ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Wednesday, June 28, 2023

ऑंख भर उमंग’ की समीक्षा

प्रकाशन विभाग की पत्रिका ’आजकल’ के जुलाई 2023 अंक में यात्रा संस्मरण ’ऑंख भर उमंग’ की समीक्षा संस्कृतिकर्मी, आलोचक मंजरी सिन्हा जी ने की है...




Saturday, June 17, 2023

असाध्य की साधना है कला

कलाओं की समझ कैसे हो, इस पर सदा ही सवाल उठते रहे हैं। पिकासो ने कभी प्रश्न किया था कि कला को क्यों समझें? मूल अर्थ में ही यहां जवाब भी है। कलाएं समझाई नहीं जा सकती। वह तो ध्यान से ही सुनी-गुनी जा सकती है। मुझे लगंता है, किसी कलाकृति में जितनी कम चतुराई होगी, उतनी ही वह संप्रेषणीय होगी। कहानी है, राजा की सभा में उस्ताद गा रहे थे। गान पूर्ण हुआ तो सब 'वाह’, ’वाह’ कर उठे। उस्ताद संतुष्ट न हुए। बोले, संगीत से निपट अनजान भी ऐसे ही प्रशंसा करे तो मानूं। राजा ने संगीत की समझ नहीं रखने वाले एक गड़रिये को उस्ताद का गान सुनने बिठा दिया। गान पूर्ण हुआ तो उससे पूछा गया, 'कैसा लगा उस्तादजी का गाना?’ वह बोला, 'गाना तो कुछ समझ न पड़ा। पर इच्छा हो रही है कि सुनता ही रहूं।’ यह जो ’सुनता ही रहूं’ व्यंजना है, वही असल में कला और उसकी सार्थकता है।

राजस्थान पत्रिका, 17 जून 2023

सोचिए! कलादीर्घाएं पहले से कईं गुना बढ़ गयी है। संगीत, नाट्य, नृत्य प्रस्तुतियों का विस्तार भी कम नहीं हुआ है पर इस अनुपात में क्या कला रसिक समाज बना है? कला मर्मज्ञ का खि़ताब तो कोई संगीत, चित्रकला, वास्तु, नृत्य, नाट्य के इतिहास और थोड़ी-बहुत इनसे जुड़ी जानकारी से भी ले सकता है। परन्तु मन का क्या? मन तो रंजित तभी होता है जब कला अंतर को आलोकित करे। अज्ञेय की लम्बी कविता है, 'असाध्य वीणा।' कविता से जुड़ी कथा कुछ इस तरह से है कि राजदरबार में एक वीणा है, जिसे कोई साध नहीं सका। एक रोज़ दरबार में केशकम्बली प्रियवंद आता है। वह वीणा को गोद में ले बैठ जाता है। ध्यानमग्न हो अपने आपको भी भूल जाता है। वीणा जिस वृक्ष से बनी, उसकी डाली-डाली, उस पर बैठने वाले पक्षियों, उसकी पत्तियों पर हुई वर्षा-बूंदों की झम-झम। घनी रात में महूए के टपकने, वहां से गुजरने वाले हाथियों और जंगल के संपूर्ण परिवेश से एकाकार होते वह वीणा के मूल में, उसके बजने की अभ्यर्थना में अपने आपको तिरोहित कर देता है। औचक उसकी कांपती उंगलियों से वीणा गा उठती है। स्वरों का वह माधुर्य सबको अपनी-अपनी दीठ में सौंदर्य प्रदान करता सुहाता है। असाध्य की यही साधना है।

हमारे यहां चित्रकलाओं का संसार ऐसे ही गुना-बुना गया है। ऐलोरा में एक बहुत सुंदर मूर्ति है। इसमें रावण कैलास को उठाने के प्रयास में है।  शिव अविचल समाधिस्थ बैठे हैं। पार्वती भयभीत हैं और उसकी सखियां इधर-उधर भाग रही है। मूर्तिकार ने वाल्मीकि रामायण से यह प्रसंग लिया है। कुबेर की लंका और पुष्पक विमान छीनकर रावण यमराज को भी हराकर लौट रहा है। कैलास के पास विमान डगमगाता है। रावण क्रोधित हो कैलास को हटाने का प्रयास करता है। शिव अंगूठे से कैलास को स्थिर करते हैं और फिर जब रावण का हाथ दब जाता है तो वह ’रव’ यानी हृदय-विदारक चीत्कार करता है। इसी से वह रावण कहा जाता है। इस कहानी को मूर्तिकार ने मूर्ति में इस कदर घोला है कि देखते मन नहीं थकता। हमारे यहां इतिहास भी इसी तरह कला में रूपायित हुआ है। शोध करेंगे तो और भी बहुत महत्वपूर्ण मिलेगा। भारतीय लघु चित्र-शैलियों को ही लें। चटख रंग वहां है। घनीभूत। बहुत सारे अलंकण और ढेर सारी कथाएं गूंथी हुई, पर देखेंगे तो पाएंगे उनका लदा देखने में निहित कोई बोझ वहां नहीं है। इसलिए कि कलाकार उन्हें उकेरते, वहां रंग बरतते कथा के भाव-लोक में रम गया है। बहुत बड़ी कथा को छोटे से चित्र में साधना सरल कहां है! फिर से कहूं, असाध्य की यही तो साधना है!

Saturday, June 3, 2023

ध्रुवपद-धमार में जीवंत होता है तमाशा


भरतमुनि का नाट्यशास्त्र संहिता है। कहें, सभी कलाओं का एक तरह से एकत्र ज्ञान वहां है। इसमें एक स्थान पर आता है कि जो कला शास्त्र में नहीं है, उसे लोक में खोजा जाए। लोक नाट्य की चर्चा वहां लोकधर्मी नाट्य के रूप में हुई है। लोकनाट्य का अर्थ ही है, वह जो लोक स्वभाव को प्रदर्शित करे। बगैर किसी दिखावे के जहां सामान्यजन की क्रियाओं और व्यवहार को सहज प्रदर्शित किया जाए। रम्मत, ख्याल, गवरी, नौटंकी आदि ऐसे ही लोकनाट्य हैं, जिनमें लोक का आलोक है। यूं जयपुर तमाशा भी लोकनाट्य ही है पर इसमें कोई एक नहीं बहुत सारी और कलाओं का भी अनूठा घोल मिला हुआ है। मुझे लगता है, लोक में शास्त्रीयता की सुगंध कहीं है तो वह जयपुर तमाशा में है।

प्रायः इसे महाराष्ट्र में होने वाले तमाशा से जोड़कर देखा और इसी संदर्भ में इस पर लिखा जाता रहा है। पर कुछ दिन पहले इसके अप्रतिम कलाकार वासुदेव भट्ट से दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रम ’संवाद’ में जब चर्चा हो रही तो लगा, यह लोकनाट्य भर नहीं है, युगीन संदर्भों से जुड़ा लोकानुरंजन है। इसके जनक बंशीधर भट्ट रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी उनके परिवार ने ही बाद में इसे पोषित किया और इसमें बाकायदा शास्त्रीयता का रस घोलते बढ़त की। फूलजी भट्ट, गोपीजी के बाद वासुदेव भट्ट और दिलीप भट्ट अभी भी इसे जीवंत किए हुए हैं। शास्त्रीय और लोक संगीत के साथ अभिनय का अपूर्व संगम इसमें होता है। 

राजस्थान पत्रिका, 3 जून 2023


तमाशा खुले में होता है। जहां होता है, वह स्थान अखाड़ा कहलाता है। कलाकार पौराणिक कथाओं, लोकाख्यानों के साथ आधुनिक संदर्भों को भी अपने तई तमाशों में गुनते-बुनते हैं। पर जब वह  घुंघरू बंधे पैरों के साथ थिरकते हैं और सुर-ताल के साथ संवाद अदायगी करते हैं तो देखने वाले भी उसमें सम्मिलित हो कलाकार बन जाते हैं। लयात्मक संवादों में ’रांझा-हीर’ ’लैला-मजनू’, ’जोगी-जोगन आदि पारम्परिक तमाशों के साथ ही आधुनिक संदर्भों को भी लोकनाट्य की इस विधा में निरंतर गुना-बुना गया है। वासुदेव भट्ट ने इधर तमाशा में कुछ विरल प्रयोग किए हैं। बंशीधर भट्ट के समय से किए जा रहे तमाशा में मुख्य भूमिका तो उन्होंने निभाई ही है, स्वयं भी ’गोविंद भक्त’, ’इक्कीसवी संदी’, ’बंदर का ब्याह’, ’उद्धव प्रसंग’ जैसे नए तमाशा लिख-खेलकर उन्होंने लोकनाट्य की इस परम्परा को नए समय-संदर्भ दिए हैं। वह इस दौर के बेहतरीन रंगमंच कलाकार भी हैं।

याद है, अर्सा पहले गोपीजी का तमाशा देखा था। इधर फिर से वासुदेव भट् का और कुछ वर्ष पहले दिलीप भट्ट का किया तमाशा देखने का सुयोग हुआ। भगवान शिव से जुड़े किसी प्रसंग के कथानक में और भी दूसरे प्रसंगों संग भले ही पौराणिक और प्रेमाख्यानों में वह गूंथे लगे पर जिस तरह से सम-सामयिक घटनाओं, समाचारों को उनमें यह कलाकार जोड़ते हैं, लगता है तमाशा पुरानी परम्पराओं से जुड़ी कला होते हुए भी युगीन संदर्भों की अनूठी रस-व्यंजना हैं। 

यह सच है, जयपुर तमाशा के अपने तेवर, अपनी भंगिमा हैं। इसमें महाराष्ट्र में होने वाले तमाशा की लावणी की बजाय सूफी और निर्गूण गान का भी अनूठा आलोक है। ध्रुवपद-धमार और अन्य शास्त्रीय रागों संग कलाकार  घुंघरूओं के नाद में जब कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहता है तो इसमें कथक भी कहीं घुला प्रतीत होता है। कभी जयपुर में होली, चैत्र-अमावस्या, शीतलाष्टमी आदि पर एक वर्ष में कोई 51 तमाशे होते थे। पर अब वह बात कहां! आधुनिकता के इस दौर ने लोकानुरंजन से जुड़ी उस विधा से हमारा नाता तोड़ा है जिसमें कोई एक कला नहीं बहुत सारी कलाओं का माधुर्य ही नहीं लोक कलाओं संग शास्त्रीयता का सौंदर्य भी घुला हुआ है।