ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Friday, July 30, 2021

'यात्रावृत्तांतीय लय में विन्यस्त कविताएं'

कोरोना के इस प्रकोप से बस कुछ ही समय पहले, संजोग से बहुत सारी यात्राएं हुई थी। उन्हीं में से एक यात्रा 'एलोरा' की भी थी। वहां के शिल्प—स्थापत्य में रमते कवि हुआ था— मन। शब्द—शब्द जो झरा, उसे तब डायरी में सहेजा था। सुखद है, राजस्थान साहित्य अकादेमी की पत्रिका 'मधुमती' ने उसे अपने मई—2021 अंक में अंवेरा है।...संपादक मित्र डॉ. ब्रजरतन जोशी ने इन कविताओं को 'यात्रावृत्तांतीय लय में विन्यस्त कविताएं' कहा है—





Wednesday, July 28, 2021

"अमर उजाला" में -'रस निरंजन'

संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकला पर एकाग्र 'रस निरंजन' की अमर उजाला, रविवारीय में प्रकाशित यह समीक्षा...


"अमर उजाला" 11 Julay 2021


कलाओं में रमी दृष्यभाषा के पत्र

राजस्थान पत्रिका, 16 जुलाई 2021


कलाएं सौन्दर्य के अन्वेषण में बसे कला मन की परिणति है। कहें नया कुछ रचने, गढ़ने के लिए चलने वाली अकुलाहट। सोचता हूं, सूक्ष्म और स्थूल आकार पर यदि किसी रंग का नाम लिख दें तो क्या वह आकार उस रंग में दिखाई देगा! नहीं ही दिखाई देगा क्योंकि चित्र की भाषा शब्द नहंी आकृति और रंग है। चित्रकला दृष्यकला इसीलिये तो है कि यह पढ़ने या सुनने की चीज नहीं देखने की चीज है। पर कितना अच्छा हो, चित्रों को देखकर नहीं उनके बारे में पढ़कर मन संवेदित हो। 

 बहरहाल, यह लिख रहा हूं और ज़हन में सेंजा के चित्र और उनमें बरते रंगों की भाषा जैसे ध्वनित हो रही है। कारण यह नहीं है कि सेंजा के चित्र मैंने देखे हैं बल्कि यह है कि उनके चित्रों पर रायनर मारिया रिल्के द्वारा क्लारा रिल्के को लिखे पत्रों की भाषा को मन ने पढ़ा और सहेजा है। जोल एजी के अंग्रेजी में अनुदित पत्रों और हाइनरिख वाहगंड पत्सेज की पठनीय प्रस्तावना को पिछले दिनों कवि संजय कुंदन ने हिंदी में भाव भरे रूप मंे पाठकों को सौंपा है। असल में ‘रायनर मारिया रिल्के: पत्रों में सेंजा’ पुस्तक रजा पुस्तकमाला के तहत प्रकाषित ऐसी है जिसमें रिल्के के कवि मन को ही नहीं उनके कलाओं की परख से जुड़े अंतर्मन को पढ़ा ही नहीं बांचा जा सकता है। इसमें उनका अचंभित करने वाला वाक्य ‘अचानक सही आंख मिल गयी’ हो या फिर पत्रों में व्यक्त सेंजा के अनोखे नीले रंगों की निष्क्रिय, लाल और सुंदर अंतःकरण, ठण्डे नाममात्र के नीले समुद्र, नीले पण्डुक धूसर आदि व्यंजनाएं-सभी में रंग संवेदना का अद्भुत काव्य कहन है। रिल्के के पत्र कलाकृतियांे के निर्माण के अर्न्तनिहित में ले जाते खतरे उठाने और अनुभव बढ़ाते कला को असीम तक पहुंचाने से साक्षात् कराते हैं तो कलाकार की सर्जना में निहित तत्वों के साथ स्वयं उनके प्रकृति और कला से जुड़े सरोकारों से भी हमें जोड़ते हैं।  

रिल्के के इन पत्रों में सेंजा के चित्रों में उपजे रोष,  हूबहू बनाने की उनकी जिद से जुड़ी विडम्बनाओं, पेरिस में उनके अपने ही बनाए रेखाचित्रों को देख न्यूड बनाने की सनक, उनके बरते गहरे नीले, लाल, हल्के हरे और लालिमा युक्त काले रंग के साथ ही गजब तरीके की रंगहीनता का विरल वर्णन है। उनके यह पत्र इस मायने में भी महत्ती है कि इनमें वैन गॉग के जीवन का मर्म है तो मूर्तिकार रोंदा के कलाकर्म और अनुषासन की थाह भी गहरे से ली गयी है। रिल्के पत्रों में भी दृष्यभाषा रचते हैं। मन उसमें गहरे से रमता है। काष! हिंदी में भी कला और कलाकारों के अंर्तमन से जुड़ी ऐसी पुस्तकों का आकाश बने।