ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, December 27, 2020

भाव भरी संगीत की अंजूरी

संगीत ध्वनियों का माधुर्य है। शब्द नहीं भी हो तो संगीत अर्थान्वेषण में मन को स्पन्दित करता है। सौंदर्यबोध और सुरुचि से जो जुड़ा होता है यह! नदी के प्रवाह की मानिंद बहता संगीत इसीलिए बहुतेरी बार न समझ आए शब्दों में भी हममें बस जाता है। डाॅ. मंगलमपल्ली बालामुरली कृष्ण का संगीत ऐसा ही रहा है। वह नहीं है पर उन्हें सुनते मन करता है, गुनें और गुनते ही रहें। स्वरों का सूक्ष्म संकेत वहां है। मंगलम् यानी मंगल करने वाला। शुभता का द्योतक। मन को अवर्णनीय आनंद की अनुभूति देने वाला। अपने तई संगीत, ज्ञान और विवेक से उन्होंने कर्नाटकी संगीत को नया मुहावरा दिया। आलाप के विविध मार्गों में मन को रंजित करता उनका गान पहले से रचे रागों का पुनराविष्कार करने वाला है। वह आलाप के सहारे राग को वहां तक ले जाते जहां तक ले जाने की आम कोई गायक सोच नहीं सकता। शब्दों का मधुर उच्चारण। हिंदी उन्हंे नहीं आती थी परन्तु पंडित भीमसने जोषी, किषोरी अमोनकर, पंडित जसराज के साथ उनकी जुगलबंदी को सुनेंगे तो लगेगा, शब्द शुद्धता में वह राग से अनुराग कराते। गान में शब्द के प्रकाष को दूर कहां तक ले जाना है और कहां उसे होले-होले कम करना है, यह उन्हें बखूबी आता था। यही कारण था, उनका गायन भाषा की सीमा से परे मन में गहरे से उतरता। बल्कि जो वह गाते, उसे फिर से वैसे ही गुनगुनाने का भी मन करता है। कहें, राग स्वर से वह एक भावनात्मक वातावरण सिरजते थे। ऐसा, जिसके ओज से हर कोई नहाना चाहता।

मुझे लगता है, जीवन के विविध  रंगो की रूपगोठ है, डाॅ. बाला मुरली कृष्ण का संगीत। कभी अहीर भैरव में उनका गाया ‘तिलाना’ सुना था। वाद्यों की संगत में वह गा रहे थे ‘नादिर धिन-धिन...’ पर लगा जैसे नृत्य के सर्वांग से साक्षात् हो रहा हूं। उन्हें सुनते यही होता है। बहुतेरी बार वह अपने गायन में नृत्य की भाषा भी रचते थे। उत्सवधर्मिता का रंग नाद ही तो था उनका गायन! गले से संगीत, नृत्य, चित्रकला और तमाम दूसरी कलाओं को वह व्यंजित करते कलाओं के अंतःसंबंधों से भी जैसे वह साक्षात् कराते हैं। विष्वास नहीं हो तो सुनें पंडित भीमसेन जोषी के साथ की उनकी वह जुगलबंदी, ‘मानस भज रे गुरूदेवम्...अमृत मधुर संगीत सुधाकर’। शब्द-षब्द सौन्दर्य, माधुर्य। स्वरों का अद्भुत उजास। और हां, ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ में उनकी गायी पंक्तियांे पर भी गौर करेंगे तो पाएंगे भाषा भेद से परे विरल लालित्य उनके स्वरों में है। ऐसा जो सुनने के बाद मन में सदा के लिए बस जाता है। उनकी स्वयं कंपोज रचना ‘मंगलम्’ तो अद्भुत है। सीधे-सपाट स्वर। राग का कहीं कोई उलझाव नहीं परन्तु शब्दों को परोटने का अनूठा अंदाज। जैसे कोई संगीत का बहुत अधिक ज्ञान नहीं रखने वाला सीधे-सीधे गाकर वेंकेटेष्वरन को मंगल के लिए निवेदित है। पर सुनेंगे तो मन करेगा, फिर से सुनें। सुनते ही रहें। इसलिए कि डाॅ. बालामुरली कृष्ण ‘मंगलम’ में सुरों का विरल आकाष रचते हैं। इसलिए कि वहां मौन का निवेदन है। इसलिए कि सहज संगीत वहां प्रवाहित है। उनकी यही बड़ी विषेषता थी-वह जन-मन से जुड़े संगीत भावों को अपने गले से सदा ही साधते थे। 

‘त्यागराज पंचरत्न कीर्ति’ के अंतर्गत ‘नगमोगू जंदानंद कारका...’ सुनते मन अध्यात्म के रंग में पूरी तरह से रंग जाता है। मुझे लगता है, संत कवि त्यागराज की रचनाओं को तो उन्होंने अपने तई संगीत में जज्ब कर लिया था। लय और ताल पर उनकी विषिष्ट पकड़ थी। यह था तभी तो संत त्यागराज की तेलगू भाषा में रची रचनाओं, खासकर राम की प्रषंसा में रचे शब्दों को उन्होंने इस दौर में जैसे फिर से पुर्नजीवित किया। कर्नाटक संगीत के रागों में आरभी, आदि तालम् में गाया उनका ‘सीता कल्याण-वैभागमी’ राम-सीता विवाह के बहाने प्रकृति का मधुर वर्णन है। भोर, सूर्यादय, पेड़-पौधों पर खिले फूल, जीवने की उमंग की जैसे उन्होंने अपने इस गान में सुमधुर व्यंजना की है। उन्हंे सुनते लगेगा, भाषा भेद समाप्त हो गया है। रह गया है तो बस संगीत।

कर्नाटक संगीत का अर्थ है प्राचीन, पारम्परिक। कभी 14 वीं से 16 वीं सदी में विद्यारण्य, रामामात्य, विट्ठल आदि संगीत विभूतियों ने इस संगीत को अपार लोकप्रिय किया। पुरंदरदास ने संस्कृत और कन्नड़ में संगीत के माध्यम से उपदेष जन-जन तक पहुंचाए। और फिर चैन्नई वैद्यनाथ भागवतार, एस.एस.सुब्बालक्ष्मी की परम्परा को आगे बढ़ाने का कार्य कर्नाटक संगीत में डाॅ. बालामुरलीकृष्ण ने किया। उनके गाए कीर्तन ईष्वर की संगीताराधना है। यह सही है, कर्नाटक संगीत में कृतियां राग और निष्चित ताल में निबद्ध होती है। उनसे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। बालाकृष्णमूरली ने भी कृतियों, कीर्तन संतो या वाग्येयवात की रचनाओं को निष्चित राग और ताल में ही गाया पर अपने मौलिक अंदाज का घोल उन्होंने उनमें किया। माने वह अपने मन के भावों को निष्चित राग-ताल में इस कदर अलंकृत करते कि गान में  उनका अपना एक नया मुहावरा बना। ऐसा जो सुनने वालों को गाने वाले के मनोभावों की गहराई में ले जाता। इसीलिए कहें, उनका गान तन-मन को रंजित करता अंतर्मन संवेदनाओं का अनूठा उजास बिखेरने वाला था। 

डाॅ. बाला कृष्ण मुरली ने बहुत से नए राग भी कर्नाटक संगीत को दिए। बहुत सारी बंदिषे भी बनाई पर सबसे बड़ी बात यह कि उन्हें अपनी संगीत साधना से गान में शोभायमान किया। वह गाते तो स्वयं उसमें डूब जाते, या कहें लीन हो जाते। कीर्तन में पदों को राग में निभाने का उनका अपना मौलिक अंदाज है। सही और भावुक उच्चारण! भाव भरा, नेह से ओत-प्रोत। स्वर सौंदर्य लिए। शायद इसलिए कि रागों पर और ताल पर उनका पूरा कलात्मक अधिकार था। रागमानिलका, तालमालिका, वर्णम् के बंधे नियमों के बावजूद उन्होंने अपने गायन का सर्वथा नव्य कर्नाटकी संगीत मुहावरा बनाया। वह मृदंगम्, घटम्, मंजीरा और बांसूरी, वायलिन, वीणा वादन भी करते थे। इसीलिए संगीत से जुड़ी सूक्ष्म सूझ उनमें भी। मुझे लगता है, उनका संगीत मनोधर्म संगीत है। अपने संगीतानुभव से सिरजा हुआ। कल्पना और मौलिक दीठ के साथ भावों का अनूठा भव ही तो है उनका संगीत!

उन्हें गाते हुए सुनेंगे तो यह अहसास भी बारम्बार होता है कि वह अंतर्मन संवेदनाओं में संगीत को ही ओढ़ते और बिछाते थे। यह महज संयोग ही नहीं है कि ‘माधवाचार्य’ फिल्म के संगीत निर्देषन के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और अर्सा पहले आई इस फिल्म में उनके गाए ‘वंदे वन्ध्यम सदानंदम वासुदेवम...’ को सुनेंगे तो पाएंगे लोकप्रिय माध्यम में भी उन्होंने संगीत की शास्त्रीयता की विरल दीठ को संजोया था। ‘हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत घरानों की दिग्गज हस्तियों के साथ उन्होंने जुगलबंदी की। तेलगू फिल्म ‘भक्त प्रहलाद’ में उन्होंने अभिनय भी किया और कभी रवीन्द्र संगीत की रचनाओं को बांग्ला भाषा में रिकाॅर्ड भी किया परन्तु जो भी किया, उसमें सुने-गुने को ही फिर से नहीं सिरजा बल्कि अपने तई उसे नवीन व्याकरण भी दिया। वह कहते भी, ‘सभी प्रस्तुतियों को मैं चुनौती के रूप में लेता हूं। मैं सभी प्रकार के संगीत को पंसद करता हूं। सब में एक सीख जुड़ी होती है। फ्यूजन विविध प्रकार के संगीत की समझ को संभव बनाता है। मेरे लिए श्रुति माता है और पिता लय। कर्नाटक-हिंदुस्तानी संगीत जैसा कुछ नहीं है। संगीत बस संगीत होता है। संगीत जीवन है। अगर संगीत नहीं है तो फिर जीवन में कुछ भी नहीं है। जैसे सूर्य, चन्द्र और उनका प्रकाष है, ठीक वैसे ही जीवन में संगीत का अस्तित्व है।’

डाॅ. बालामुरलीकृष्ण ने 50 के करीब नए रागों को सिरजा। बहुत सारी बंदिषे बनाई। अपने गाए गीत भी लिखे और संत परम्परागत कृतियां, कीर्तन आदि को अपने तई गुना और फिर से नयी दीठ में बुना। नयी सिरजी रागों पर उनका कहना था, ‘नए राग कंपोज नहीं होते अचानक गाते हुए अपने आप ही सृजित हो जाते हैं। और जब कभी ऐसा होता, मैं उन्हें नोट कर लेता और एक गीत उस राग में कंपोज कर देता।’ वह संगीत को अपना भगवान मानते थे। इसीलिए बार-बार कहते भी थे, ‘मेरा संगीत मेरा भगवान है।’ 

बहरहाल, आंध्रप्रदेष के संकरागुप्तम में जन्मे मंगलमपल्ली बालामुरली कृष्ण जब 6 वर्ष के थे तभी से गाना शुरू कर दिया था। जब 8 वर्ष के वह थे तभी उन्होंने सार्वजनिक सभाओं में प्रस्तुति प्रारंभ कर दी। उनकी माता उत्कृष्ट वीणावादक थी तो पिता निपुण बांसूरी वादक। माता-पिता के जन्जमात संगीत संस्कारों के साथ ही उन्होंने कर्नाटक संगीत के विद्वान संगीतज्ञ परूपल्ली रामकृष्णया पंटुलु से संगीत की बारीकियां सीखी। तेलगूभाषी होते हुए भी उन्होंने कन्नड़, संस्कृत, तमिल, मलयालम, हिंदी, बंगाली आदि कईं भाषाओं में देष-विदेष में 25 हजार से अधिक साधिकार प्रस्तुतियां दी। पर उन्होंने अपने सीखे को सीखाते हुए नई पीढ़ी को संस्कारित भी किया। जिनमें सीखने की ललक दिखती, उन्हें वे निःषुल्क सीखाते भी। यह सब लिख रहा हूं और उनका गाया सुना हुआ बहुत सारा जेहन में फिर से बसने लगा है। 



Friday, October 2, 2020

'पुस्तक संस्कृति' मे 'नर्मदे हर'

नेशनल बुक ट्रस्ट ​इण्डिया की लोकप्रिय पत्रिका 'पुस्तक संस्कृति' के सितम्बर—अक्टूबर 2020 अंक मे 'नर्मदे हर' पर केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पूर्व उपाध्यक्ष, प्रेमचंद के लेखन के मर्मज्ञ विद्ववान डॉ. कमल किशोर गोयनका की यह दीठ और नर्मदा के अनथक पदयात्री अमृतलाल वेगड़ जी का पत्र... (पुस्तक की पाण्डुलिपि उन्होंने बांची थी और और तभी उन्हें यह इतनी दाय आयी कि इस पर अपनी सुंदर हस्तलिपि में अपने को व्यक्त किया था)



Sunday, July 12, 2020

यात्रा वृतान्त 'नर्मदे हर' -डा. कमल किशोर गोयनका


केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पूर्व उपाध्यक्ष, उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द साहित्य के मर्मज्ञ, विद्वान डा. कमल किशोर गोयनका ने यात्रा वृतान्त 'नर्मदे हर' के प्रकाशन के त्वरित बाद पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया मेल से भिजवाई थी। उनकी यह दीठ ..




कहन—सुनन



'कहन—सुनन' में

'कहन—सुनन' कार्यक्रम में कुछ समय पहले बोधि प्रकाशन के प्रकाशक, कवि  श्री मायामृग ने यात्रा वृतान्त साहित्य पर लम्बा संवाद किया।

इस संवाद में घुमक्कड़ी के अपने अनुभवों के साथ ही यात्रा साहित्य की परम्परा पर भी बोलना हुआ।

चाहें तो इस साक्षात्कार सेआप भी इस लिंक के जरिए साझा हो सकते हैं—

https://www.youtube.com/watch?v=YuOLHquECtU&feature=youtu.be&fbclid=IwAR3Vse1nnR-T-xVnuHkWFKJ2mmP-6x_DUDRPoGVpNpPu1nG-el6uyd16xhs

बातों बातों में ...



बातों बातों में


समालोचक श्री सुनील मिश्र ने लोकप्रिय कार्यक्रम 'बातों बातों में' के लिए एक साक्षात्कार किया। यूट्यूब पर यह उपलब्ध है,चाहें तो मित्र देख सकते हैं।
लिंक यह है —
https://www.youtube.com/watch?v=cVODlucCkp8&feature=share&fbclid=IwAR0w_kUQQz4yLG8rz3h27HsIHdXLEEiU7Cu_yrtu6ttsW4kJcjKMzPySHOg

"बातों बातों में" के 78वें भाग में 9 जुलाई को शाम 7 बजे हमारी भेंट प्रतिष्ठित कला आलोचक एवं संस्कृतिकर्मी डॉ. राजेश कुमार व्यास से होगी। वे जयपुर में रहते हैं।
डॉ राजेश कुमार व्यास बहुआयामी प्रतिभा के लेखक, आलोचक, संपादक एवं संस्कृतिकर्मी हैं। उन्होंने राजस्थान की संस्कृति के सार्थक विस्तार के लिए महत्वपूर्ण योगदान किया है। उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। लगभग 21 पुस्तकों में राजस्थानी कविता संग्रह, राजस्थान की डायरी, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण आदि शामिल हैं।
नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया से प्रकाशित उनके दो यात्रा वृतांत कश्मीर से कन्याकुमारी और नर्मदे हर, इसके अलावा संगीत सर्जना की सुर जो सजे तथा नृत्य आदि कलाओं पर रंगनाद, भारतीय कला, सांस्कृतिक राजस्थान आदि का प्रकाशन पाठकों और कला प्रेमियों में बहुत प्रशंसनीय रहा हैl डॉ. राजेश कुमार व्यास को अब तक अनेक सम्मान मिले हैंl उन्हें केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा उनकी काव्य कृति कविता देवै दीठ के लिए पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है l सृजन के अनेकानेक आयामों में वे विनम्र साधक की तरह काम करते हैंl उनसे बातचीत उनके बहुत सारे अनुभव का जीवंत और अनुभूतिपरक साक्ष्य होगी, यह हमारा विश्वास हैl
9 जुलाई को 7 बजे शाम यदि आप व्यस्त न हों तो एक घंटे हमारे साथ अवश्य रहिए। हमें अच्छा लगेगा।
 --सुनील मिश्र 



Saturday, July 11, 2020

संस्कृति, भूगोल, इतिहास और प्रकृति-प्रेम की रोचक गाथाएं सुनाती यात्राएं

मित्र ज्ञानेश उपाध्याय इस दौर के विरल संपादक, लेखक हैं। 'नर्मदे हर' पर उन्होंने विस्तार से लिखा है। शिक्षा विभाग की लोकप्रिय पत्रिका  'शिविरा' के जुलाई 2020 अंक  में प्रकाशित उनकी यह दीठ आप मित्रों के लिए भी...


Friday, July 10, 2020

कैमरे की आंख से सिनेमा सृजन का इतिहास

'आजकल' जुलाई अंक में ....

निमाई घोष ने कैमरे की आंख से सिनेमा सृजन का एक तरह से इतिहास लिखा। सत्यजीत राय की छाया-छवियों के बहाने चलचित्र सृजन की प्रक्रिया और उसके इतिहास की सूक्ष्म सूक्ष को अपनी कला में गहरे से अंवेरा। कहूं, सत्यजीत राय के सिनेमा निर्माण से जुड़ी साधना का दृष्य कहन है निमाई घोष की छायांकन कला। उनकी छायांकन कला हमें उस काल बोध से भी जोड़ती हैं जिसमें बजरिए श्वेत-श्याम से लेकर रंगीन छायाचित्रों के सफर में सिने सृजन का पूरा एक युग हमारे समक्ष उद्घाटित होता है।




Saturday, May 9, 2020

‘रामायण’ धारावाहिक की लोकप्रियता के मायने

लोकप्रिय दैनिक 'राष्ट्रदूत' में आज यह अतिथि सम्पादकीय

"...मुझे लगता है, हम-सब में कुछ-कुछ राम बसता है। इसीलिए तो जब कहीं कुछ बुरा होता है, कोई कुछ गलत करता है तो औचक मुंह से निकलता है, ‘राम निसरग्यो!’ माने इसके भीतर का राम चला गया है। ...यह वक्त मनोरंजन शब्द के वास्तविक अर्थों को समझने का भी है। मनोरंजन माने वह जिससे मन रंजित हो। षडयंत्रों, डरावने, अश्लीलता परोसने वाली कथाओं से मन रंजित नहीं होता बल्कि त्रासदियों, अपराधबोध और अंततः अवसाद से ही घिरता है। स्वस्थ मनोरंजन अंतर्मन संवेदनाओं को अर्थ प्रदान करने वाला, भीतर से संपन्न करने वाला होता है। ‘रामायण’ धारावाहिक की लोकप्रियता को क्या इसी अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए! ...दर्शक संवेदना से लबरेज ऐसे धारावाहिक अभी भी अधिक पंसद करते हैं, जिन्हें बगैर किसी घालमेल के बनाया गया हो। जिनमें व्यावसायिक हितों की अपेक्षा मानवीय मूल्य केन्द्र में हो और जिनमें भव्यता के नाम पर दिव्यता को बिसराया नहीं गया हो।...अच्छेपन को हर कोई चाहता है। डरावने, आपराधिक मसलों के नाटकीय रूपान्तरण, नाग-नागिनों, सास-बहुओं आदि के बेसिरपैर की कथाओं के अंतहीन चलने वाले धारावाहिकों के प्रसारक चैनलों ने असल में इधर दर्शकों की रूचियों को मोड़ा नहीं है बल्कि बाजार की ताकतों के चलते उन्हें नशीले पदार्थों के सेवन की मानिंद अपना आदि बनाने का एक तरह से चक्रव्यूह रचा है। ...व्यक्ति एकान्त तो चाहता है परन्तु अकेलापन उसे नहीं भाता। आपा-धापी नहीं हो, कहीं जाने की उतावली नहीं हो और इस बात की फिक्र नहीं हो कि सब भाग रहे हैं, मैं कहीं पीछे नहीं रह जाऊं तभी ठहरकर अपने भीतर झांकने का वक्त मिलता है। अनर्गल कुछ भी सहने से तब वह बचने का भी उपाय तलाशता है। कोरोना में कुछ-कुछ ऐसा ही समय हरेक को मिला है। "...

Monday, May 4, 2020

आंचलिकता का लालित्य

"... इस  समय जो गद्य लिखा जा रहा है, उसमें ‘मेरी चिताणी’ इस मायने में विरल है कि लेखक ने इसमें अपने गांव के बहाने जीवन को व्यापक परिप्रेक्ष्य में गुना है। कहन के सहज, आंचलिक पर दार्शनिक बोध में लिखे का उनका आत्मकथात्मक लालित्य लुभाने वाला है।..."
राजस्थान साहित्य अकादेमी की पत्रिका "मधुमती" में -





Saturday, May 2, 2020

नवनीत, मई 2020 अंक

"...सतीश गुजराल ने चित्रों की अनूठी काव्य भाषा रची। उनके चित्र, मूर्तियों, म्यूरल और इमारतों की सिरजी संरचनाओं में भारतीय कलाओं के सर्वांग को अनुभूत किया जा सकता है।...आकृतिमूलक होते हुए भी सांगीतिक आस्वाद में अर्थ की अनंत संभावनाओं को उनकी कला में तलाशा जा सकता है। एक तरह की किस्सागोई वहां है। उनकी स्वैरकल्पनाएं (फंतासी) भावों का अनूठा ओज लिए सौंदर्यबोध की विरल जीवनदृष्टि है। यह सही है,उनके आरंभिक चित्र गहरा अवसाद लिए विभाजन की त्रासदियों पर आधारित है परन्तु बाद की उनकी कलायात्रा पर जाएंगे तो यह भी पाएंगे आत्मान्वेषण में उन्होंने भारतीय कला दृष्टि को अपने तई चित्र भाषा के नये मुहावरे दिये।..."



Sunday, April 19, 2020

एकांत को गुनते मौन को सुनें

कोरोना वायरस के इस दौर में जब हर ओर चुप्पी, सड़कों पर सन्नाटा पसरा है और घरों से बाहर जीवन थमा पड़ा है, मन का मौन जैसे भीतर के अनगिनत सवालों का जवाब है। मौन के गर्भ से ही तो भीतर की प्रज्ञा, बोध-शक्ति से साक्षात् होता है। यही वह समय भी है जब कईं बार मन आकाश बनता जैसे उड़ने को आतुर हो उठता है। मुझे लगता है, एकान्त ही हमें इच्छाओं, अपेक्षाओ से मुक्त करता है। इसलिए कि अपने भीतर झांकने, सोचने का अवकाश अकेले मे ही मिलता है। अन्यथा तो भौतिकता में, काम के बोझ में हम अपने से निरंतर दूर, बहुत दूर हुए जाते हैं।
भोर में उजास रोज ही होता है पर उसको देखने का अवकाश जैसे इन दिनों ही मिल रहा है। किताबे पढ़ते लगता है, ठीक से  समझ वह अभी ही आ रही है। 
यह जो एकान्त है, अपना खुद का चुना हुआ नहीं है इसलिए बहुतेरी बार बहुत बोझिल प्रतीत होता है पर किताबों में पढ़े हुए को गुनता हूं तो जैसे आलोक की किरणें यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी दिखाई देती है। इन्तजार करता हूं, सांझ का कि घर की छत पर पहुंच आकाश देखूं। पहले छठ-छमास ही घर की छत पर जाना होता था। पर इधर जब सब ओर बंद का आलम हैं। घर से बाहर, दुनिया के द्वार बंद है तो स्वाभाविक ही है, रोज ही छत पर जाना होता है। आकाश पर नजर जाती है। उसका नीलापन औचक मन का सूनापन जैसे मिटा देता है। निरंजन जो है, वह। विकार रहित। अनादि-अनंत। शाश्वत-सनातन। मन में विचार आते है, इसके  गर्भ से ही गृह नक्षत्रादि बनते और मिटते हैं। पर उनके अस्तित्व का अनुचिन्ह कभी आकाश अपने पास नहीं शेष नहीं रखता।  एकान्त का यह रस निरंजन है। कबीर की याद आती है, ‘एक नाद से राग छत्तीसो, अनहद बानी बोले।’  एकान्त के नाद में ही अनहद वाणी को सुना जा सकता है। अंदर  की पुकार सुनने का यही तो  समय है।
सांझ घिरने लगी है। सूर्य का ताप कम होता जान फिर से छत पर पहुंच जाता हूं। देखता हूँ, दिनभर पृथ्वी के कोने-कोने को भरपूर प्रकाशित करने के बाद थका-हारा सूर्य अब अपने घर लौट रहा है। आकाश में धूप की सफेदी के बाद श्यामली छांव का बसेरा होने लगा है। दूर कहीं पक्षियों की पूरी की पूरी एक टोली दिखती दूर कही विलीन हो गयी है। थोड़ी देर में ही पश्चिम में सिंदूरी होता व्योम अंधेरे की आहट सुनाने लगा। छत पर टहलते पता ही नहीं चला, कब आकाश मे तारों ने दस्तक दे दी। सर्वत्र छाए मौन में बचपन के वह दिन जैसे फिर से लौट आए है जिनमे घर की छत पर सोते असंख्य तारोंको गिनते-गिनते ही नींद आ जाती थी। पर अब कहाँ छत के वह दिन और तारों की वह गिनती और भरपूर नींद!  यही सोच रहा हूँ कि औचक आसमान में चमकते-दककते चांद ने जैसे अपनी और देखने की आवाज दी। तारों की छांव  के मध्य हीरे की अंगूठी की धज सा सुंदर चमकता चांद! आसमान मे छाए अंधेरे में चांद-तारों की रोशनी का चित्रपट और उसे निहारते विचारों का यह प्रवाह। कोरोना में थम से गये समय  की अनुभूति से ही तो उपजा है, मौन का यह मुखर। 
ऐसा पहली ही बार हुआ है, जब सामुहिक चेतना में कोरोना  से निजात पाने हम-सबने एकांत को चुना है।  इसी से हम अपने मनों से, आत्म से भी जुड़े हैं। जीवन के बने-बनाए ढर्रे, शोरोगुल और अधिक से अधिक पाने की उहापोह में अपने से ही गुम होते जाने की होड़ में यह वक्त हमें अपने होने का अहसास कराने वाला है। यह बचपन की यादों को जीवन में वापस लाने के दिन है। कुबेरनाथ राय का लिखा याद आता है, ‘पत्तियों का झरना धरती के सौंदर्य की करूणतम अवस्था है। करूणा में एक उदास सौंदर्य की उपलब्धि एक सर्वसाधारण अनुभव है।’  पर इस बात को भी समझें, करूणा विषाद नहीं है। महर्षि अरविन्द ने  बुद्ध की मूर्ति में उनके नेत्रों और ओष्ठों के भावों की अर्थपूर्ण व्याख्या की है।  उनके अनुसार भारतीय  बुद्ध प्रतिमाओं में करुणा का जो भाव घनीभूत रूप में विद्यमान है वह उनका अपना दुःख नहीं, अन्य सबका दुःख है। जगत के लिए करुणा है। वहां जो उत्कंठा दृष्टिगोचर होती है उसमें दुःख के निस्तार का आध्यात्मिक मार्ग छुपा है। यह सच है, करूणा में आस्था और विश्वास छुपा होता है। अच्छे से अच्छा होने की आस का बोध होता हैै। विषाद मृत्यु का बोध कराने वाला होता है। इसीलिये कहूँ, यह घड़ी विषाद की नहीं है।  हां, यह मानवता पर छाए कोहरे के प्रति करुणा के  दिन हैं। इसे उदासी का वक्त न कहें। आस्था और विश्वास की डोर हमें भविष्य के जीवन के नये सौंदर्यबोध से जोड़ेगी। इसलिए एकान्त के इस वास को आत्म की पुकार समझें।
छत पर टहलते यही सब कुछ मन विचार  रहा है। लगता है, घनीभूत एकान्त की इस वेला में प्रदूषण रहित आकाश में तारों की चमक रोशनी की राह है। 
आखों में नींद घुल रही है। छत की सीढ़ियां उतर रहा हूं। कुबेरनाथ राय का पढ़ा फिर से याद आने लगा,
‘एकान्त जितना पकहा होगा-मन उतना ही श्रीमद्भागवत का पन्ना बनता जाएगा।’
 और इसी के साथ ख़याल आता है, प्रकृति के मौन को सुनने, पक्षियों का कलरव सुनने, चांद की रोशनी  में नहाने और क्षण-क्षण की चेतना, आकाश की चित्रोपमता को अनुभूत करने के लिए कुछ समय के लिए थमना जरूरी है।  एक ही स्थान पर स्थिरता आवश्यक है। विचार करें, यह ऐसा ही समय है। घरों में रहें। समय के विलाप का नहीं अपने-विश्वास, आस्थाओं में जीवन चक्र को अनुभूत करते जीवंतता को कायम रखें। खुद से खुद का संवाद ही इसकी सबसे बड़ी राह है।
गुरू गोरखनाथ का जयघोष है ‘अलख निरंजन’। अलख का अर्थ होता है जगाना। निरंजन माने आकाश। वह अनंत, जहां कुछ भी शेष नहीं रहता। तो आइए, अपने को खाली कर, भीतर के प्रकाश से सम्पन्न होवें। कोरोना के इस प्रकोप में ‘अलख निरंजन’ के नाद के जयघोष में भविष्य के सुनहरेपन को  देखें। अपनी चुनी यांत्रिकता, शोरोगुल और भागमभाग में अपने भीतर न झांक पाने की अज्ञानता से मुक्त हों। यह सांस्कृतिक मनोपचार का दौर है। भले कुछ समय के लिए हम त्रासदी भोग रहे हैं पर खुद से खुद के वार्तालाप का यही वह समय भी है जो लौटकर फिर नहीं आएगा। इसे गुनें और किताबें पढ़ते, अच्छा कुछ सोचते, देखते, प्रकृति और जीवन की उदात्ता पर विचारते भविष्य के सुनहरेपन में इसे बुनें।

--"राष्ट्रदूत" में प्रकाशित अतिथि सम्पादकीय, 8 अप्रैल, 2020