ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, July 16, 2022

शिव, श्रावण और कला

पूर्णिमा पर श्रवण नक्षत्र और इस श्रवण नक्षत्र से अण् प्रत्यय के योग से बना है श्रावण। शिव का प्रिय मास। हिमाचल की पुत्री के रूप में जब सती फिर से जन्मी तो श्रावण मास मेंही शिव को पाने कठोर तपस्या की। शिव प्रसन्न हो पुनः पति रूप में उन्हें प्राप्तहुए। समुद्र मंथन के समय जब हलाहल निकला तब भयंकर विष को शिव ने अपने कंठ में धारण किया। दूषण हलाहल उनके कंठ में पहुंच भूषण बन गया। शिव नीलकंठ हो गए। 

कथा हैकि शिव के गले में एकत्र भारी जहर को शांत देवताओं ने तब उनका जलाभिषेक किया। शिव अभिषेक का वह समय श्रावण ही था। श्रावण में ही होती है, शिव भक्तोंद्वारा कांवड़ की कला यात्रा। शिव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन यात्रा। हरिद्वार औरदूसरे शिव धामों के रास्ते भर में कंधे पर रंग-बिरंगे कांवड़ उठाकर पैदल जाते भक्तदिखेंगे। रंगीन कागजों से, मोम से, मोर पंखों सेकलात्मक सजे कांवड़। देखेंगे तो लगेगा रंग कोलाज हैं कावड़। कांवड़ जमीन पर नहीं रखेजाते। कांवड़िये विश्राम करते हैं तो सड़क के किनारे पेड़ों की शाखाओं से बने तख्तोंपर इन्हें रखा जाता है। 

शिव सौन्दर्य केकला देव हैं। ‘संगीत मकरंद’ में शिव की कला का गान है। नृत्य के बाद शिव ने डमरू बजाया। डमरू की ध्वनि से ही शब्द ब्रह्म नाद हुआ। यही ध्वनि चौदह बार प्रतिध्वनित होकर व्याकरण शास्त्र के वाक् शक्ति के चौदह सूत्र हुए। नृत्य में ब्रह्माण्ड का छन्द, अभिव्यक्ति का स्फोट सभी कुछ छिपा है। महर्षि व्याघ्रपाद ने जब शिव से व्याकरण तत्व को ग्रहण किया तो इस माहेश्वर सूत्र की परम्परा के संवाहक बनेपाणिनि। कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में शिव के नृत्य को देवताओं की आंखों को सुहाने वाला यज्ञ कहा है। 

कम प्रकाश में नृत्य की कल्पना नहीं की जा सकती फिर भी शिव ने नृत्य के लिए अंधेरे की ओर गमन करती संध्या को चुना। पर सोचिए, अंधेरा प्रकाशित किससे होता है? शिव से ही तो! कल्पनाकरता हूं, रत्नजड़ितसिंहासन पर जगज्जननी उमा विराज रही है। वाग्देवी की वीणा झंकृत हो उठी है। और लो,इंद्रने मुरली भी बजा दी। विष्णु मृदंग और ब्रह्मा करतल से दे रहे हैं ताल। भगवती रमा गा रही है। चन्द्रमा धारण किए डमरू बजाते शिव का नृत्य प्रारंभ हो गया। चहुँ ओर भ्रमण करते तारों के साथ घूमने लगा आकाश। यही तो है, शिव का तेजोमय कला रूप!

राजस्थान पत्रिका, 16 जुलाई, 2022 

यूं शिव रौद्र रूप है पर सांध्य नृत्य सौम्य और मनोरम है। महर्षि अरविन्द कहते हैं, दक्षिण में चिदम्बरम् स्थित मंदिर जाएं तो ध्यान दें। नटराज वहां पंचम प्राकार के अंदर है।यहां है उनका आकाश-स्वरूप। 

माने कहीं कोई अवकाश नहीं। यहां है संगीत के आद्यप्रवर्तक तुम्बुरू और देव कथा के गायक नारद। यह संगीत, व्याकरण और नृत्य की त्रिवेणी रूप साधना स्थली है। शिव सृष्टि कीलय से जुड़े है। लय में ही कलाएं पूर्णता को प्राप्त करती है।

 स्कन्द पुराण में ‘लयनालिंगमुच्यते’शब्दआया है। ‘लिंग’मानेलय का उद्भव। इसीलिए लिंग मात्र की पूजा में पार्वती-परमेश्वर दोनों की पूजा हो जाती है। शिव त्रिगुण स्वामी रूप में भी कला की अनूठी व्यंजना करते हैं। सत,रजऔर तम गुणों से युक्त।

 उन पर चढ़ाए जाने वाले बिल पत्रों को जब भी देखता हूं,उनकेइस त्रिगुणातीत कला रूप में ही मन चला जाता है। भाव को जो प्राप्त करता है,वहीत्रिगुणातीत है।

बेल पत्रों में तीन पत्तियां के एक साथ जुड़ी होने में शिव के तीनरूपों सृजन, पालन और संहार की भी अनुभूति होती है। तीन ध्वनियों अ,उ,म् से उत्पन्नएक नाद ऊॅं की भी यह द्योतक है और त्रिपुरारी शिव भी तो त्रिनेत्र वाले त्रिशुलधारी ही हैं। शिव माने संपूर्णता। 


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