ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, June 4, 2022

पंडित भजन सोपोरी --संतूर में लयकारी का विरल संयोजन! राग—राग रस!

 पंडित भजन सोपोरी 'संतूर संत' थे। मूलत: वह सूफी घराने से थे पर संतूर को उन्होंनें ता-उम्र संत की तरह साधा। निरंतर उसमें नवीन प्रयोग किए। उसके गायकी अंग को निखारा। तंत्रकारी अंगो का विस्तार करते माधुर्य के बहुतेरे नये अध्याय भी लिखे।  मन के तारों को झंकृत करता संतुर का उनका 'ज़मज़मा' कमाल का था। तारों पर 'मेज़राब' से वह हल्का प्रहार कर बहुतेरी बार जब वहीं ठहर जाते तो मंदिर की घंटियों सा निनाद कानों में जैसे रस घोलता।

संतूर माने शततंत्री। सौ तारों वाला वाद्य। पर संतूर की अपनी आरम्भ से ही सीमाएं रही है। सुफियाना संतूर एक सप्तक का होता है। माने वहां रागों का फैलाव नहीं हो पाता। तीन सप्तक का हो तो यह फैलाव हो! सो भजन सोपोरी ने संतूर में इसे संभव करते बहुत से तकनीकी परिवर्तन किए। लकड़ी के बने 27—28 की बजाय संतूर के 45 गोटे (ब्रिज) उन्होंने इसमें बनवाए। संतूर में वीणा तत्व की मौजूदगी कायम की। रागदारी से जोड़ते संतूर में गान की बारीकियों के विरल प्रयोग फिर उन्होंने किए। भारतीय शास्त्रीय संगीत की रागरागिनियों के साथ ही गायकी अंग में गजल, भजन, नज्म़ों का भी अनूठा संसार संतूर में उन्होंने सिरजा।

संतूर की शिक्षा पंडित भजन सोपोरी को उनके पिता पंडित शंभुनाथ सोपोरी से मिली। पर उस सीखें में निरन्तर उन्होंने अपने तई बढ़त की। सुनेंगे तो लगेगा, शास्त्रीय रागों में दर्शित भाव को कश्मीर के लोक रागों में ढालते उन्होंने धुनों की प्रकृति को जैसे गहरे से जिया है। संतूर के उनके शास्त्रीय रागों का आलाप, जोड़, गत और द्रुत तीनताल की रूहदारी मन को सुकून देने वाली है। याद है, पहले पहल राग गावती में उनका संतूर सुना था। ढलती सांझ के कितनेकितने रंग मन में जैसे सदा के लिए तब समा गए थे। फिर तो उन्हें निरंतर सुनता ही रहा हूं। राग विभाश, चन्द्रकौंश, बागेश्री आदि में आप भी सुनेंगे तो मन करेगा गुनें। बस गुनते ही रहें।

'राजस्थान पत्रिका' 4 जून, 2022

यह महज संयोग ही नहीं है कि वह जब पांच वर्ष के थे तभी 1955 में श्रीनगर में उन्होंने अपनी पहली प्रस्तुति संतूर के एकल शास्त्रीय वादन से ही दी। संतूर में नवाचार करते बाद में उन्होंने भांतभांत के शास्त्रीय और लोक रागों में इसे सजाया। संतूर में 'बोल', 'छंद' और 'लय' का नया मुहावरा भी उन्होंने बनाया। शास्त्रीय संगीत की संतूर की व्यवस्थित शैली 'सोपोरी बाज' की भी उन्होंने अपने तई स्थापना की। सोचता हूं,  संतूर में क्याक्या उन्होंने नहीं रचा! भजन, गजलें, ओपेरा और भी बहुत सारा। सुनेंगे तो लगेगा, संतूर बजता नहीं गाता हुआ, नृत्य में रमतारमाता हुआ सदा के लिए हमारे ज़हन में बस जाता है। संगीत और प्रदर्शन कला के लिए उन्होंने 'सा मा पा', सोपोरी अकादमी की भी शुरूआत की। संस्कृत, अरबी, फारसी, राजस्थानी, सिंधी और बहुत सारी दूसरी भाषाओं में उन्होंने संगीत सिरजा तो देशभक्ति गीतों को भी विरल धुनों से निरंतर संपन्न किया।

उन्हें सुनते रागराग रस की अनुभूति होती है। सितार पर भी उनकी गजब की पकड़ थी। यह था तभी तो बहुतेरी बार उन्हें सुनते संतूर के तारों में वीणा के अलौकिक संसार की भी झलक मिलती रही है। याद है, एक दफा उनसे जब भेंट हुई तो शततंत्री वीणा से संतूर की यात्रा पर बहुत कुछ नया उन्होंने बताया था। उस मुलाकात में ही रमा मन संतूर की उनकी रूहदारी में बस रहा है। लयकारी का अतुलनीय संयोजन! रागराग रस! ध्वनि में दृश्यों का अनूठा संसार और उनकी वह दिव्य उपस्थितिअब कहां!

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