ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, June 18, 2022

पं. उदय भावलकर : वाद्य-वृंद सा स्वर उजास

संगीत स्वर-पद और ताल का समवाय है। शास्त्रीय गान की हमारी परम्परा पर जाएंगे तो पाएंगे वहां सुर प्रधान होता है, शब्द नहीं। ध्रुपद सबसे पुरानी गायकी है। पन्द्रहवी सदी में आचार्य भावभट्ट ने ध्रुपद  प्रबंध का वर्णन किया है। बहरहाल, स्वर, ताल और लय में ही ध्रुपद जीवंत होता है। शब्द न भी हो तो वहां कोई फर्क नहीं पड़ता है। कहीं पढ़ा था कि अमीर खुसरो जब भारत आए तो उन्हें ध्रुपद के संस्कृत पद समझ नहीं आए। पर उन्हें यह गायकी बहुत भायी। उन्होंने तब ‘द्रे द्रे ना ना, ओम तोम...’ जैसे निर्थक शब्द गढ़े और ध्रुपद में बहुत कुछ नया भी अपने तई रचा।  ध्रुपद की शुद्ध गायकी में इधर रंजकता संग मौलिकता में निरंतर किसी ने बढ़त की है तो वह पंडित उदय भावलकर हैं। ऐसे दौर में जब बहुतेरे गायक माइक को आवाज के अनुकूल करने की जद्दोजहद करते श्रोताओं का बहुत सारा समय गंवाते दिखते हैं, या फिर पूरी तरह से वाद्य-वृन्द पर ही आश्रित होते हैं, उदय भावलकर को सुनना विरल अनुभव है। अभी बहुत समय नहीं हुआ, जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में राग हिंडोल में उन्हें सुना। वह आलाप ले रहे थे। सुनते लगा, स्वर-स्वर मन उजास में जैसे नहा रहा है। ऐसे ही एक दफा राग भीमपलासी और छायानट में उन्हें सुना तो लगा, स्वर की अनंत संभावनाओं, सौंदर्य का वह अपने तई आकाश रच रहे हैं। राग यमन कल्याण, अहीर भैरव, ललित, मुल्तानी, राग मालकौंस आदि में पंडित उदय भावलकर को सुनते मन जैसे अपने आपको गुनता है। सधे स्वरों में सांस पर अद्भुत नियंत्रण! जितना स्वाभाविक षडज उतना ही सहज पंचम भी। वह उपज में जब बंदिश सजाते हैं तो शब्द ही नहीं उसके भीतर बसे स्वर-सौंदर्य से भी अनायास साक्षात होता हैं। याद है, पहले पहल  उन्हें राग मालकौंस में ‘शंकर गिरजापति पार्वती, गले रुण्ड माला...’ गाते हुए सुना था। लगा गाते हुए वह माधुर्य का अनुष्ठान कर रहे हैं। इसके बाद तो जब भी उन्हें सुना, मन किया सुनता ही रहूं। ध्रुपद में नवाचार की अधिक गुंजाईश नहीं होती है पर उदय भावलकर को सुनते लगता है, परम्परा को सदा ही अपने गान में उन्होंने पुनर्नवा किया है। उनकी खुद की रचनाओं, स्वर विन्यास और आलाप के ढंग में जाएंगे तो लगेगा सांस सांस जैसे वह राग-सौंदर्य को साधते हैं। लगता है, एक स्वर में वह जैसे कईं कई स्वरों के महल खड़ा करते हैं। आलाप, स्थायी में राग वहां जीवंत होता ध्रुपद गायकी का भी जैसे मर्म समझाता है। गान में स्वरों का उनका लगाव, गुंथाव और एक स्वर से दूसरे स्वर पर जाते अलंकार की अलहदा छटाएं मन को आनंद घन करती है। यह सच है, इधर कंठ संगीत में शुद्धता गौण प्रायः हो रही है। ऐसे दौर में पंडित उदय भावलकर का होना आश्वस्त करता है। मुझे लगता है, स्वरों की स्वतंत्र सत्ता, उनकी महिमा को यदि जानना हो तो उदय भावलकर का गान आपकी मदद करेगा। राग वही जो पुराने जमाने से चले आ रहे हैं, पर उन्हें अपनी कल्पना से निखारते उन्होंने उनके रूप सौंदर्य का अलहदा संसार सिरजा है।  ‘तू ही करतार...’, सुर संगत में सौं गावे...,’, ‘अबीर गुलाल की भर-भर झोरी...’ आदि कितनी ही शृंगार तत्वज्ञान, नाद भेद, ऋतु वर्णन की बंदिशों में वह स्वरों का विस्तार करते हैं तो लगता है, उनका कंठ ही वाद्य-वृंद है। सुनेंगे तो इसे और भी गहरे से अनुभत करेंगे।

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