ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, June 17, 2023

असाध्य की साधना है कला

कलाओं की समझ कैसे हो, इस पर सदा ही सवाल उठते रहे हैं। पिकासो ने कभी प्रश्न किया था कि कला को क्यों समझें? मूल अर्थ में ही यहां जवाब भी है। कलाएं समझाई नहीं जा सकती। वह तो ध्यान से ही सुनी-गुनी जा सकती है। मुझे लगंता है, किसी कलाकृति में जितनी कम चतुराई होगी, उतनी ही वह संप्रेषणीय होगी। कहानी है, राजा की सभा में उस्ताद गा रहे थे। गान पूर्ण हुआ तो सब 'वाह’, ’वाह’ कर उठे। उस्ताद संतुष्ट न हुए। बोले, संगीत से निपट अनजान भी ऐसे ही प्रशंसा करे तो मानूं। राजा ने संगीत की समझ नहीं रखने वाले एक गड़रिये को उस्ताद का गान सुनने बिठा दिया। गान पूर्ण हुआ तो उससे पूछा गया, 'कैसा लगा उस्तादजी का गाना?’ वह बोला, 'गाना तो कुछ समझ न पड़ा। पर इच्छा हो रही है कि सुनता ही रहूं।’ यह जो ’सुनता ही रहूं’ व्यंजना है, वही असल में कला और उसकी सार्थकता है।

राजस्थान पत्रिका, 17 जून 2023

सोचिए! कलादीर्घाएं पहले से कईं गुना बढ़ गयी है। संगीत, नाट्य, नृत्य प्रस्तुतियों का विस्तार भी कम नहीं हुआ है पर इस अनुपात में क्या कला रसिक समाज बना है? कला मर्मज्ञ का खि़ताब तो कोई संगीत, चित्रकला, वास्तु, नृत्य, नाट्य के इतिहास और थोड़ी-बहुत इनसे जुड़ी जानकारी से भी ले सकता है। परन्तु मन का क्या? मन तो रंजित तभी होता है जब कला अंतर को आलोकित करे। अज्ञेय की लम्बी कविता है, 'असाध्य वीणा।' कविता से जुड़ी कथा कुछ इस तरह से है कि राजदरबार में एक वीणा है, जिसे कोई साध नहीं सका। एक रोज़ दरबार में केशकम्बली प्रियवंद आता है। वह वीणा को गोद में ले बैठ जाता है। ध्यानमग्न हो अपने आपको भी भूल जाता है। वीणा जिस वृक्ष से बनी, उसकी डाली-डाली, उस पर बैठने वाले पक्षियों, उसकी पत्तियों पर हुई वर्षा-बूंदों की झम-झम। घनी रात में महूए के टपकने, वहां से गुजरने वाले हाथियों और जंगल के संपूर्ण परिवेश से एकाकार होते वह वीणा के मूल में, उसके बजने की अभ्यर्थना में अपने आपको तिरोहित कर देता है। औचक उसकी कांपती उंगलियों से वीणा गा उठती है। स्वरों का वह माधुर्य सबको अपनी-अपनी दीठ में सौंदर्य प्रदान करता सुहाता है। असाध्य की यही साधना है।

हमारे यहां चित्रकलाओं का संसार ऐसे ही गुना-बुना गया है। ऐलोरा में एक बहुत सुंदर मूर्ति है। इसमें रावण कैलास को उठाने के प्रयास में है।  शिव अविचल समाधिस्थ बैठे हैं। पार्वती भयभीत हैं और उसकी सखियां इधर-उधर भाग रही है। मूर्तिकार ने वाल्मीकि रामायण से यह प्रसंग लिया है। कुबेर की लंका और पुष्पक विमान छीनकर रावण यमराज को भी हराकर लौट रहा है। कैलास के पास विमान डगमगाता है। रावण क्रोधित हो कैलास को हटाने का प्रयास करता है। शिव अंगूठे से कैलास को स्थिर करते हैं और फिर जब रावण का हाथ दब जाता है तो वह ’रव’ यानी हृदय-विदारक चीत्कार करता है। इसी से वह रावण कहा जाता है। इस कहानी को मूर्तिकार ने मूर्ति में इस कदर घोला है कि देखते मन नहीं थकता। हमारे यहां इतिहास भी इसी तरह कला में रूपायित हुआ है। शोध करेंगे तो और भी बहुत महत्वपूर्ण मिलेगा। भारतीय लघु चित्र-शैलियों को ही लें। चटख रंग वहां है। घनीभूत। बहुत सारे अलंकण और ढेर सारी कथाएं गूंथी हुई, पर देखेंगे तो पाएंगे उनका लदा देखने में निहित कोई बोझ वहां नहीं है। इसलिए कि कलाकार उन्हें उकेरते, वहां रंग बरतते कथा के भाव-लोक में रम गया है। बहुत बड़ी कथा को छोटे से चित्र में साधना सरल कहां है! फिर से कहूं, असाध्य की यही तो साधना है!

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