ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, January 28, 2023

अंतर्मन अनुभूतियों का ताल रूपान्तरण


गणतंत्र दिवस पर देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान के अंतर्गत इस बार उस्ताद जाकिर हुसैन को 'पद्म विभूषण' देने की घोषणा महत्वपूर्ण है। उस्ताद जाकिर हुसैन इस दौर के अनूठे तबला वादक ही नहीं है बल्कि भारतीय संगीत परम्परा के ऐसे  मनीषी हैं जिन्होंने अपनी मौलिक दृष्टि और प्रयोगधर्मिता से इस ताल वाद्य को निरंतर संपन्न करते उसे सर्वथा नया मुकाम दिया है।

 राजस्थान पत्रिका 28 जनवरी 2023


तबला एकल वाद्य नहीं है। प्राय: गायन और दूसरे वाद्यों की संगत से जोड़कर ही इसे देखा जाता रहा है पर जाकिर हुसैन ने इसे स्वतंत्र पहचान दी। बल्कि कहूं इस साज़ को लुभाने वाली ज़बान दी। ऐसी जिसमें जीवन से जुड़े भांतभांत के अनुभवों को हम सुन सकते हैं, सुनते हुए निंरतर गुन सकते हैं। तबले में निहित उनकी ताल मानों काल से होड़ करती है। समय के अनंत प्रवाह से साक्षात् कराती। संगीत में लय की प्रतिष्ठा किससे है? ताल से ही तो! उस्ताद जाकिर हुसैन ने ताल की स्वतंत्र प्रतिष्ठा में इसे निरंतर जीवन की लय से जोड़ा है। उनका तबला सुनेंगे तो लगेगा, अन्तर्दृष्टि संवेदन में ध्वनि से भावों की अद्भुत व्यंजना वहां है।

याद पड़ता है, एक कार्यक्रम में तबले का उनकाकायदासुना था। तबले में परम्परागत शास्त्रीय संकेतो को बिगाड़ते हुए इसमें तेज दौड़ते घोड़े की टापों के साथ कड़कती बिजली में झमाझम होती बारिश की वह जैसे अनुभूति करा रहे थे। ऐसा ही तब भी होता है जब वह अपने तबले पर डमरू के नाद का आभाष कराते हैं। तबले पर डमरू के नाद की अनुभूति से हम जुड़ते ही हैं कि औचक शंख ध्वनि से साक्षात् होने लगता है। ऐसे ही नदी की कलकल, झरनों के झरझर और भी बहुत सी  ध्वनियों के भांतभांत के भावलोक में ले जाते वह लय और छंद में ताल का विरल आधार खड़ा करते है। उनके तबले में बंधे अंतराल की नियंत्रित अवधि यानी मात्राओं के छोटेछोटे सुगठित गुच्छे भी लुभाते हैं। काल के अंतरालों का विशेष विन्यास! चुप्पी और फिर होलेहोले होती गूंज!  छंदों के इस अन्तर्विन्यास में उनका तबला ध्वनि के विस्तार और उसकी सीमाओं को पहचानता सुनने वालों से संवाद करता है। तबले पर थिरकती उनकी अंगूलिया जैसे दृश्यभाषा रचती है। गत-फर्द और अद्भुत उठान के इस दौर के वह विलक्षण कलाकार हैं।

जाकिर हुसैन ने ताल वाद्य में पूर्व-पश्चिम के मेल के साथ अंतर्मन अनुभूतियों का अनूठा रूपान्तरण किया है। यह लिख रहा हूं और उनके एकल तबले की लय में ही मन जैसे रमने लगा है। होले होले तबले की उनकी थाप गति पकड़ती औचक थम जाती है! रह जाती है बस एक गूंज। आवृत्तियां...विलम्बित लय में मध्य और फिर द्रुत… प्रस्तार!  प्रस्तार माने विस्तार, फैलाव।  त्रिताल काधिनऔर एकताल काधिनभिन्न आघात पर अनूठी साम्यता! उनका एकल तबला वादन तो विरल है ही पर उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली, ओंकारनाथ ठाकुर, पं. रविशंकर, अली अकबर खाँ,. हरि प्रसाद चौरसिया और उसके बाद की पीढी में शाहिद परवेज़, राहुल शर्मा, अमान-अयान  के साथ उन्हें सुनेंगे तो लगेगा वहां तबले कीसंगतभर नहीं है लयात्मक गतियों में जीवन जैसे गुनगुना रहा है। पिता उस्ताद अल्ला रक्खा खां की विरासत में मिली तबला वादन परम्परा में उन्होंने निंरतर बढ़त ही नहीं की बल्कि उसे जीवंत करते जनमन से जोड़ा है। उन्हें पद्म विभूषण का अर्थ है, संगीत की हमारी महान परम्परा का सम्मान।

Saturday, January 21, 2023

नृत्यांगना पद्मश्री गुलाबो से बातचीत

 दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रम 'संवाद' में...

इस बार मशहूर नृत्यांगना पद्मश्री गुलाबो से बातचीत हुई। जिस नृत्य को हम कालबेलिया से जानते हैं, असल में वह गुलाबो का ही ईजाद किया हुआ है। सांप पकड़कर, बीन के साथ उसे नचाते करतब दिखाने वाले नाथ समुदाय से आती है—गुलाबो।...बहुत सारी बातें हुई, होती रही और धन्वन्तरी से गुलाबो बनी इस नृत्यांगना के जीवन की किताब के पन्ने दर पन्ने खुलते चले गए...










Saturday, January 14, 2023

निर्गुण शिव से साक्षात् का प्रार्थना पर्व

सक्रांति माने संगमन। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। सूर्य जब एक राशि को छोड़ दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो सक्रांति होती है। बारह राशियां की बारह ही सक्रांतियां होती है। यों सब की सब पवित्र है पर मकर सक्रांति विशिष्ट है। पुराण कहते हैं, सात घोड़ों द्वारा खींचे जाते, एक चक्रीय रथ पर सवार सूर्य जब मकर राशि में प्रवेश कर उत्तर दिशा की ओर प्रयाण करते हैं तो देव जगते हैं। यह महानिशा से जाग की घड़ी है। देवताओं की प्रभात बेला! इसीलिए यह मंगलमय है। यही वह समय होता है जब दिवस माने उज्ज्वलता बढने लगती है और कालिमा से जुड़ी रात्रि छोटी होने लगती है।

राजस्थान पत्रिका, 14 जनवरी 2023

छान्दोग्यपनिषद् में वर्णित मधु विधा के प्रवर्तक महर्षि प्रवाहण हैं। मकर सक्रांति की खोज उन्होंने ही की। अपनी साधना के अनन्तर उन्होंने इसी दिन पंचम अमृत ’मधु’ प्राप्त किया। मकर सक्रांति इसलिए सूर्य का अमृत तत्व की ओर अवगाहन है। यह निर्गुण शिव से साक्षात् की घड़ी है।

 शिव वह जो सकल जगत के सृष्टिकर्ता है। परम मंगलमय उन परमेश्वर का नाम ही सविता है। सविता, आदित्य और सूर्य सब एक ही है-सृष्टि पालक शिव के रूप। 

मकर सक्रांति से सूर्य अपनी अनूठी आभा में गगन मंडल में विराजने लगते हैं। यहीं से  कर्म की शुभ वेला प्रारम्भ होती है। पूरा माघ माह ही पवित्र, उत्सवधर्मी है। दान-पुण्य से जुड़ा माह! मघ संस्कृत शब्द है। अर्थ होता है-धन, स्वर्ण, वस्त्राभूषण, अन्न इत्यादि। इन पदार्थों के दान-पुण्य से जुड़े होने के कारण मकर सक्रांति का एक नाम माघी सक्रांति भी है। माघ मास प्रकृति से जुड़ा प्रार्थना पर्व है। 

आईए, सप्तरंगी सूर्य से, शिव से हम इस पर्व पर अर्चा करें, ’हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान का प्रकाश मिले।’

कहते हैं, वह मकर सक्रांति ही थी जब गंगा राजा सगर के शापित साठ हजार पुत्रों का उद्धार किया। देवताओं की प्रभात बेला पर शरीर त्यागने के लिए शांतनु पुत्र भीष्म शरशय्या पर लेटे रहे। उन्हें पिता से ईच्छा मृत्यु का वर प्राप्त था, सो उन्होंने प्रतीक्षा की- सूर्य उत्तरायण में प्रविष्ट हो तो प्राण तजूं! यही हुआ भी।

गुजरात, महाराष्ट्र में इस दिन घरों के बाहर लोग रंगोली सजाते हैं। एक-दूसरे से हिल-मिल तिल-गुड़ खिलाते हैं और कहते हैं, ’तिल गुड़ध्या आपि गरुड़ गरुड़  बोला’ माने तिल गुड़ लो और मीठे बोल बोलो। यही वह समय भी होता है जब हर ओर, हर छोर आकाश पतंगों से भर जाता है। 

मुझे लगता है, मकर सक्रांति का पतंगों से नाता भी प्रभु से की जाने वाली प्रार्थनाओं से ही जुड़ा है। बचपन से एक भजन सुनता आया हूं, ’साईं मैं तेरी पतंग।...थामे रहना जीवन की डोर।’ पूरे भजन का अर्थ है-हे ईश्वर! मैं तेरी पतंग हूं। हवा में उड़ती जाऊंगी, डोर मत छोड़ना। सांसारिक आकाश में कितने जंजाळ हैं उलझने मत देना। पेच लड़ गया तो कट जाऊंगी। बचाकर रखना। 

रामकृष्ण परमहंस ने भी कहा, ’मां ने आत्मा की पतंग को ऊपर उड़ा रखा है पर माया की डोर से बांधे हुए है अपने साथ। मां की कृपा होगी वही मुक्त होगा। सोचता हूं, प्रार्थना के ऐसे स्वर ही मकर सक्रांति पर पतंग उड़ाने के हेतु बने होंगे। तमसो मा ज्योतिर्गमय!