट्स द्वारा इसकी शुरूआत दो दिवसीय संगीत महोत्सव से आज सांझ ही हो रही है। शास्त्रीय संगीत के वह क्रांतिकारी गायक थे। किसी घराने विशेष से अपनी पहचान बनाकर उन्होंने अपनी स्वतंत्र शैली, विचारउजास की दृश्य गायकी ईजाद की। परम्परागत रूढ़ियां तोड़ते सदा उन्होंने संगीत में नया रचा।

राजस्थान पत्रिका, 8 अप्रैल 2023

मुझे लगता है, नाद सौंदर्य के भी वह विरल अन्वेषक थे। ऐसे जिन्होंने गान में शब्दों को जीते हुए अर्थ छटाओं की गगनघटा लहराई। सुनेंगे तो लगेगा वह स्वरों को फेंकते, उन्हें बिखराते, औचक ऊँचा करते, विराम देते और फिर अंतराल के मौन को भी जैसे व्याख्यायित करते थे। मिलनविरह और भांतभांत की जीवनानुभूतियों में उनका गायन सुना ही नहीं देखा जा सकता है। कबीर के निर्गुण को जो शास्त्रीय ओज उन्होंने दिया, किसी और के कहां बस की बात है! 'उड़ जाएगा हंस अकेला...,' मेंगुरु  की करनी गुरु  जायेगा, चेले की करनी चेला...’ स्वरनिभाव पर ही गौर करें, लगेगा जीवन का मर्म जैसे हमें कोई समझा रहा है। ऐसे ही 'अवधूता, गगन घटा गहराई रे...' और 'हिरना समझबूझ चरना' जैसे गाए निगुर्ण में स्वरों का अनूठा फक्कड़पन है। सुनते मन वैरागी हो उठता है। संसार का सारअसार जैसे समझ आने लगता है।

कुमार गंधर्व का गान लोकोन्मुखी है। लोक का उजास वहां है। स्वयं वह कहते भी थे, सारा शास्त्रीय संगीत 'धुन उगम' माने लोक संगीत से उपजा है।  मीरा, सूरदास के पद हो, ऋतु संगीत हो, ठुमरी, ठप्पा, तराना, होरी या फिर मालवा का लोकआलोक या फिर उनकी खुद की बंदिशे और स्वयं उनके बनाए रागों में प्रकृति की धुनें हममें जैसे बसती है।

युवाओं के लिए उनका आत्मविश्वास कम प्रेरणास्पद नहीं है।  यह उनकी गहन जीवटता ही थी कि छय रोग से बाधित एक फेफड़े के काम का नहीं रहने के बावजूद उन्होंने दमदार गायकी को नए अर्थ दिए। वह तब बीमारी से बिस्तर पर थे कि एक दिन कमरे में चिड़िया की तीखी स्वर फेंक सुनी। बस तभी तय किया, वह गाएंगे। स्वरसिद्ध करते उन्होंने सुनने वालों को गान की गहराई समझाई। श्वास उतारचढाव और शब्दों के मध्य के मौन का जो अर्थभरा संगीत उन्होंने बाद में दिया, वह उनका अपना सिरजा गानध्यान ही तो था!

कुमार गंधर्व मूलत: केरल के थे। 'कोडवू' गांव के। नाम था, शिवपुत्रय्या यानी कुमार। कर्नाटक आने के बाद वह जब सात ही वर्ष के थे तभी उनके गायन की धूम मच गयी। वहीं उनका सार्वजनिक अभिनंदन हुआ। कन्नड़ मानपत्र में उन्हें संबोधित करते सहज, मनोहर गायन के लिए 'चिन्ह (सुवर्ण) गंधर्व' पदवी दी गयी। और इस तरह शिवरूद्रय्या बाद के हमारे पंडित कुमार गंधर्व हो गए।

कुमार गंधर्व पर आरोप लगता रहा है, गायन में वह सिर्फ मध्यलय का ही विशेष प्रयोग करते रहे हैं। बकौल कुमार, 'सुरीली नादमयता का सुंदर प्रकटीकरण मध्यमलय से ही होता है।' पर यह भी तो सच है, मध्यमलय को वही निभा सकता है जो स्वरविन्यास में अनूठीअपूर्व कल्पना गान का स्थापत्य रचे। उसके महल खड़े करे।  कुमार ऐसे ही थे, स्वरों के गहनज्ञाता। एक दफा जयपुर में जौहरी राजमल सुराणा के यहां नक्काशीदार मीनाकारी के कंगनों का जोड़ा उन्होंने देखा और केदार राग की 'कंगनवा मोरा' बंदिश उन्हें याद आई। दु: भी हुआ कि अनमोल कंगनों की उस नजाकत को वह बसबंदिश में कभी ला नहीं सके। पर अलगअलग ऋतुओं में होने वाली बरखा की झड़ियों, ऋतुओं और प्रकृति धुनों के साथ देखे दृश्यों को उन्होंने बाद में जैसे स्वरसिद्ध कर लिया था। इसीलिए तो उनकी गायकी उपज सदा खिलीखिली हमें लुभाती है, लुभाती रहेगी।



Monday, April 3, 2023

इब्राहिम अल्का जी का नाट्यकर्म

 संगीत नाटक अकादेमी की पत्रिका "संगना" में ...

"संगना" अंक 40-41, अक्टूबर 2020-मार्च 2021 


"संगना" अंक 40-41, अक्टूबर 2020-मार्च 2021 


"संगना" अंक 40-41, अक्टूबर 2020-मार्च 2021