आज 8 अप्रैल 2023 से पंडित कुमार गंधर्व की जन्मशती शुरू हो रही हैं। मुम्बई में कुमार गंधर्व प्रतिष्ठान, देवास और नेशनल सेंटर्स फॉर द परफोर्मिंग आर्ट्स द्वारा इसकी शुरूआत दो दिवसीय संगीत महोत्सव से आज सांझ ही हो रही है। शास्त्रीय संगीत के वह क्रांतिकारी गायक थे। किसी घराने विशेष से अपनी पहचान न बनाकर उन्होंने अपनी स्वतंत्र शैली, विचार—उजास की दृश्य गायकी ईजाद की। परम्परागत रूढ़ियां तोड़ते सदा उन्होंने संगीत में नया रचा।
राजस्थान पत्रिका, 8 अप्रैल 2023
मुझे
लगता है, नाद सौंदर्य के भी वह
विरल अन्वेषक थे। ऐसे जिन्होंने गान में शब्दों को जीते हुए
अर्थ छटाओं की गगन—घटा लहराई। सुनेंगे तो लगेगा वह
स्वरों को फेंकते, उन्हें
बिखराते, औचक ऊँचा करते, विराम देते और फिर अंतराल
के मौन को भी जैसे
व्याख्यायित करते थे। मिलन—विरह और भांत—भांत की जीवनानुभूतियों में
उनका गायन सुना ही नहीं देखा
जा सकता है। कबीर के निर्गुण को
जो शास्त्रीय ओज उन्होंने दिया,
किसी और के कहां
बस की बात है!
'उड़ जाएगा हंस अकेला...,' में ‘गुरु की
करनी गुरु जायेगा,
चेले की करनी चेला...’
स्वर—निभाव
पर ही गौर करें, लगेगा जीवन का मर्म जैसे
हमें कोई समझा रहा है। ऐसे ही 'अवधूता, गगन घटा गहराई रे...' और 'हिरना समझ—बूझ चरना' जैसे गाए निगुर्ण में स्वरों का अनूठा फक्कड़पन
है। सुनते मन वैरागी हो
उठता है। संसार का सार—असार जैसे समझ आने लगता है।
कुमार
गंधर्व का गान लोकोन्मुखी
है। लोक का उजास वहां
है। स्वयं वह कहते भी
थे, सारा शास्त्रीय संगीत 'धुन उगम' माने लोक संगीत से उपजा है। मीरा,
सूरदास के पद हो,
ऋतु संगीत हो, ठुमरी, ठप्पा, तराना, होरी या फिर मालवा
का लोक—आलोक या फिर उनकी
खुद की बंदिशे और
स्वयं उनके बनाए रागों में प्रकृति की धुनें हममें
जैसे बसती है।
युवाओं
के लिए उनका आत्मविश्वास
कम प्रेरणास्पद नहीं है। यह
उनकी गहन जीवटता ही थी कि छय
रोग से बाधित एक
फेफड़े के काम का
नहीं रहने के बावजूद उन्होंने
दमदार गायकी को नए अर्थ
दिए। वह तब बीमारी
से बिस्तर पर थे कि
एक दिन कमरे में चिड़िया की तीखी स्वर
फेंक सुनी। बस तभी तय
किया, वह गाएंगे। स्वर—सिद्ध
करते उन्होंने सुनने वालों को गान की
गहराई समझाई। श्वास उतार—चढाव और शब्दों के
मध्य के मौन का
जो अर्थभरा संगीत उन्होंने बाद में दिया, वह उनका अपना सिरजा गान—ध्यान
ही तो था!
कुमार
गंधर्व मूलत: केरल के थे। 'कोडवू'
गांव के। नाम था, शिवपुत्रय्या यानी कुमार। कर्नाटक आने के बाद वह
जब सात ही वर्ष के
थे तभी उनके गायन की धूम मच
गयी। वहीं उनका सार्वजनिक अभिनंदन हुआ। कन्नड़ मानपत्र में उन्हें संबोधित करते सहज, मनोहर गायन के लिए 'चिन्ह
(सुवर्ण) गंधर्व' पदवी दी गयी। और
इस तरह शिवरूद्रय्या बाद के हमारे पंडित
कुमार गंधर्व हो गए।
कुमार
गंधर्व पर आरोप लगता
रहा है, गायन में वह सिर्फ मध्यलय
का ही विशेष प्रयोग
करते रहे हैं। बकौल कुमार, 'सुरीली नादमयता का सुंदर प्रकटीकरण
मध्यमलय से ही होता
है।' पर यह भी
तो सच है, मध्यमलय
को वही निभा सकता है जो स्वर—विन्यास
में अनूठी—अपूर्व कल्पना गान का स्थापत्य रचे।
उसके महल खड़े करे। कुमार
ऐसे ही थे, स्वरों
के गहन—ज्ञाता। एक दफा जयपुर
में जौहरी राजमल सुराणा के यहां नक्काशीदार
मीनाकारी के कंगनों का
जोड़ा उन्होंने देखा और केदार राग
की 'कंगनवा मोरा' बंदिश उन्हें याद आई। दु:ख भी
हुआ कि अनमोल कंगनों
की उस नजाकत को
वह बस बंदिश में कभी ला नहीं सके।
पर अलग—अलग ऋतुओं में होने वाली बरखा की झड़ियों, ऋतुओं
और प्रकृति धुनों के साथ देखे दृश्यों को उन्होंने बाद
में जैसे स्वर—सिद्ध कर लिया था।
इसीलिए तो उनकी गायकी
उपज सदा खिली—खिली हमें लुभाती है, लुभाती रहेगी।
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