इस वर्ष जिन 119 हस्तियों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, सुखद है कि उनमें बहुत से लोक कलाकार भी हैं। ऐसे दौर में जब आधुनिकता की चकाचैंध लोक कलाओं को लीलती जा रही है, उनसे जुड़े कलाकारों का पद्म सम्मान महत्वपूर्ण है। लोक ही तो जीवन का आलोक है! पद्मश्री पाने वालों में इस बार सिंधी सारंगी वादक राजस्थान के लाखा खान भी है। उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी सिंधी सारंगी में लोक संगीत को अंवेरते उसमें निरंतर बढत की है। बहुतेरी बार उन्हें सुना है। सुनते हर बार यह भी लगा, लोक स्वरों के सहज प्रवाह में जैसे वह माधुर्य का अनुष्ठान करते हैं।सिंधी सारंगी वादक लाखा खान
राजस्थान पत्रिका, 13 नवम्बर 2021 |
राजस्थान में जोगिया, अलाबू, गुजराती आदि सारंगी वादन की परम्परा है। लाखा खान सिंधी सारंगी बजाते हैं। यह शास्त्रीय संगीत की सारंगी नहीं है। रावण हत्थे की मानिंद वह इसे जब बजाते हैं, संगीत में पष्चिमी राजस्थान के गांव, वहां के जीवन की छवियां जैसे आंखों में बसने लगती है। यह सच है, उनकी सारंगी गाती हुई धोरों की धरा में बसे जीवन को आंखों में बसाती है। लोक स्वरों को शास्त्रीयता से नहीं जोड़ा जा सकता। यहां सारंगी संग तबला नहीं ढोलक बजती है। भले ही लोक संगीत में आरोह अवरोह क्रम में राग का कोई निष्चित स्वर नहीं हो पर लय की सहज प्रकृति, मात्राओं के विशिष्ट क्रम में सारंगी स्वरों का उजास बिखेरती है। मींड, गमक, मुर्की की छोटी छोटी बोलतानों में कंठ के स्वर जहां नहीं पहुंचते वहां लाखा खान की सारंगी पहुंच जाती है। लाखा खान के छोटे आकार की सारंगी को उनके गान संग सुनना स्वयं स्फूर्त स्वर छंद की माधुर्य बढत से साक्षात् है। लाखा खान राजस्थान के उस संगीत घराने के वारिस हैं जिनकी पच्चीस पीढ़ियां सिर्फ गाने-बजाने से ही जुड़ी रही है। वह जब 11 बरस के थे तभी से सारंगी बजाना प्रारंभ कर दिया था। बाद में लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी के जरिए सुदूर देषों तक उनकी सारंगी के स्वर बिखरे। राजस्थान की धोरा धरा को अपनी सारंगी में लोक रागों के जरिए जीवंत करते लाखा खान को पद्मश्री लोक के आलोक का सही मायने में सम्मान है।