ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, November 13, 2021

सिंधी सारंगी में लोक स्वरों का उजास

सिं​धी सारंगी वादक लाखा खान
इस वर्ष जिन 119 हस्तियों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, सुखद है कि उनमें बहुत से लोक कलाकार भी हैं। ऐसे दौर में जब आधुनिकता की चकाचैंध लोक कलाओं को लीलती जा रही है, उनसे जुड़े कलाकारों का पद्म सम्मान महत्वपूर्ण है। लोक ही तो जीवन का आलोक है! पद्मश्री पाने वालों में इस बार सिंधी सारंगी वादक राजस्थान के लाखा खान भी है। उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी सिंधी सारंगी में लोक संगीत को अंवेरते उसमें निरंतर बढत की है। बहुतेरी बार उन्हें सुना है। सुनते हर बार यह भी लगा, लोक स्वरों के सहज प्रवाह में जैसे वह माधुर्य का अनुष्ठान करते हैं।

बीन अंग के आलाप, मन्द्र सप्तक से अति तार सप्तकों के विस्तार की कथा भले लाखा खान शब्दों में बंया न कर पाएं पर सारंगी की उनकी स्वर गूंज सुनते अनुशासित वादन के सुगठित प्रस्तुतिकरण को सहज हर कोई अनुभूत कर सकता है। कबीर की मूल साखियों में स्थानीय अंचल की बोलियों में भावों का अपने तई किए अनूठे मेल में वह जब सारंगी बजाते हैं तो रेत राग जैसे जीवंत हो उठती है। वह सारंगी संग गाते भी है पर सोचता हूं, गान के शब्द वादन में न भी घुले हों तो भी कानों में जैसे रस घुलता है। लोक राग मांड, सूप, सामेरी, आसा, मारू आदि संग कभी-कभी भैरवी जैसी शास्त्रीय राग में भी लय एवं ताल के गणित प्रभुत्व बगैर सहज स्वर-सौंदर्य प्रवाह वहां है।
सारंगी असल में तत्सम शब्द है। अर्थ करें तो, स्वर के माध्यम से कानों में जो अमृत घोले वह सारंगी है। लाखा खान की सारंगी ऐसी ही है। हरजस के ‘गरू बिना कौन संगी मन मेरा’ स्वर या सूफी मुल्तान सिंध के सूफियों के कलाम या फिर ‘खेलण दे दिन चार’ जैसे लोक गीतों की स्वर लहरियों वह जब सारंगी संग बिखेरते हैं तो लगता है सीमावर्ती क्षेत्रों के धोरे, वहां का जीवन हममें गहरे से बस रहा है।

राजस्थान पत्रिका, 13 नवम्बर 2021

राजस्थान में जोगिया, अलाबू, गुजराती आदि सारंगी वादन की परम्परा है। लाखा खान सिंधी सारंगी बजाते हैं। यह शास्त्रीय संगीत की सारंगी नहीं है। रावण हत्थे की मानिंद वह इसे जब बजाते हैं, संगीत में पष्चिमी राजस्थान के गांव, वहां के जीवन की छवियां जैसे आंखों में बसने लगती है। यह सच है, उनकी सारंगी गाती हुई धोरों की धरा में बसे जीवन को आंखों में बसाती है। लोक स्वरों को शास्त्रीयता से नहीं जोड़ा जा सकता। यहां सारंगी संग तबला नहीं ढोलक बजती है। भले ही लोक संगीत में आरोह अवरोह क्रम में राग का कोई निष्चित स्वर नहीं हो पर लय की सहज प्रकृति, मात्राओं के विशिष्ट क्रम में सारंगी स्वरों का उजास बिखेरती है। मींड, गमक, मुर्की की छोटी छोटी बोलतानों में कंठ के स्वर जहां नहीं पहुंचते वहां लाखा खान की सारंगी पहुंच जाती है। लाखा खान के छोटे आकार की सारंगी को उनके गान संग सुनना स्वयं स्फूर्त स्वर छंद की माधुर्य बढत से साक्षात् है। लाखा खान राजस्थान के उस संगीत घराने के वारिस हैं जिनकी पच्चीस पीढ़ियां सिर्फ गाने-बजाने से ही जुड़ी रही है। वह जब 11 बरस के थे तभी से सारंगी बजाना प्रारंभ कर दिया था। बाद में लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी के जरिए सुदूर देषों तक उनकी सारंगी के स्वर बिखरे। राजस्थान की धोरा धरा को अपनी सारंगी में लोक रागों के जरिए जीवंत करते लाखा खान को पद्मश्री लोक के आलोक का सही मायने में सम्मान है।

Sunday, November 7, 2021

'जनसत्ता' रविवारीय में "आँख भर उमंग"


"...प्रवहमान भाषा शैली में लिखे इस यात्रा संस्मरण को पढ़ कर पाठक लेखक के साथ जैसे विचरता चलता है।...यात्राओं का कवित्वपूर्ण, रोचक वर्णन।'



Saturday, November 6, 2021

कृतज्ञता से भरी भीगी आंखे

 फिल्म पत्रकारिता के दिनों में कभी संगीतकार रवि का लम्बा इन्टरव्यू ​किया था। बाद में टूकड़ों टूकड़ों में भी उनसे निरंतर बातें होती रही थी। अपने अंतिम दिनों में वह जयपुर भी आए थे—तब भी उनसे फिर से लम्बा साक्षात्कार हुआ था। इतनी बातें हुई थी कि पूरी एक पुस्तक संगीतकार रवि पर आ जाए। समय मिलेगा तो कभी इस पर काम होगा ही। बहरहाल, हेमंत दा के बारे में उनकी कही बातें ...

संगीतकार रवि के संग लेखक राजेश कुमार व्यास

"एक—एक दिन की एक—एक कहानी है। कहूंगा तो कईं दिन भी कम पड़ जाएंगे। ...वह एक डायलॉग है ना कि 'आदमी की लाइफ बदल जाती है।' तो मेरे साथ ऐसा ही हुआ है। हेमंत कुमारजी के साथ सहायक के रूप में काम किया करता था तब। इनकम भी अच्छी खासी थी।...अचानक एक दिन हेमंत दा कश्मीर जा रहे थे तो उन्होंने मुझे बुलाया और कहा रवि मैं कश्मीर जा रहा हूं और कुछ समय बाद वापस लौटूंगा परंतु अब तुम अपना अलग काम करो। तुम्हारे लिए यही ठीक रहेगा। यह सुनकर मुझे झटका लगा। मैंने कहा आपके साथ ही अच्छा हूं पर उन्होंने मेरी एक न सुनी। उन्होंने कहा तुम्हारा टेलेंट मेरे साथ सदा दबता रहेगा। पर मैं अपनी बंधी—बंधायी आमद को लेकर चिंचित था।...घर आकर पत्नी को यह बात बतायी। पत्नी ने सांत्वना दी सुख के दिन ईश्वर ने दिए हैं तो दुख के दिन भी गुजार लेंगे। पूरी रात हम सो नहीं पाए। भारी मन से दूसरे दिन स्टूडियो गया। सोचा, अपने वेतन के बचे पैसे ले लेता हूं।..पता चला, हेमंत दा ने मुझे उनको मिली फिल्में इंडेपेंडेंट कॉन्ट्रेक्ट करने के लिए मेहता सा. को कहा था।'

कहते हुए रवि की आंखे भीग जाती है। यह हेमंत दा के प्रति कृतज्ञता से भरी भीगी आंखे थी।














Friday, November 5, 2021

लोक दृष्टि की शास्त्रीयता

(एनबीटी की पत्रिका 'पुस्तक संस्कृति' के नए अंक (नवम्बर—दिसम्बर 2021) में)

...कपिला वात्स्यायन जी के कला-चिन्तन को लोक संस्कृति की उनकी समझ से देखे जाने और इस पर गहराई से विचारे जाने की जरूरत है। उनके लिखे के अर्न्तनिहित में जाएंगे तो पाएंगे भारत भर की पारम्परिक प्रदर्शनकारी कलाओं का गहन अध्ययन, सर्वेक्षण करते उन्होंने लोक में प्रचलित कला रूपों, गाथाओं, परम्पराओं को गहरे से खंगाला ही नहीं है बल्कि शास्त्रीयता में उनके होने की गहरी तलाश की है। लोक से जुड़े आलोक में कलाओं की हमारी समृद्ध-संपन्न परम्पराओं और सभ्यता से उसके नाते पर उनका चिन्तन बहुत से स्तरों पर मन को मथता है...