ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, July 30, 2022

हिन्दी में कला लेखन

कलाएं जीवन में रंग भरती है पर यह विडम्बना ही है कि हिन्दी में ऐसे लिखे की परम्परा नहीं बनी जिससे लोग कलाओं के निकट आ पाए।  इसका एक कारण शायद यह भी है कि जो लिखा जाता है वह सूचनात्मक या फिर अपनी स्थापना का चरम आग्रह लिए ऐसा होता है कि पढ़ते हुए भी ऊब होती है। लिखे में रसिक होकर शब्द स्वर नहीं घोलेंगे तो यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि आपके लिखे से दर्शक, श्रोता बनें।असल में हिन्दी में कला और कलाकारों पर जो पुस्तकें देखने में आती है या तो वह अकादमिक बोझिलता लिए,  कला सैद्धान्तिकी की रटन्त हैं या या फिर शब्दाडम्बर भर होती हैं। कला से जुड़े भारतीय चिंतन, कलाओं की मौलिक व्याख्या की किताबें तो नगण्य ही हैं। 


राजस्थान पत्रिका, 30 जुलाई, 2022


इस दृष्टि से इधर प्रकाशित पुस्तकों मंक प्रयाग शुक्ल की 'रामकुमार कला कथा' पुस्तक महत्वपूर्ण है। पढ़कर लगा हिन्दी में कला लेखन के अपने संजोए में उन्होंने एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। पुस्तक इतनी रोचक है कि पढ़ते रामकुमार की मूर्त—अमूर्त कलाकृतियों से ही अपनापा नहीं होता बल्कि उनके संकोची व्यक्तित्व में घुली उस विराटता से भी औचक साक्षात् होते हैं जब उनके रेखांकनों की प्रदर्शनी का विचार सुझाया जाता है और वह कहते हैं, 'अलग से ड्राइंग्स तो मास्टर्स की दिखाई जाती है?'  अभिषेक कश्यप के संपादन में प्रकाशित इस अपेक्षाकृत छोटे कलेवर की पुस्तक में रामकुमार की यात्राओं के उजलेपन की कला थाह है तो अमूर्त और आकृतिमूलकता के मध्य की आवाजाही और अथाह चुप्पियों का रोचक वर्णन है। वाराणसी से रामकुमार की निकटता के प्रसंगों के साथ कलाकृतियों में बरते रंग और रेखाओं की सौंदर्य रचयिता पर इस पुस्तक में प्रयागजी ने थोड़े में बहुत सारा गुना और बुना है। रामकुमार की कहानियों, उन पर लिखी कविताओं और पत्रों को सम्मिलित कर जैसे उनके समग्र कला व्यक्तित्व का इसमें दृश्यालेख ही पाठकों को सौंप दिया गया है। प्रयाग जी की देश के मूर्धन्य कलाकारों संग आग्रह—पूर्वाग्रह रहित निकटता रही है। क्या ही अच्छा हो, मूर्धन्य कलाकारों की 'कला कथा' की एक शृंखला प्रयागजी ऐसे ही तैयार करें।

बहरहाल, हिन्दी में कलाकारों द्वारा स्वयं अपने सृजन पर कहे को भी बहुत कम सहेजा गया है। इस दृष्टि से मुझे सीरज सक्सेना विरल लगते हैं। सिरेमिक, टेक्सटाइल, काष्ठ, छापा और संस्थापन में उनकी कला प्रयोगधर्मिता में निरंतर बढ़त करती रही है। उनकी पुस्तक 'मिट्टी की तरह मिट्टी' इस रूप में अनूठी है कि इसमें मिट्टी की लोच के सहारे ही सृजन शुरू करने और खत्म करने, समय और उससे मिले दृश्य अनुभवों से उपजते सहज रूपाकार खोजने और हर नये चित्र में पुराने को गहरे से स्थापित करने से जुड़ी उनकी अनुभूतियां हैं। यह ऐसी हैं जिनसे कला और सृजन के अंत:संबंधों से स्वत: अपनापा होता है।

रंगमंच को हमारे यहां चाक्षुष यज्ञ कहा गया है पर हिन्दी में पढ़ने में रूचिप्रद नाट्यकृतियां अभी भी नहीं के बराबर हैं। कुछ समय पहले दया प्रकाश सिन्हा की साहित्य अकादेमी से समादृत 'सम्राट अशोक' नाट्यकृति पढ़ी तो लगा रंगमंच, साहित्य और इतिहास के अंतः:संबंधों में अशोक के जीवन से जुड़ी विडम्बनाओं, कुंठाओं में एक नये अशोक से हम साक्षात् हो रहे हैं। अशोक का 'प्रियदर्शी' नाम रखना, बौद्ध धर्म से  निकटता, पत्नी तिष्यरक्षिता और उसकी महत्वाकांक्षाओं पर बहुत कुछ यहां दृश्य बंध, प्रकाश प्रभाव आदि संग अंवेरा गया है। इसकी शोध पूर्ण प्रभावी भूमिका भी मन को मथती है।

Saturday, July 23, 2022

सार्थक हस्तक्षेप के लिए हो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के इस दौर में बोलने, विचार व्यक्त करने की अभिव्यक्ति के नाम पर शोरगुल चिंतनीय है। बहुतेरी बार यह भी लगता है, अपनी स्थापनाओं के लिए, अपने आप को प्रचारित—प्रसारित करने भर के लिए ही बहुत कुछ बगैर सोचे—समझे कहाँ, व्यक्त किया जा रहा है।  किसी भी विचार का, व्यक्ति का या भावना का विरोध करना है, बस इसलिए ही बहुतेरी बार सक्रियता दिखाई देती है। पहले कोई कुछ भी कहता तो उसकी इस रूप में सुनवाई नहीं हो सकती थी कि मीडिया का प्रसार सीमित था। इस दौर में प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ वेब मीडिया का जिस तेजी से प्रसार हुआ है और पल—पल की घटनाओं को दिखाने, प्रसारित करने की जो होड़ मीडिया में मच रही है, उसने भाषा और संवेदना में ही छीजत नहीं की है, बल्कि मानवीय मूल्यों को भी तिरोहित किया है।

यह सही है, लोकतंत्र में आपको सहमत होने की जरूरत नहीं है परन्तु याद रखें—असहमति का आधार और तर्क भी बताना होता है। सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है, यही लोकतंत्र की बड़ी ताकत है पर बात रखने की मर्यादा भी इसमें निहित है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का निहितार्थ यह भी है कि आपकी यह स्वतंत्रता दूसरों की स्वतंत्रता को बाधित नहीं करें।

‘वाक् स्वतंत्रता’ के अंतर्गत अभिव्यक्ति की आजादी सबको है। उनको भी जो कुछ लिखते या नया सृजित कर अपने आपको व्यंजित करते हैं और उनको भी जो उसका विरोध करते हैं परन्तु जैसा कि पहले भी कहा गया है कि असहमति हो परन्तु उसके आधार भी स्पष्ट होने चाहिए। तमिल लेखक पेरुमल मुरूगन ने अपने विरोध के चलते कभी अपने आपको जिंदा मृत घोषित कर लेखन से संन्यास ले लिया था पर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के चलते अपने आपको फिर से जिंदा होने की अनुभूति उन्होंने की। उनकी कविता की पंक्तियां पर गौर करें, ‘एक फूल खिलता है/चटकने के बाद/तीव्र सुगंध/मधुर अभिव्यक्ति/फूल खिलेगा/स्थापित करेगा/सबकुछ।’
जेम्स स्टुअर्ट मिल का प्रसिद्ध कथन है कि ‘मान लीजिए एक मनुष्य एक तरफ है और सारी मनुष्य जाति दूसरी तरफ है। तब भी सारी मानवता को, या मनुष्य जाति को , उस एक मनुष्य की आवाज दबा देने का कोई अधिकार नहीं है। वैसे ही एक मनुष्य में इतनी शक्ति है कि वह अन्य सारे मनुष्यों को दबा सके, पर दबाने का अधिकार उसे नहीं है। यानी यह स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अधिकार की पहली सीमा यही है कि अन्य व्यक्ति के वैसे अधिकार पर अतिक्रमण का आपको अधिकार नहीं है।
राष्ट्रदूत, 23 जुलाई 2022 

यहां इस बात को भी ध्यान में रखें जाने की जरूरत है कि अधिकार के साथ कर्तव्य जुड़ा होता है। अधिकार का जन्म ही कर्तव्य की कोख से होता है। इसे एक उदाहरण से समझा जाए, हमारे यहां न्यायलय ने दुराचार, बलात्कार, पीड़ित का फोटो और नाम जाहिर नहीं किए जाने के आदेश दे रखे है। इसके पीछे मानसिकता यही है कि उस व्यक्ति विशेष को मानहानी से बचाया जा सके। यानि मीडिया को समाचार प्रकाशित करने का अधिकार है परन्तु उसके इस अधिकार के तहत किसी दूसरे की मानहानी नहीं हो, यही न्यायालय के इस आदेश का निहितार्थ हैं। गांधीजी ने कभी कहा था, ‘ हर अधिकार का उपयोग शिष्टतापूर्वक और विश्वस्त भावना से करना चाहिए। तुम्हें जो अधिकार या क्षमता प्रदान की गयी है, वह तुम्हारी मिल्कियत नहीं है, तुम उसके मालिक नहीं हो,  सिर्फ ट्रस्टी हो। अधिकार का उपयोग दूसरों की भलाई के लिए करो, यह तुम्हारा दायित्व है।’
वाक् स्वतंत्रता संविधान का मूल अधिकार है और उसके मायने है- सार्थक हस्तक्षेप। उचित के पक्ष में हस्तक्षेप जरूरी है, यही आपकी अभिव्यक्ति का अधिकार है। प्रतिदिन समाचार पत्रों के मुखपृष्ठ पर प्रायः पॉकेट कार्टून छपता है। गौर करेंगे तो पाएंगे- कार्टूनिस्ट समाज में, राजनीति में बल्कि व्यापक अर्थ में कहें तो लोकतांत्रिक प्रणाली में जो कुछ हो रहा है उस पर रेखाओं से अपने तईं हस्तक्षेप करता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह ऐसा उदाहरण है जिसमें प्रायः सार्थक हस्तक्षेप होता है। ऐसे ही किसी घटना विशेष पर समाचार पत्र संपादकीय प्रकाशित करता है, समाचार चैनल विश्लेषण देता है, यह सब वाक् स्वतंत्रता ही है। सोचिए लोकतंत्र में ऐसा नहीं हो, केवल चुप्पी ही रहे तो क्या आजादी की हमारी मूल भावना कायम रह सकती है! दिनकर को याद करें। कभी उन्होंने लिखा था, ‘जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध।’ लोकतंत्र की जीवतंता सक्रिय हस्तक्षेप से ही है। पर ध्यान रखने की बात यह भी है कि अंतरात्मा की बात सुनें पर इस तरह से कि दूसरों को उसकी कीमत न चुकानी पड़े । हस्तक्षेप का अर्थ यह नहीं है कि आप बगैर किसी आधार के, अपने आपको स्थापित करने के लिए कुछ करें, कार्टून बनाए, कोई टीवी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दें। उन्मुक्तता हस्तक्षेप नहीं है। हस्तक्षेप मनमानी नहीं है। हर कोई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपने आपको व्यक्त करने को बेचैन रहता है। ठीक है आप अपने आपको रोक नहीं सकते परन्तु व्यंजित अपने को करें तो मर्यादा का भी ध्यान रखें। जो कहें, व्यक्त करें उसमें मानवीय सूझ हो। विचार बांटे परन्तु उससे किसी दूसरे की गरिमा का हनन नहीं हो। कुछ कहें पर बगैर प्रमाण या किसी आधार को दृष्टिगत रखते हुए अपना मत रखें।
यह सही है, बोलने की आजादी जनोन्मुख चेतना की संवाहक है परन्तु इसका बेजा इस्तेमाल बहुतेरी बार देश में उन्माद फैलाने का काम भी करता है। इसलिए इस बात को भी देखा जाना चाहिए कि बोलने या विचारों को किसी भी रूप में व्यक्त करने की आपकी आजादी से दूसरा कोई आहत तो नहीं हो रहा है। प्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत ही पूर्ण रूप से अपनी बात कहने, विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता है लेकिन परम स्वतंत्रता नहीं है। संविधान सभा में डॉ. अम्बेडकर का कहा यहां गौरतलब है। उन्होंने संविधान सभा में स्पष्ट कहा था कि प्रेस को ऐसे कोई विशेषाधिकार नहीं दिए जा सकते जो आम नागरिक को प्राप्त नहीं हैं। प्रेस में संपादक, संवाददाता और लेखक अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का प्रयोग करते हैं। इस कारण से किसी विशेष उपबंध की आवश्यकता नहीं है।  संविधान के अनुच्छेद 19(1)ए में ‘’भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार’’ का उल्लेख है, लेकिन उसमें यह गौरतलब है कि शब्द ‘’प्रेस’’ का जिक्र नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र के लिए जरूरी है इसलिए निर्भय होकर इसका उपयोग किया जा सकता है परन्तु इसमें निहित जिस मर्यादा की अपेक्षा की गई है उसकी पालना भी जरूरी है।
लोकतंत्र में लोगों को जागरूक करने, की बात व्यापक स्तर तक पहुंचाने या कहें लोकतंत्र के सही तरीके से क्रियान्वयन के लिए प्रेस की आजादी जरूरी है। प्रेस के जरिए ही तमाम तरह की सूचनाएं निर्बाध आम जन तक पहुंचती है, इसीलिए प्रेस की आजादी को लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण और जरूरी माना गया है। परन्तु इस बात को ध्यान में रखा जाना जरूरी है कि विधायिका को प्राप्त विशेषाधिकार का प्रेस हनन नहीं करें। संसद और विधानसभाओं में सदनों ,की शक्तियों को और उनके सदस्यों को विशेषाधिकार प्राप्त हैं। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 105 में संसद और 194 के अंतर्गत विधान मंडलों के विशेष अधिकारों का वर्णन किया गया है। इसी तरह अनुच्छेद 105(3) में संसद की शक्तियों 194(3) में विधायकों के शक्तियों (विशेषाधिकार) को बताया गया है। देश के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश और बाद में भारत के उपराष्ट्रपति (सभापति) बने न्यायमूर्ति एम.हिदायतुल्ला ने संसदीय विशेषाधिकारों के संबंध में कहा है कि संसद को अपने विशेषाधिकारों का निर्णय करने का पूर्ण अधिकार है। विशेषाधिकारों का विस्तार क्या हो और इनका प्रयोग सदन के भीतर कब किया जाये ,इस बारे में भी अंतिम निर्णय संसद का ही होगा। इसके अंतर्गत अपनी अवमानना के लिए दोषी व्यक्ति को सजा देने का अधिकार भी संसद को ही है।
विधायिका में किसी सदस्य के द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती और सदन के प्राधिकार के अधीन प्रकाशित किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में भी कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। संसद और विधानसभाओं, विधानमंडलों की रिपोर्टिंग के लिए विशेषाधिकार और आचार संहिता की पालना जरूरी है। इसे इस रूप में भी समझें कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर संसद की कार्यवाही या विधानसभा की कार्यवाही को मीडिया में हूबहू प्रकाशित या प्रसारित नहीं किया जा सकता। इसलिए कि वहां पर यदि कोई कार्यवाही सदन से हटा दी जाती है या अध्यक्ष द्वारा ऐसी व्यवस्था दे दी जाती है कि वह कार्यवाही बाहर नहीं जाएगी तो उसे प्रकाशित-प्रसारित नहीं किया जा सकता।

Saturday, July 16, 2022

शिव, श्रावण और कला

पूर्णिमा पर श्रवण नक्षत्र और इस श्रवण नक्षत्र से अण् प्रत्यय के योग से बना है श्रावण। शिव का प्रिय मास। हिमाचल की पुत्री के रूप में जब सती फिर से जन्मी तो श्रावण मास मेंही शिव को पाने कठोर तपस्या की। शिव प्रसन्न हो पुनः पति रूप में उन्हें प्राप्तहुए। समुद्र मंथन के समय जब हलाहल निकला तब भयंकर विष को शिव ने अपने कंठ में धारण किया। दूषण हलाहल उनके कंठ में पहुंच भूषण बन गया। शिव नीलकंठ हो गए। 

कथा हैकि शिव के गले में एकत्र भारी जहर को शांत देवताओं ने तब उनका जलाभिषेक किया। शिव अभिषेक का वह समय श्रावण ही था। श्रावण में ही होती है, शिव भक्तोंद्वारा कांवड़ की कला यात्रा। शिव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन यात्रा। हरिद्वार औरदूसरे शिव धामों के रास्ते भर में कंधे पर रंग-बिरंगे कांवड़ उठाकर पैदल जाते भक्तदिखेंगे। रंगीन कागजों से, मोम से, मोर पंखों सेकलात्मक सजे कांवड़। देखेंगे तो लगेगा रंग कोलाज हैं कावड़। कांवड़ जमीन पर नहीं रखेजाते। कांवड़िये विश्राम करते हैं तो सड़क के किनारे पेड़ों की शाखाओं से बने तख्तोंपर इन्हें रखा जाता है। 

शिव सौन्दर्य केकला देव हैं। ‘संगीत मकरंद’ में शिव की कला का गान है। नृत्य के बाद शिव ने डमरू बजाया। डमरू की ध्वनि से ही शब्द ब्रह्म नाद हुआ। यही ध्वनि चौदह बार प्रतिध्वनित होकर व्याकरण शास्त्र के वाक् शक्ति के चौदह सूत्र हुए। नृत्य में ब्रह्माण्ड का छन्द, अभिव्यक्ति का स्फोट सभी कुछ छिपा है। महर्षि व्याघ्रपाद ने जब शिव से व्याकरण तत्व को ग्रहण किया तो इस माहेश्वर सूत्र की परम्परा के संवाहक बनेपाणिनि। कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में शिव के नृत्य को देवताओं की आंखों को सुहाने वाला यज्ञ कहा है। 

कम प्रकाश में नृत्य की कल्पना नहीं की जा सकती फिर भी शिव ने नृत्य के लिए अंधेरे की ओर गमन करती संध्या को चुना। पर सोचिए, अंधेरा प्रकाशित किससे होता है? शिव से ही तो! कल्पनाकरता हूं, रत्नजड़ितसिंहासन पर जगज्जननी उमा विराज रही है। वाग्देवी की वीणा झंकृत हो उठी है। और लो,इंद्रने मुरली भी बजा दी। विष्णु मृदंग और ब्रह्मा करतल से दे रहे हैं ताल। भगवती रमा गा रही है। चन्द्रमा धारण किए डमरू बजाते शिव का नृत्य प्रारंभ हो गया। चहुँ ओर भ्रमण करते तारों के साथ घूमने लगा आकाश। यही तो है, शिव का तेजोमय कला रूप!

राजस्थान पत्रिका, 16 जुलाई, 2022 

यूं शिव रौद्र रूप है पर सांध्य नृत्य सौम्य और मनोरम है। महर्षि अरविन्द कहते हैं, दक्षिण में चिदम्बरम् स्थित मंदिर जाएं तो ध्यान दें। नटराज वहां पंचम प्राकार के अंदर है।यहां है उनका आकाश-स्वरूप। 

माने कहीं कोई अवकाश नहीं। यहां है संगीत के आद्यप्रवर्तक तुम्बुरू और देव कथा के गायक नारद। यह संगीत, व्याकरण और नृत्य की त्रिवेणी रूप साधना स्थली है। शिव सृष्टि कीलय से जुड़े है। लय में ही कलाएं पूर्णता को प्राप्त करती है।

 स्कन्द पुराण में ‘लयनालिंगमुच्यते’शब्दआया है। ‘लिंग’मानेलय का उद्भव। इसीलिए लिंग मात्र की पूजा में पार्वती-परमेश्वर दोनों की पूजा हो जाती है। शिव त्रिगुण स्वामी रूप में भी कला की अनूठी व्यंजना करते हैं। सत,रजऔर तम गुणों से युक्त।

 उन पर चढ़ाए जाने वाले बिल पत्रों को जब भी देखता हूं,उनकेइस त्रिगुणातीत कला रूप में ही मन चला जाता है। भाव को जो प्राप्त करता है,वहीत्रिगुणातीत है।

बेल पत्रों में तीन पत्तियां के एक साथ जुड़ी होने में शिव के तीनरूपों सृजन, पालन और संहार की भी अनुभूति होती है। तीन ध्वनियों अ,उ,म् से उत्पन्नएक नाद ऊॅं की भी यह द्योतक है और त्रिपुरारी शिव भी तो त्रिनेत्र वाले त्रिशुलधारी ही हैं। शिव माने संपूर्णता। 


Saturday, July 2, 2022

सहेजें शब्द ब्रह्म की संस्कृति

शब्दों की संस्कृति के लिए यह संकट का दौर है। इस विकट समय में बाजार पोषित मूल्य कुछेक शब्दों में ही जीवन चलाने को प्रेरित कर रहे है। संकट हिन्दी शब्दों का ही नहीं है, दूसरी भाषाओं के शब्दों को बचाने का भी है। इमोजी के दौर में शब्द हासिए पर हैं। हमारी हर हरकत पर बाजार की नजर जो है! इन्टरनेट से जुड़े किसी भी माध्यम पर आपने कुछ पसंद किया, अपने विचार रखे नहीं कि बाजार अनुभूति कराएगा कि आपके मन को हमने बांच लिया है। और फिर जो कुछ स्क्रिन पर दिखेगा, उस पर ही बटन दब जाएगा। फेसबुक को ही लें। पहले इमोजी तक ही विकल्प थे पर अब तो पोस्ट के आधार पर हिन्दी और अंग्रेजी में पहले से गढ़े 'लाजवाब','बहुत सुंदर', 'बधाई' 'सुपर' और भी बहुत सारे शब्द जैसे नूंत देते दिखने लगे हैं। पर सोचिए, इस शब्द एकरसता से कितना कुछ हमारा मन का छीना जा रहा है। शब्द प्रयोग में ही सदा बढ़त करते हैं। 
हिन्दी में अधिकतर शब्द संस्कृत से आए हैं। पर लेखक बहुत से स्तरों पर स्वयं भी बहुतेरी बार नए—नए शब्दों से भाषा को समृद्ध, संपन्न करते रहे है। भाषा ”सिन्टेक्स” से ही आगे बढ़ती है। हर शब्द को बरतने की अपनी परम्परा, संस्कार होते हैं। इसलिए शब्द को व्याकरण ही नहीं ध्वनित अर्थ से भी देखा जाना चाहिए। विशेष शब्दचय, विशेष संदर्भों में अपनी निजता लिए भी होते हैं। 
राजस्थान पत्रिका, 2 जुलाई 2022

मेरे कला लेखन में परम्परा के साथ अपनी मायड़ भाषा राजस्थानी की लय से प्रेरित बहुत से शब्द अनायास प्रयुक्त हुए हैं, कुछ नए बने भी है। गौर किया बहुत से स्तरों पर उनका चलन हो गया। ऐसा ही होता है! देशज शब्दों से, लेखक की अपनी रूचि से गढ़ने, बरतने से ही शब्द संपदा बढ़ती है। 
शब्द शव है, तब तक जब तक कि उनका प्रयोग नहीं हो। 'कादम्बिनी' अब तो बंद हो चुकी है परंतु जब यह पत्रिका प्रारम्भ हुई तो इसका नामकरण महादेवी वर्मा ने किया था। बहुतों को पत्रिका शीर्षक का यह शब्द बहुत क्लिष्ट लगा। पर बाद में बहुत कम समय में 'कादम्बिनी' शब्द लोकप्रिय हो गया। पर सोचिए, क्लिष्ट मानकर यदि शब्दों का प्रयोग ही नहीं हो तो बहुत सारे शब्द सदा के लिए क्या हमसे जुदा नहीं हो जाएंगे! 
बहरहाल, कुबेरनाथ राय के निबन्ध संग्रह हैं—'गन्धमादन', 'रस आखेटक', 'मराल', 'पर्णमुकुट' 'निषाद बांसुरी' आदि। पढेंगे तो शब्द शब्द मन मथेगा। बकौल कुबेरनाथ राय, उनके निबंध वाक्यों के चन्दन—काष्ठ हैं, जिनसे भावों और विचारों की सुगन्ध प्राप्त करने के लिए पाठक को थोड़ा सा निर्मल—तरल मन देकर इन्हें कष्टपूर्वक घिसना पड़ेगा। यह सच है, चंदन को घिसेंगे तभी ना उससे सुगंध आएगी! 
हम कहते हैं, 'बम बम भोले! कहां से आए यह शब्द? महादेव की अष्टमूर्ति व्योम से। व्योम माने महादेव! वह जो निराकार, शून्य सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है। पर व्योम—व्योम महादेव रुचता कहां है! शब्द उच्चारण और बरतने की यही हमारी सौंदर्य दृष्टि है। कला या साहित्य में सपाट कुछ भी रंजक नहीं होता। लिखे में शब्द अर्थगर्भित हों और कलाओं में अर्थ के आग्रह से मुक्त व्यंजना होगी तभी अंतर्मन आलोकित होगा। शब्द की संस्कृति उसे बरतने, नए शब्द गढ़ने में ही बढ़त करेगी। और हां, शब्द बचेंगे तभी हम, हमारा मूल बचा रहेगा। विचारें, आखिर ऐसे ही तो शब्द को ब्रह्म नहीं कहा गया है।