कोरोना के इस प्रकोप से बस कुछ ही समय पहले, संजोग से बहुत सारी यात्राएं हुई थी। उन्हीं में से एक यात्रा 'एलोरा' की भी थी। वहां के शिल्प—स्थापत्य में रमते कवि हुआ था— मन। शब्द—शब्द जो झरा, उसे तब डायरी में सहेजा था। सुखद है, राजस्थान साहित्य अकादेमी की पत्रिका 'मधुमती' ने उसे अपने मई—2021 अंक में अंवेरा है।...संपादक मित्र डॉ. ब्रजरतन जोशी ने इन कविताओं को 'यात्रावृत्तांतीय लय में विन्यस्त कविताएं' कहा है—
ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.
...तो आइये, हम भी चलें...
Friday, July 30, 2021
'यात्रावृत्तांतीय लय में विन्यस्त कविताएं'

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