ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, July 2, 2022

सहेजें शब्द ब्रह्म की संस्कृति

शब्दों की संस्कृति के लिए यह संकट का दौर है। इस विकट समय में बाजार पोषित मूल्य कुछेक शब्दों में ही जीवन चलाने को प्रेरित कर रहे है। संकट हिन्दी शब्दों का ही नहीं है, दूसरी भाषाओं के शब्दों को बचाने का भी है। इमोजी के दौर में शब्द हासिए पर हैं। हमारी हर हरकत पर बाजार की नजर जो है! इन्टरनेट से जुड़े किसी भी माध्यम पर आपने कुछ पसंद किया, अपने विचार रखे नहीं कि बाजार अनुभूति कराएगा कि आपके मन को हमने बांच लिया है। और फिर जो कुछ स्क्रिन पर दिखेगा, उस पर ही बटन दब जाएगा। फेसबुक को ही लें। पहले इमोजी तक ही विकल्प थे पर अब तो पोस्ट के आधार पर हिन्दी और अंग्रेजी में पहले से गढ़े 'लाजवाब','बहुत सुंदर', 'बधाई' 'सुपर' और भी बहुत सारे शब्द जैसे नूंत देते दिखने लगे हैं। पर सोचिए, इस शब्द एकरसता से कितना कुछ हमारा मन का छीना जा रहा है। शब्द प्रयोग में ही सदा बढ़त करते हैं। 
हिन्दी में अधिकतर शब्द संस्कृत से आए हैं। पर लेखक बहुत से स्तरों पर स्वयं भी बहुतेरी बार नए—नए शब्दों से भाषा को समृद्ध, संपन्न करते रहे है। भाषा ”सिन्टेक्स” से ही आगे बढ़ती है। हर शब्द को बरतने की अपनी परम्परा, संस्कार होते हैं। इसलिए शब्द को व्याकरण ही नहीं ध्वनित अर्थ से भी देखा जाना चाहिए। विशेष शब्दचय, विशेष संदर्भों में अपनी निजता लिए भी होते हैं। 
राजस्थान पत्रिका, 2 जुलाई 2022

मेरे कला लेखन में परम्परा के साथ अपनी मायड़ भाषा राजस्थानी की लय से प्रेरित बहुत से शब्द अनायास प्रयुक्त हुए हैं, कुछ नए बने भी है। गौर किया बहुत से स्तरों पर उनका चलन हो गया। ऐसा ही होता है! देशज शब्दों से, लेखक की अपनी रूचि से गढ़ने, बरतने से ही शब्द संपदा बढ़ती है। 
शब्द शव है, तब तक जब तक कि उनका प्रयोग नहीं हो। 'कादम्बिनी' अब तो बंद हो चुकी है परंतु जब यह पत्रिका प्रारम्भ हुई तो इसका नामकरण महादेवी वर्मा ने किया था। बहुतों को पत्रिका शीर्षक का यह शब्द बहुत क्लिष्ट लगा। पर बाद में बहुत कम समय में 'कादम्बिनी' शब्द लोकप्रिय हो गया। पर सोचिए, क्लिष्ट मानकर यदि शब्दों का प्रयोग ही नहीं हो तो बहुत सारे शब्द सदा के लिए क्या हमसे जुदा नहीं हो जाएंगे! 
बहरहाल, कुबेरनाथ राय के निबन्ध संग्रह हैं—'गन्धमादन', 'रस आखेटक', 'मराल', 'पर्णमुकुट' 'निषाद बांसुरी' आदि। पढेंगे तो शब्द शब्द मन मथेगा। बकौल कुबेरनाथ राय, उनके निबंध वाक्यों के चन्दन—काष्ठ हैं, जिनसे भावों और विचारों की सुगन्ध प्राप्त करने के लिए पाठक को थोड़ा सा निर्मल—तरल मन देकर इन्हें कष्टपूर्वक घिसना पड़ेगा। यह सच है, चंदन को घिसेंगे तभी ना उससे सुगंध आएगी! 
हम कहते हैं, 'बम बम भोले! कहां से आए यह शब्द? महादेव की अष्टमूर्ति व्योम से। व्योम माने महादेव! वह जो निराकार, शून्य सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है। पर व्योम—व्योम महादेव रुचता कहां है! शब्द उच्चारण और बरतने की यही हमारी सौंदर्य दृष्टि है। कला या साहित्य में सपाट कुछ भी रंजक नहीं होता। लिखे में शब्द अर्थगर्भित हों और कलाओं में अर्थ के आग्रह से मुक्त व्यंजना होगी तभी अंतर्मन आलोकित होगा। शब्द की संस्कृति उसे बरतने, नए शब्द गढ़ने में ही बढ़त करेगी। और हां, शब्द बचेंगे तभी हम, हमारा मूल बचा रहेगा। विचारें, आखिर ऐसे ही तो शब्द को ब्रह्म नहीं कहा गया है।

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