प्रायः इसे महाराष्ट्र में होने वाले तमाशा से जोड़कर देखा और इसी संदर्भ में इस पर लिखा जाता रहा है। पर कुछ दिन पहले इसके अप्रतिम कलाकार वासुदेव भट्ट से दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रम ’संवाद’ में जब चर्चा हो रही तो लगा, यह लोकनाट्य भर नहीं है, युगीन संदर्भों से जुड़ा लोकानुरंजन है। इसके जनक बंशीधर भट्ट रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी उनके परिवार ने ही बाद में इसे पोषित किया और इसमें बाकायदा शास्त्रीयता का रस घोलते बढ़त की। फूलजी भट्ट, गोपीजी के बाद वासुदेव भट्ट और दिलीप भट्ट अभी भी इसे जीवंत किए हुए हैं। शास्त्रीय और लोक संगीत के साथ अभिनय का अपूर्व संगम इसमें होता है।
राजस्थान पत्रिका, 3 जून 2023 |
तमाशा खुले में होता है। जहां होता है, वह स्थान अखाड़ा कहलाता है। कलाकार पौराणिक कथाओं, लोकाख्यानों के साथ आधुनिक संदर्भों को भी अपने तई तमाशों में गुनते-बुनते हैं। पर जब वह घुंघरू बंधे पैरों के साथ थिरकते हैं और सुर-ताल के साथ संवाद अदायगी करते हैं तो देखने वाले भी उसमें सम्मिलित हो कलाकार बन जाते हैं। लयात्मक संवादों में ’रांझा-हीर’ ’लैला-मजनू’, ’जोगी-जोगन आदि पारम्परिक तमाशों के साथ ही आधुनिक संदर्भों को भी लोकनाट्य की इस विधा में निरंतर गुना-बुना गया है। वासुदेव भट्ट ने इधर तमाशा में कुछ विरल प्रयोग किए हैं। बंशीधर भट्ट के समय से किए जा रहे तमाशा में मुख्य भूमिका तो उन्होंने निभाई ही है, स्वयं भी ’गोविंद भक्त’, ’इक्कीसवी संदी’, ’बंदर का ब्याह’, ’उद्धव प्रसंग’ जैसे नए तमाशा लिख-खेलकर उन्होंने लोकनाट्य की इस परम्परा को नए समय-संदर्भ दिए हैं। वह इस दौर के बेहतरीन रंगमंच कलाकार भी हैं।
याद है, अर्सा पहले गोपीजी का तमाशा देखा था। इधर फिर से वासुदेव भट् का और कुछ वर्ष पहले दिलीप भट्ट का किया तमाशा देखने का सुयोग हुआ। भगवान शिव से जुड़े किसी प्रसंग के कथानक में और भी दूसरे प्रसंगों संग भले ही पौराणिक और प्रेमाख्यानों में वह गूंथे लगे पर जिस तरह से सम-सामयिक घटनाओं, समाचारों को उनमें यह कलाकार जोड़ते हैं, लगता है तमाशा पुरानी परम्पराओं से जुड़ी कला होते हुए भी युगीन संदर्भों की अनूठी रस-व्यंजना हैं।
यह सच है, जयपुर तमाशा के अपने तेवर, अपनी भंगिमा हैं। इसमें महाराष्ट्र में होने वाले तमाशा की लावणी की बजाय सूफी और निर्गूण गान का भी अनूठा आलोक है। ध्रुवपद-धमार और अन्य शास्त्रीय रागों संग कलाकार घुंघरूओं के नाद में जब कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहता है तो इसमें कथक भी कहीं घुला प्रतीत होता है। कभी जयपुर में होली, चैत्र-अमावस्या, शीतलाष्टमी आदि पर एक वर्ष में कोई 51 तमाशे होते थे। पर अब वह बात कहां! आधुनिकता के इस दौर ने लोकानुरंजन से जुड़ी उस विधा से हमारा नाता तोड़ा है जिसमें कोई एक कला नहीं बहुत सारी कलाओं का माधुर्य ही नहीं लोक कलाओं संग शास्त्रीयता का सौंदर्य भी घुला हुआ है।
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