ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Thursday, December 30, 2021

उत्सवधर्मिता से सजा ‘लोक रंग’

कलाओं के उद्भव का मूल लोकभावना और सामूहिक चेतना ही है। असल में कला सृजन और उपभोग में भी सामुदायिक भावना ही हमारे यहां प्रधान रही है। आरम्भ में समूह मिल-जुल कर गाता, नाचता था। तब अभिप्रायों (मोटिव्स) में कलाएं मन को गहरे से रंजित करती थी। पर इधर आधुनिकता की आंधी में लोक से जुड़ी कलाओं की हमारी वह दृष्टि लोप प्रायः होती जा रही है। अब संगीत और नृत्य प्रस्तुतियों में तड़क-भड़क और इतना शोरोगुल होता है कि मन न चाहते हुए भी उनमें ही अटक-भटक जाता है। सोचिए, भटका और कहीं अटका मन कभी शांत होता है! पर लोक कलाओं के आलोक में जीवन धन, मन के चैन को हम सहज सहेज सकते हैं।


जयपुर के जवाहर कला केन्द्र के आमंत्रण पर पिछले दिनों जब ‘लोकरंग 2021’ में जाना हुआ तो मन यही सब-कुछ गुन रहा था। मुक्ताकाश मंच पर देशभर से आए लोक कलाकारों की प्रस्तुतियों से रू-ब-रू होते लगा, मन अवर्णनीय उमंग से जैसे सराबोर हो उठा है। जम्मू-कश्मीर, झारखंड, असम, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और गुजरात के कलाकारों की लोक कलाओं में ही मन जैसे रचने-बसने लगा था। कश्मीर के लोक कलाकारों की लोक नृत्य प्रस्तुत ‘रऊफ’ मन को तरंगित करने वाली थी। ‘रऊफ’ असल में कश्मीर में वसंत ऋतु के जश्न और ईद-उल-फितर की उत्सव व्यंजना है। पंक्तिबद्ध, हाथ में हाथ डालकर महिलाएं पारंपरिक कश्मीरी वेशभूषा में इसे करते जैसे मौसम के रंग में पूरी तरह से रंग जाती है।

जवाहर कला केन्द्र में भी ऐसा ही हुआ। संगीत के साथ होले-होले उठते कदमों की सामुहिक थिरकन में ‘रऊफ’ में बढ़त हुई और औचक जाने-पहचाने बोल ‘बुम्बरो बुम्बरो श्याम रंग बुम्बरो’ जैसी अनुभूति हुई तो चौंका। लगा, लोक कलाकारों ने फिल्म संगीत को लोक में घोला है पर पता चला, मूलतः यह कश्मीर का ही लोक संगीत है, जिस पर राहत इन्दौरी ने गीत लिखा और लोक संगीत को हूबहू संगीतकार शंकर-एहसान-लॉय ने उनके बोलों में ‘मिशन  कश्मीर’ फिल्म में सजा दिया। पर लोक कलाकारों की मूल प्रस्तुति इस कदर उम्दा थी कि चाह कर भी मन उसे कहां बिसरा सकता है!झारखंड के लोक कलाकारों की कर्मा नृत्य प्रस्तुति भी कुछ ऐसी ही थी। महिला-पुरूषों का नाचता-गाता समूह! खेती और दूसरे श्रम से जुड़े कार्यों के दौरान सहज नृत्य करते गायन की इस विरल प्रस्तुति में झारखंड का लोक जीवन जैसे गहरे से रूपायित हुआ है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में कर्मा लोक मांगलिक नृत्य है। करम पूजा, यानी कार्य करने को ही पूजा मानते वहां के लोगों को सहज थिरकते देख लोक में जैसे आलोक अनुभूत होता है। असम के कलाकारो द्वारा प्रस्तुत ‘बारदोही षिकला’ नृत्य, हरियाणा के लोक कलाकारों के ‘घूमर’ में लोक आस्था का अनूठा उजास था तो झारखंड का ‘षिकारी नृत्य’ आदिवासी जीवन से जुड़े जश्न  का जैसे आख्यान था। 

राष्ट्रदूत, 30 दिसम्बर 2021


ऐसे ही राजस्थान के ‘कालबेलिया’, पंजाब के झुमुर,  और होली पर किए जाने वाले शेखावटी अंचल के ‘डफ’ नृत्य के उल्लास में जीवन की सौंधी महक सदा ही अनुभूत होती रही है। असम के ‘झुमुरू’ नृत्य में ड्रम की थाप के साथ थिरकती नृत्यांगनाएं जीवन-संगीत से जैसे साक्षात् कराती है। चाय बागानों में काम करते जीवन की एकरसता तोड़ते वहां यह नृत्य किया जाता है। गुजरात के कलाकारों ने आदिवासी संस्कृति को ‘सिद्धि धमाल’ में अनूठे रंग में जीवंत किया। तेजी से बजते ड्रम और  नगाड़े की गूंज में लोक कलाकारों के मुंह से निकलते अजीबो-गरीब बोल और इसके साथ ही उछलते कूदते किए जाने वाले इस नृत्य में गुजरात के कलाकारों  की प्रस्तुति तन और मन को झंकृत करने वाली थी। उत्सव में कैसे कलाकार अपने आपको भुलकर गाते-नाचते हैं और ऐसा करते असंभव को भी कैसे सिद्ध किया जाता है, यह नृत्य जैसे इसकी गवाही दे रहा था। अनूठे बोल और संगीत-नृत्य संग देह की अद्भुत हरकतों से रोमांचित करते कलाकारों की यह प्रस्तुति आदिवासी जीवन की छटा का जैसे अनूठा छंद है।

बहरहाल, ‘लोक रंग’ में कला की सभी प्रस्तुतियां अलग-अलग भी पर सबकी सब अपने आप में विशिष्ट भी। ऐसी जिनसे मन उर्वर हो उठे। झुम उठे। भाषा भेद के कारण बोल समझ नहीं भी आ रहे थे पर ताल और लय संग कलाकारों संग मन भी नाच-गा रहा था। जवाहर कला केन्द्र जब ‘लोक रंग’ का आस्वाद करने पहुंचा तब साथ में पत्नी डॉ. अरुणा  और बच्चे भी थे पर उनका कहना था, ‘कुछ देर ठहर वह जरूरी काम निपटाने जाएंगे।’ पर गौर किया, कलाकारों की कला संग वे भी भाव-विभोर हो पूरे समय वहीं बैठे रहे। यह लोक कलाकारों की अनूठी कलाओं का रंजन ही था कि जरूरी काम निपटाना भूल सब उनके संग ही उमंग, उल्लास में डूब-डूब चले थे। लोक के उस आलोक को गुनते मैंने यह भी अनुभूत किया, शास्त्रीय संगीत, नृत्य आदि कलाएं अनुशासन  के आदर्श में हमें बहुत से स्तरों पर जकड़ते हैं पर लोक कलाएं मन में उमंग, उत्साह जगाते हमें अपने सहज होने का अहसास कराती हैं। यह है तभी तो कलाकारों के गान और नृत्य में रमते मन उनके संग हसंते हुए औचक गाने भी लगता है। पांव अपने आप थिरकते उनके संग बगैर किसी की परवाह किए नाचने को मचलते महसूस होते हैं। कला संस्कृति मंत्री डॉ. बी.डी. कल्ला की पहल पर केन्द्र की अतिरिक्त महा निदेषक अनुराधा गोगिया ने इधर जतन कर लोक से जुड़े देषभर के कलाकारों की प्रस्तुतियों को संयोजित किया है। याद है, जवाहर कला केन्द्र में एक क्यूरेटर, महामाया को जब कुछ समय के लिए महानिदेशक  बनाया गया था तो पश्चिमी कलाओं से यह पूरा केन्द्र आक्रांत हो उठा था और तभी लोक कलाओं से जुड़ा ‘लोकरंग’ भी बंद हो गया था। इस पर बहुत सा हो-हल्ला भी मचा था पर कौन परवाह करता! बाद में  विरल छायाकार और राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अधिकारी फुरकान खान ने इसे फिर से प्रारम्भ किया पर कोविड के दौर में एक साल यह फिर नहीं हो पाया। कला संस्कृति मंत्री डॉ. बी.डी. कल्ला की पहल पर केन्द्र की अतिरिक्त महा निदेषक अनुराधा गोगिया ने इधर जतन कर लोक से जुड़े देषभर के कलाकारों की प्रस्तुतियों को फिर से संयोजित करने का महत्ती कार्य किया है। गौर किया, वह स्वयं भी लोक कलाकारों की इन प्रस्तुतियों में निरंतर स्वयं मौजूद रहकर कलाओं से लोगों की निकटता बढ़ाने में जुटी रहती है। यही कारण है कि कड़ाके की ठंड के बावजूद लोकरंग आयोजन के सभी दिनो के दौरान केन्द्र के मुक्ताकाश दर्शक दीर्घाओं  में भीड़ उमड़ती रही है। लोक का यही तो वह उजास है, जिसमें संग मिल सब झुमने को मजबूर होते  हैं।
लोक माने मन का रंजन। कहीं कोई दिखावा या बनावटीपन नहीं। इसीलिए तो लोक कलाकारों की प्रस्तुतियों में दर्शक-श्रोता और कलाकारों का भेद समाप्त हो जाता है। नृत्य, गायन संग सुनने वाले और देखने वाले भी एकमेक हो जाते हैं। मिथकों, धार्मिक विश्वासों और दैनिन्दिनी कार्यकलापो में जीवन से जुड़ी सहज दृष्टि वहां है। वहां शिक्षा  है, स्वस्थ मनोरंजन है और सबसे बड़ी बात पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांरित होता वह परम्परागत बोध भी है, जिसमें जीवन की सूक्ष्म व्याख्या को सहज समझा जा सकता है।
बहरहाल, यह सच है कि आधुनिकीकरण की आंधी में लोक कलाएं निरंतर हमसे दूर होती जा रही है। सामूहिकता के ह्रास और अपनी स्थापनाओं के आग्रह में कलाओं के सहज सौंदर्यबोध से निरंतर हम दूर हो रहे हैं। स्वतः स्फूर्त परिवर्तन को स्वीकार करते लोक कलाएं निरंतर बढ़त  करती रही है, करती रहेगी। इसलिए कि लोक कलाओं में ही जीवन की शक्ति और सांस्कृतिक चेतना की हमारी परम्परा समाई हुई है। ऐसे दौर में जब उपभोक्ता संस्कृति हमें हमारी जड़ों से उखाड़ने का पुरजोर प्रयास कर रही है, यह जरूरी है कि लोक कलाओं में ही हम जीवन की उत्सवधर्मिता का यह नाद सुनें और इसे गुनें भी।

Sunday, December 19, 2021

गीतों की भोर, रंगों की सांझ

कलाएं रस निरंजन हैं। यह कलाएं ही हैं जो जीवन को तरंगायित करती नया कुछ सीखने को भी सदा प्रेरित करती है। इसलिए कहते हैं, कलाओं से जुड़ा व्यक्ति कभी उम्रदराज नहीं होता। रवीन्द्र नाथ टैगौर को ही लें। उन्हें ‘गीतांजलि’ पर नोबल मिल चुका था, रवीन्द्र संगीत और ‘ताशेर देश’ जैसे उनके नाट्य अपार लोकप्रिय हो चुके थे पर फिर भी उम्र के 67 वें वर्ष में उन्होंने चित्रकला की शुरूआत की। संयोग देखिए, कविता लिखते वक्त पंक्तियों की काट छांट में उन्होंने रेखाओं में निहित चित्रों के आकार छुपे देखे। जिस कविता ने रवीन्द्र नाथ टैगौर को विश्व कवि रूप में अपार लोकप्रियता दिलाई, उसी से प्रसूत रेखाओं के आकारों ने उन्हें चित्रकार भी बनाया।  माने कलाएं बढ़त है।

बहरहाल, रेखाओं की मुक्ति के निमित कला की टैगौर की यात्रा कविता की लय सरीखी है। रवीन्द्र एक स्थान पर कहते भी है, ‘मेरी चित्रकला की रेखाओं में मेरी कविताएं है।’ पैरिस की गैलरी पिगाल में 1930 में उनके चित्रों की प्रथम प्रदर्शनी जब लगी तभी रवीन्द्र के चित्रकर्म पर औचक विश्वभर का ध्यान गया। बाद में लंदन, बर्लिन और न्यूयार्क गैलरियों के साथ यूनेस्को द्वारा आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय आधुनिक कला प्रदर्शनियों में भी उनके चित्र सम्मिलित हुए।

रवीन्द्र के चित्रों की खास संरचना, उनमें निहित संवेदना और अंतर्मुखवृति के साथ परम्परा से जुदा मौलिकता ने सदा ही मुझे आकर्षित किया है। याद पड़ता है, पहले पहल रवीन्द्र का बनाया जब ‘मां व बच्चा’ कलाकृति देखी तो लगा जीवन को कला की अद्भुत दीठ से व्याख्यायित करते उनके चित्र कला की अनूठी दार्शनिक अभिव्यंजना है। उन्हीं का बनाया एक बेहद सुन्दर चित्र है ‘सफेद धागे’। इसमें स्मृतियों का बिम्बों के जरिए अद्भुत स्पन्दन है। ‘थके हुए यात्री’, ‘स्त्री-पुरूष’ जैसे मानव चित्रो के साथ ही पक्षियों के उनके रेखांकन में एक खास तरह की एकांतिका तो है परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं की सौन्दर्य सृष्टि भी है। सहजस्फूर्त रेखाओं के उजास में रवीन्द्र के कलाकर्म की रंगाकन पद्धति, सामग्री में निहित रेखाओं की आंतरिक प्रेरणा को सहज अनुभूत किया जा सकता है।

कविता से चित्रकर्म की यात्रा का उनका यह संवाद भी तो न भुलने वाला है, ‘मेरे जीवन की भोर गीतों भरी थी, चाहता हूं सांझ रंग भरी हो जाए।’ यह रवीन्द्र ही है जिनके गीतों की भोर भीतर से हमें जगाती है तो चित्रों का उनका लोक सुरमयी सांझ में सदा ही सुहाता है। रवीन्द्र के चित्रों में पोस्टर रंगो, पेड़ों की पत्तियों और फूलों की पंखुड़ियों के रस के साथ ही पानी में घुलने वाले और दूसरे तमाम प्रकार के प्राकृतिक रंगों का आच्छादन, उत्सव लोक भी अलग से ध्यान खींचता है। एक व्यक्ति में कला के कितने-कितने रंग—रूप हो सकते हैं, यह भी तो रवीन्द्र के ही व्यक्तित्व में है। नहीं!

Sunday, December 12, 2021

देखने का संस्कार देती कलाएं

कलाएं अतीत, वर्तमान और भविष्य की दृष्टि को पुनर्नवा करती है। और हां, देखने का संस्कार भी कहीं ठीक से मिलता है तो वह कलाएं ही हैं। चित्रकला और मूर्तिकला की ही बात करें। इटली की मूर्तिकार एलिस बोनर ने कभी ज्यूरिख में नृत्य सम्राट उदय शंकर का नृत्य देखा और बस देखती ही रह गई। यह उनके देखने का संस्कार ही था कि मंदिरों में उत्कीर्ण मूर्तियों को बाद में उसने अपनी कला में गहरे से जिया।

मुझे लगता है, कलाओं से साक्षात् भी अपनी तरह की साधना है। आपने कोई चित्र देखा है, मूर्ति का आस्वाद किया है। तत्काल कुछ भाव मन में आते हैं-उसके प्रति। कुछ समय बाद फिर से आस्वाद करेंगे तो कुछ और सौन्दर्य भाव अलग ढंग से मन में जगेंगे। जितनी बार देखेंगे मन उतना ही मथेगा। याद पड़ता है, इन पंक्तियों के लेखक ने कभी ख्यात निबंधकार विद्यानिवास मिश्र को अपना कविता संग्रह भेंट किया था। उन्होंने कविताएं पढ़ी और लिखा, ‘कविताएं घूंट घूंट आस्वाद का विषय है। मैं कर रहा हूं।’ माने कविताओं को वह पढ़ ही नहीं रहे थे, मन की आंखो से देख भी रहे थे। इस देखने से ही मन में शायद प्यार जगता है। 

स्पेन के प्रख्यात सिनेकार जोसे लुई गार्सिया की फिल्म ‘कैडल सांग’ का संवाद है, ‘जो देखना जानाता है, वही प्यार कर सकता है।’ चित्र-मूर्तियों के अंकन में ही जाएं। भारत ही नहीं विश्वभर में भगवान बुद्ध की एक से बढ़कर एक मूर्तियां मिल जाएंगी पर बुद्ध क्या वास्तव में मूर्ति में जैसे है, वैसे ही रहे होंगे? आरंभ में बुद्ध की उपस्थिति उनकी मूर्ति से नहीं उनसे जुड़े प्रतीकों से की जाती। बोधिवृक्ष। धर्मचक्र परिवर्तन कराते कर। छत्र। पादुका और उनकी दूसरे प्रतीक। उनसे ही तथागत की उपस्थिति का आभास होता। इन प्रतीकों के आधार पर ही मूर्तियां दर मूर्तियां गढ़ी गई। ठीक वैसे ही जैसे राजा रवि वर्मा ने देवी-देवताओं को जिस रूप में बनाया, वही बाद में पूज्य हो गए। उनके बनाए चित्रों से पृथक कहीं शिव, कृष्ण, राम दिखते हैं तो वह हमें स्वीकार्य नहीं।  माने अपनी दीठ से कलाकार ने जो सिरज दिया, वही सर्वव्यापी हो गया।
 
बहरहाल, आम शिकायत है कि एब्सट्रेक्ट चित्र समझ नहीं आते पर उन पर गौर करेंगे तो अर्थ का वातायन खुलता नजर आएगा। एब्सट्रेक्ट क्या है? किसी अर्थ खुलते अंश की व्यंजना ही तो! और हां, देखने का संस्कार पाना है तो प्रकृति से बड़ा सिखाने वाला और कौन होगा! आप आसमान को देखें। समय के साथ बदलता नीला, भूरा, पीला और लाल होता आकाश! रात्रि की नीरवता में तारों को देखें और आसमान में बदलते रंगों में अपनी अनुभूतियों को घोलें। और नहीं तो रूसी चित्रकार रोरिक के हिमालय चित्रों को ही देखें। पल-पल बदलते हिमालय के हजारों-हजार रंगों को उन्होंने अपने कैनवस पर जिया ही तो है। साल बीतने को है। कलाओं में रचेंगे-बसेंगे तो सहज-सरल में भी बहुत कुछ नया पाएंगे ही।

Saturday, December 11, 2021

चित्त शिक्षित हो, मन सर्जक

नई शिक्षा  नीति में उच्च एवं तकनीकी  शिक्षा   के पाठ्यक्रम को बोझिलता से बचाने के लिए उनमें कला और संस्कृति से जुड़े अध्ययन के समावेश  की बात कही गयी है। ऐसा व्यवहार में यदि हो जाता है तो  शिक्षा   सच में विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास की वाहक हो सकती है। 

कलाएं शिक्षण  में बोझिलता को दूर करती है। संस्कारों की सूझ भी बहुत से स्तरों पर कलाएं ही देती है। पर इस समय की  शिक्षा   को देखें तो पाएंगे, अंतिम लक्ष्य वहां नौकरी प्राप्त करना भर है। पढ़ाई इसीलिए शायद व्यक्तित्व निर्माण, संस्कारों की खेती नहीं कर पा रही। और ऐसे में जिन्हें नौकरी नहीं मिलती वे युवा प्रायः भटक भी जाते हैं। पर कलाओं से यदि शिक्षण  को जोड़ा जाता है तो पढ़ाई नौकरी की विवशता  नहीं, संस्कारों की जीवंतता बन सकती है।

उच्च एवं तकनीकी शिक्षण संस्थानों में अतिथि अध्यापन के अंतर्गत निरंतर जाना रहता है और पाता हूं, बोझिल पढ़ाई की यंत्रणा जैसे वहां विद्यार्थी निरंतर झेलते हैं। पर देखता हूं, कला संस्कृति से जुड़ा कोई आयोजन वहां होता है तो विद्यार्थी खिल-खिल जाते हैं। सोचता हूं, क्या ही अच्छा हो इस तरह का उल्लास शिक्षण के दौरान भी रहे। यह मुश्किल नहीं है, बशर्ते  तकनीक में कलाओं का छोंक भर लगा दिया जाए। कुछ समय पहले पर्यटन मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कार्यरत भारतीय यात्रा एवं पर्यटन प्रबंध संस्थान में व्याख्यान देने जाना हुआ। अचरज हुआ कि पर्यटन  शिक्षा   प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को महापंडित राहुल सांकृत्यायन के बारे में जानकारी नहीं थी। माने पर्यटन की पढ़ाई व्यवसाय और प्रबंधन भर के ज्ञान से इतनी भरी है कि ‘घुम्मकड़ शास्त्र’ लिखने वाला उद्भट विद्वान ही वहां नदारद है। यह है तभी तो इस क्षेत्र के शिक्षित  बाद में भारतीय संस्कृति और संस्कारों से बाद में नहीं जुड़ पाते।  एक दफा मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वास्तुकला विभाग में  छायांकन पर व्याख्यान देने जाना हुआ। छायांकन से जुड़ी कलाओं पर रोचक बातें जब साझा कर रहा था तो अनुभूत किया विद्यार्थी जैसे खिल-खिल उठे थे। लगा, सुनने की विवशता  उदासी ओढाती है पर जब किस्से-कहानियों में वास्तु और पर्यटन से जुूड़ी कला-संस्कृति वहां हो तो पढ़ाई सुनने वालों के लिए रोचक हो उठती है।

राजस्थान पत्रिका, 11 दिसम्बर 2021

शिक्षण में कलाओं का समावेश  विद्यार्थियों को रोबोटिक होने से बचा सकता है। पर यह इस तरह से न हो कि विद्यार्थी पूर्ववर्ती कलाकारों, सांस्कृतिक धरोहर के बारे में अध्ययन भर करे। सार्थकता इसमें है कि शिक्षण संस्थानों में मौलिक दृष्टि विकसित करने से जुड़े ज्ञान का समावेश हो।    वहां कलाओं के जरिए  शिक्षा  विद्यार्थी को संवेदनशील  बनाने से जुड़े। पढ़ाई की बोझिलता से उन्हें मुक्त करे। अनुभवों की सीर इसमें मदद कर सकती है। संस्कृति की सोच से जुड़े लेखकों, कला मर्मज्ञों के अनुभव आधारित ज्ञान का प्रसार यह संभव कर सकता है। इसी दृष्टि से उच्च एवं तकनीकी  शिक्षा   में कला-संस्कृति का समावेष करने की नई शिक्षा नीति पर कार्य किया जाए। याद है, वास्तु से जुड़ा विज्ञान सदा ही मुझे बोझिल लगता रहा है पर एक दफा जब चाल्र्स कोरिया का एक व्याख्यान सुना तो फिर ढूंढ ढूंढ कर वास्तु ज्ञान से जुड़ी और भी सामग्री पढ़ने का मन हुआ। यह बात यहां इसलिए साझा कि है कि रोचक और अनुभूतियों से भरा यदि कोई संवाद शिक्षण  में मिलता है तो मन और भी नया कुछ जानने को उत्सुक होगा। विरल शिक्षाविद  गिजूभाई के शब्दों में कहूं तो इसी से चित्त शिक्षित होगा और मन सर्जक।

Saturday, November 13, 2021

सिंधी सारंगी में लोक स्वरों का उजास

सिं​धी सारंगी वादक लाखा खान
इस वर्ष जिन 119 हस्तियों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, सुखद है कि उनमें बहुत से लोक कलाकार भी हैं। ऐसे दौर में जब आधुनिकता की चकाचैंध लोक कलाओं को लीलती जा रही है, उनसे जुड़े कलाकारों का पद्म सम्मान महत्वपूर्ण है। लोक ही तो जीवन का आलोक है! पद्मश्री पाने वालों में इस बार सिंधी सारंगी वादक राजस्थान के लाखा खान भी है। उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी सिंधी सारंगी में लोक संगीत को अंवेरते उसमें निरंतर बढत की है। बहुतेरी बार उन्हें सुना है। सुनते हर बार यह भी लगा, लोक स्वरों के सहज प्रवाह में जैसे वह माधुर्य का अनुष्ठान करते हैं।

बीन अंग के आलाप, मन्द्र सप्तक से अति तार सप्तकों के विस्तार की कथा भले लाखा खान शब्दों में बंया न कर पाएं पर सारंगी की उनकी स्वर गूंज सुनते अनुशासित वादन के सुगठित प्रस्तुतिकरण को सहज हर कोई अनुभूत कर सकता है। कबीर की मूल साखियों में स्थानीय अंचल की बोलियों में भावों का अपने तई किए अनूठे मेल में वह जब सारंगी बजाते हैं तो रेत राग जैसे जीवंत हो उठती है। वह सारंगी संग गाते भी है पर सोचता हूं, गान के शब्द वादन में न भी घुले हों तो भी कानों में जैसे रस घुलता है। लोक राग मांड, सूप, सामेरी, आसा, मारू आदि संग कभी-कभी भैरवी जैसी शास्त्रीय राग में भी लय एवं ताल के गणित प्रभुत्व बगैर सहज स्वर-सौंदर्य प्रवाह वहां है।
सारंगी असल में तत्सम शब्द है। अर्थ करें तो, स्वर के माध्यम से कानों में जो अमृत घोले वह सारंगी है। लाखा खान की सारंगी ऐसी ही है। हरजस के ‘गरू बिना कौन संगी मन मेरा’ स्वर या सूफी मुल्तान सिंध के सूफियों के कलाम या फिर ‘खेलण दे दिन चार’ जैसे लोक गीतों की स्वर लहरियों वह जब सारंगी संग बिखेरते हैं तो लगता है सीमावर्ती क्षेत्रों के धोरे, वहां का जीवन हममें गहरे से बस रहा है।

राजस्थान पत्रिका, 13 नवम्बर 2021

राजस्थान में जोगिया, अलाबू, गुजराती आदि सारंगी वादन की परम्परा है। लाखा खान सिंधी सारंगी बजाते हैं। यह शास्त्रीय संगीत की सारंगी नहीं है। रावण हत्थे की मानिंद वह इसे जब बजाते हैं, संगीत में पष्चिमी राजस्थान के गांव, वहां के जीवन की छवियां जैसे आंखों में बसने लगती है। यह सच है, उनकी सारंगी गाती हुई धोरों की धरा में बसे जीवन को आंखों में बसाती है। लोक स्वरों को शास्त्रीयता से नहीं जोड़ा जा सकता। यहां सारंगी संग तबला नहीं ढोलक बजती है। भले ही लोक संगीत में आरोह अवरोह क्रम में राग का कोई निष्चित स्वर नहीं हो पर लय की सहज प्रकृति, मात्राओं के विशिष्ट क्रम में सारंगी स्वरों का उजास बिखेरती है। मींड, गमक, मुर्की की छोटी छोटी बोलतानों में कंठ के स्वर जहां नहीं पहुंचते वहां लाखा खान की सारंगी पहुंच जाती है। लाखा खान के छोटे आकार की सारंगी को उनके गान संग सुनना स्वयं स्फूर्त स्वर छंद की माधुर्य बढत से साक्षात् है। लाखा खान राजस्थान के उस संगीत घराने के वारिस हैं जिनकी पच्चीस पीढ़ियां सिर्फ गाने-बजाने से ही जुड़ी रही है। वह जब 11 बरस के थे तभी से सारंगी बजाना प्रारंभ कर दिया था। बाद में लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी के जरिए सुदूर देषों तक उनकी सारंगी के स्वर बिखरे। राजस्थान की धोरा धरा को अपनी सारंगी में लोक रागों के जरिए जीवंत करते लाखा खान को पद्मश्री लोक के आलोक का सही मायने में सम्मान है।

Sunday, November 7, 2021

'जनसत्ता' रविवारीय में "आँख भर उमंग"


"...प्रवहमान भाषा शैली में लिखे इस यात्रा संस्मरण को पढ़ कर पाठक लेखक के साथ जैसे विचरता चलता है।...यात्राओं का कवित्वपूर्ण, रोचक वर्णन।'



Saturday, November 6, 2021

कृतज्ञता से भरी भीगी आंखे

 फिल्म पत्रकारिता के दिनों में कभी संगीतकार रवि का लम्बा इन्टरव्यू ​किया था। बाद में टूकड़ों टूकड़ों में भी उनसे निरंतर बातें होती रही थी। अपने अंतिम दिनों में वह जयपुर भी आए थे—तब भी उनसे फिर से लम्बा साक्षात्कार हुआ था। इतनी बातें हुई थी कि पूरी एक पुस्तक संगीतकार रवि पर आ जाए। समय मिलेगा तो कभी इस पर काम होगा ही। बहरहाल, हेमंत दा के बारे में उनकी कही बातें ...

संगीतकार रवि के संग लेखक राजेश कुमार व्यास

"एक—एक दिन की एक—एक कहानी है। कहूंगा तो कईं दिन भी कम पड़ जाएंगे। ...वह एक डायलॉग है ना कि 'आदमी की लाइफ बदल जाती है।' तो मेरे साथ ऐसा ही हुआ है। हेमंत कुमारजी के साथ सहायक के रूप में काम किया करता था तब। इनकम भी अच्छी खासी थी।...अचानक एक दिन हेमंत दा कश्मीर जा रहे थे तो उन्होंने मुझे बुलाया और कहा रवि मैं कश्मीर जा रहा हूं और कुछ समय बाद वापस लौटूंगा परंतु अब तुम अपना अलग काम करो। तुम्हारे लिए यही ठीक रहेगा। यह सुनकर मुझे झटका लगा। मैंने कहा आपके साथ ही अच्छा हूं पर उन्होंने मेरी एक न सुनी। उन्होंने कहा तुम्हारा टेलेंट मेरे साथ सदा दबता रहेगा। पर मैं अपनी बंधी—बंधायी आमद को लेकर चिंचित था।...घर आकर पत्नी को यह बात बतायी। पत्नी ने सांत्वना दी सुख के दिन ईश्वर ने दिए हैं तो दुख के दिन भी गुजार लेंगे। पूरी रात हम सो नहीं पाए। भारी मन से दूसरे दिन स्टूडियो गया। सोचा, अपने वेतन के बचे पैसे ले लेता हूं।..पता चला, हेमंत दा ने मुझे उनको मिली फिल्में इंडेपेंडेंट कॉन्ट्रेक्ट करने के लिए मेहता सा. को कहा था।'

कहते हुए रवि की आंखे भीग जाती है। यह हेमंत दा के प्रति कृतज्ञता से भरी भीगी आंखे थी।














Friday, November 5, 2021

लोक दृष्टि की शास्त्रीयता

(एनबीटी की पत्रिका 'पुस्तक संस्कृति' के नए अंक (नवम्बर—दिसम्बर 2021) में)

...कपिला वात्स्यायन जी के कला-चिन्तन को लोक संस्कृति की उनकी समझ से देखे जाने और इस पर गहराई से विचारे जाने की जरूरत है। उनके लिखे के अर्न्तनिहित में जाएंगे तो पाएंगे भारत भर की पारम्परिक प्रदर्शनकारी कलाओं का गहन अध्ययन, सर्वेक्षण करते उन्होंने लोक में प्रचलित कला रूपों, गाथाओं, परम्पराओं को गहरे से खंगाला ही नहीं है बल्कि शास्त्रीयता में उनके होने की गहरी तलाश की है। लोक से जुड़े आलोक में कलाओं की हमारी समृद्ध-संपन्न परम्पराओं और सभ्यता से उसके नाते पर उनका चिन्तन बहुत से स्तरों पर मन को मथता है...




Sunday, October 31, 2021

एकदा-स्मृति छंद

"...घर पर टंगी घड़ी पर ही बार-बार निगाह जा रही थी। निगोड़ी धीमी से और धीमी चलने लगी  थी। न जाने क्यों यह लगा, उसके सूईये जानबूझकर मुझे चिढ़ाते मंद हुए है। ऐसा ही होता है, जब ब्रेसब्री से किसी सुखद घटित होने का इन्जार होता हैं! पंडित जी का फोन प्रातः दस बजे आया था और दोपहर के ढाई बजते बजते जैसे युग बीतने को आ रहा था। तीन बजे से पहले ही रामबाग होटल पहुंच गया था। वह अपनी पत्नी मधुराजी संग हमारा इन्तजार ही कर रहे थे। मैंने प्रणाम किया। उन्होंने ‘जय हो!’ के माधुर्य से जवाब दिया। दूसरे सोफे पर मधुरा शांताराम को पहचानते मैंने उन्हें भी प्रणाम किया। मधुर ध्वनि, ‘और सब ठीक है, व्यास जी।’

अचरज हुआ! इतनी आत्मीयता से, अपनेपन से वह बोली थी जैसे पहले से जानती हों। पंडित जी ने शायद उन्हें मेरे बारे में पहले से बता दिया था। चाय पीते-पीते यही सब सोच रहा था कि पंडित जसराज जी ने एक फ्रेम में मढ़ा मेरा ही लिखा मुझे पकड़ा दिया। यह वही फ्रेम था जिसमें छायाकार मित्र महेश स्वामी ने पंडित जी के गान पर लिखे और राजस्थान पत्रिका में छपे मेरे आलेख को मढवाकर उन्हें भेंट किया था। 


पंडित जी का आग्रह था, गायन की अनुभूतियों पर उनपर जो मैंने लिखा था, उसका वाचन करूं। वह शायद सुनने में अनुभूत करना चाहते थे माण्डूक्योपनिषद के गान के मेरे उस अनुभव-भव को जो शब्दों में मैंने बंया किया था। संकोच था पर उनके आग्रह को न मानने का कोई कारण नहीं था। मैंने अपने ही लिखे शब्दों को बांचना प्रारंभ कर दिया...वह तन्मय हो सुनने लगे थे। ...

--पूर्णता की आस संजोए बहुतेरी पाण्डुलिपियों में से एक के पन्ने।


भव के वैभव से साक्षात्कार कराती यात्राएं-- कृष्ण बिहारी पाठक

'अमर उजाला' 
31 October 2021

डॉ. राजेश कुमार व्यास का यात्रा संस्मरण 'आँख भर उमंग' इस समय चर्चा में है। इसमें लेखक की साहित्यिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक, प्राकृतिक और पर्यावरणीय यात्रा दृष्टि का कवित्वपूर्ण, हृदयस्पर्शी रूपांकन और इतिहास मिथक को एकरस करती किस्सागोई विशिष्ट है। मार्ग से मंजिल तक की प्रत्येक संज्ञा से जुड़े पौराणिक, ऐतिहासिक, प्राकृतिक और सामाजिक संदर्भों पर लेखक की अद्भुत पकड है। यात्रावृत्त पढते पाठक को  बार बार  लगता है कि लेखक उसे हाथ पकड़कर इतिहास, भूगोल की सीमाओं के पार स्थल विशेष के उद्भव और विकास की परिधियों तक ले गया है, और  कोने कोने को झाँककर दिखा रहा है। कहीं चंबल के बीहड़ों के बीच खंडहरों में सांस्कृतिक वैभव की तलाश है तो  रवींद्र की हवेली तथा शांति निकेतन में मूर्त - अमूर्त कलाओं का आभास। कहीं सिद्धार्थ से तथागत बनते गौतम बुद्ध की आत्मिक यात्रा की सहवर्ती मानसिक यात्रा है तो शिव के ज्योतिर्लिंगों तीर्थों और मंदिरों में शिवत्व का संधान। कहीं आदिवासी कलाओं में पैठकर उनकी आदिम जीवन शैली की पडताल है तो कहीं लोक देवी- देवता, लोक परंपरा और लोकाचार । कहीं हम्मीर और कान्हड़देव की वीरगाथाओं के साक्ष्य हैं तो  खेत खलिहान और गाँव की गोधूलि का आनंद भव है।

शिल्प से सरोकार तक, श्लोक से मंत्र तक, कविता से चित्र तक,सेतु से नदी तक, संग्रहालय से संस्थान तक, खंडहर से दुर्ग तक, शास्त्र से लोककथाओं तक, पाषाण से मूर्ति तक, हवेली से मंदिर तक, दंतकथाओं से जातक कथाओं तक, किंवदंतियों से प्रमाण तक, सैलानी  ने  विस्तृत यात्रा संसार संजोया है।

विरासत, धरोहरों की यात्रा में लेखक लोकश्रुतियों, किंवदंतियों की भावुक कल्पनाओं को पुरातत्व और विज्ञान के साक्ष्यों की तार्किकता से पुष्ट करते हुए अतीत  गौरव की अमिट गाथाओं को और अधिक भास्वर,  मुखरित करता है।  संसद भवन की प्रेरणा में पुर्तगाली स्थापत्य के स्थान पर मितावली के इकोत्तरसा महादेव मंदिर की मूल प्रेरणा का प्रमाण देना और इस्लाम से गुंबद निर्माण की प्रेरणा के भ्रम को, इस्लाम के आगमन से वर्षों पूर्व बनी भोजेश्वर मंदिर की गुंबदाकार छत दिखा तोडने के प्रसंग इस वृत्त को भारत के सांस्कृतिक स्वाभिमान का यात्रावृत्त सिद्ध करते हैं। “आँख भर उमंग” ऐसी ही सजीव कृति है जिसके पृष्ठ दर पृष्ठ, पंक्ति दर पंक्ति, शब्द दर शब्द पढ़ता पाठक एक पल को भी ध्यान नहीं भटका सकता।

 

यात्रा संस्मरण — 'आँख भर उमंग'

लेखक — डॉ. राजेश कुमार व्यास

प्रकाशक — नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया, नई दिल्ली

मूल्य — 310 रूपये मात्र, पृष्ठ — 250

आँख भर उमंग-यात्रा की उमंग का साहचर्य

-डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी

केन्द्रीय साहित्य अकादमी से सम्मानित रसज्ञ कवि, कलाविद् डॉ.राजेश कुमार व्यास की राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित 'आंख भर उमंग' कृति एक दशक की उनकी यात्राओं का भाव भरा प्रस्फुटन है।  यह यात्रा चंबल के जंगलों, नालंदा के खंडहर, नर्मदा की धाराओं, पहाड़ों की नैसर्गिक छटाओं के साथ-साथ भारत की लोक संस्कृति, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक अन्तर्यात्राओं को भी समाहित करती है, जहां प्रकृति,वास्तु शिल्प, इतिहास एवं कला का वैभव चाक्षुष बिम्ब के रूप में व्यक्त होता है।


डॉ. व्यास के इस यात्रा संस्मरण में पहाड़ों की यात्रा में रोमांच के साथ प्राकृतिक सुषमा का मोहक दृश्य लेखनी की मंत्रमुग्ध गति है। भीमताल की यात्रा करते हुए वे लिखते हैं, " गाड़ी पहाड़ से नीचे उतर रही है। पेड़ों का झुरमुट... और बीच में इकट्ठा जल। बरखा के पानी को जैसे धरित्री ने अपनी छोटी सी अंजुरी में बहुत जतन से समेट लिया है।" यह भावमयी क्षिप्रता आकर्षण पैदा करती है।

यात्रा के साथ साथ पुस्तक में लोक संस्कृति से तादात्म्य हमारी आंतरिक लय को भी गतिमान कर देता है। 'दहकते अंगारों पर सबद नाद' शीर्षक यात्रावृत्त में जसनाथी नृत्य का वर्णन करते हुए लेखक स्वयं चमत्कृत होकर लिखते हैं, "लाल दहकते अंगारों पर जसनाथी नृत्य। तेज होते वाद्यों की गति और शब्द नाद के साथ नर्तक अपनी धुन में मगन! औचक एक नर्तक अंगारे को हाथों में उठा मुँह में डाल रहा है तो दूसरा उसे अपनी हथेली में ले मजीरे की तरफ फोड़ रहा है।" यह वर्णन पाठक को भी रोमांचित कर देता है।

डॉ. व्यास प्रकृति के चितेरे हैं। ऐसी स्थिति में पदार्थवादी दुनिया के प्रति उनका विकर्षण स्वाभाविक है। कश्मीर की वादियों में विचरते हुए अपने मन की थाह लेते हुए कह उठते हैं, "शहरीपन से आए बदलावों पर जब भी विचारता हूँ, मन जैसे बुझ जाता है। ढूंढने लगता हूँ, इस गडरिए जैसी उस मस्ती को जो अब न जाने कहाँ लोप हो गई है।"

इसी तरह कवि मन, कला हृदय लेखक ने गाँव, नगर, दुर्ग, नदियों, पहाड़ों, मंदिरों से लेकर खेत खलिहानों तक की यात्रा को जीवंत रूप में प्रवाहमयी शैली के साथ प्रस्तुत किया है। उल्लेखनीय है कि यात्रावृत्त रिपोर्ताज शैली में ना लिखकर भाव-भरी रसात्मक शैली में प्रांजल शब्दावली के साथ है,जिसमें पाठक लेखक के साथ ठहरता हुआ यात्रा करता है। लघु आकार में अनावश्यक शब्द बोझिलता और अलंकरण से बच पाना लेखक की उदारता का प्रमाण है। छिहत्तर यात्रावृत्तों की 250 पृष्ठों में समाहित 'आंख भर उमंग' पुस्तक संपूर्ण भारत की परिक्रमा है। पुस्तक में लेखक द्वारा लिए छायाचित्र भी मोहक है।

पुस्तक: आँख भर उमंग
लेखक: डॉ. राजेश कुमार व्यास
प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
पृष्ठ संख्या: 250
आमंत्रण मूल्य: 310/-

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24 October 2021

राजस्थान पत्रिका, 24 अक्टूबर 2021

Friday, July 30, 2021

'यात्रावृत्तांतीय लय में विन्यस्त कविताएं'

कोरोना के इस प्रकोप से बस कुछ ही समय पहले, संजोग से बहुत सारी यात्राएं हुई थी। उन्हीं में से एक यात्रा 'एलोरा' की भी थी। वहां के शिल्प—स्थापत्य में रमते कवि हुआ था— मन। शब्द—शब्द जो झरा, उसे तब डायरी में सहेजा था। सुखद है, राजस्थान साहित्य अकादेमी की पत्रिका 'मधुमती' ने उसे अपने मई—2021 अंक में अंवेरा है।...संपादक मित्र डॉ. ब्रजरतन जोशी ने इन कविताओं को 'यात्रावृत्तांतीय लय में विन्यस्त कविताएं' कहा है—





Wednesday, July 28, 2021

"अमर उजाला" में -'रस निरंजन'

संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकला पर एकाग्र 'रस निरंजन' की अमर उजाला, रविवारीय में प्रकाशित यह समीक्षा...


"अमर उजाला" 11 Julay 2021


कलाओं में रमी दृष्यभाषा के पत्र

राजस्थान पत्रिका, 16 जुलाई 2021


कलाएं सौन्दर्य के अन्वेषण में बसे कला मन की परिणति है। कहें नया कुछ रचने, गढ़ने के लिए चलने वाली अकुलाहट। सोचता हूं, सूक्ष्म और स्थूल आकार पर यदि किसी रंग का नाम लिख दें तो क्या वह आकार उस रंग में दिखाई देगा! नहीं ही दिखाई देगा क्योंकि चित्र की भाषा शब्द नहंी आकृति और रंग है। चित्रकला दृष्यकला इसीलिये तो है कि यह पढ़ने या सुनने की चीज नहीं देखने की चीज है। पर कितना अच्छा हो, चित्रों को देखकर नहीं उनके बारे में पढ़कर मन संवेदित हो। 

 बहरहाल, यह लिख रहा हूं और ज़हन में सेंजा के चित्र और उनमें बरते रंगों की भाषा जैसे ध्वनित हो रही है। कारण यह नहीं है कि सेंजा के चित्र मैंने देखे हैं बल्कि यह है कि उनके चित्रों पर रायनर मारिया रिल्के द्वारा क्लारा रिल्के को लिखे पत्रों की भाषा को मन ने पढ़ा और सहेजा है। जोल एजी के अंग्रेजी में अनुदित पत्रों और हाइनरिख वाहगंड पत्सेज की पठनीय प्रस्तावना को पिछले दिनों कवि संजय कुंदन ने हिंदी में भाव भरे रूप मंे पाठकों को सौंपा है। असल में ‘रायनर मारिया रिल्के: पत्रों में सेंजा’ पुस्तक रजा पुस्तकमाला के तहत प्रकाषित ऐसी है जिसमें रिल्के के कवि मन को ही नहीं उनके कलाओं की परख से जुड़े अंतर्मन को पढ़ा ही नहीं बांचा जा सकता है। इसमें उनका अचंभित करने वाला वाक्य ‘अचानक सही आंख मिल गयी’ हो या फिर पत्रों में व्यक्त सेंजा के अनोखे नीले रंगों की निष्क्रिय, लाल और सुंदर अंतःकरण, ठण्डे नाममात्र के नीले समुद्र, नीले पण्डुक धूसर आदि व्यंजनाएं-सभी में रंग संवेदना का अद्भुत काव्य कहन है। रिल्के के पत्र कलाकृतियांे के निर्माण के अर्न्तनिहित में ले जाते खतरे उठाने और अनुभव बढ़ाते कला को असीम तक पहुंचाने से साक्षात् कराते हैं तो कलाकार की सर्जना में निहित तत्वों के साथ स्वयं उनके प्रकृति और कला से जुड़े सरोकारों से भी हमें जोड़ते हैं।  

रिल्के के इन पत्रों में सेंजा के चित्रों में उपजे रोष,  हूबहू बनाने की उनकी जिद से जुड़ी विडम्बनाओं, पेरिस में उनके अपने ही बनाए रेखाचित्रों को देख न्यूड बनाने की सनक, उनके बरते गहरे नीले, लाल, हल्के हरे और लालिमा युक्त काले रंग के साथ ही गजब तरीके की रंगहीनता का विरल वर्णन है। उनके यह पत्र इस मायने में भी महत्ती है कि इनमें वैन गॉग के जीवन का मर्म है तो मूर्तिकार रोंदा के कलाकर्म और अनुषासन की थाह भी गहरे से ली गयी है। रिल्के पत्रों में भी दृष्यभाषा रचते हैं। मन उसमें गहरे से रमता है। काष! हिंदी में भी कला और कलाकारों के अंर्तमन से जुड़ी ऐसी पुस्तकों का आकाश बने। 


Friday, April 16, 2021

मनोरंजन का आधार बने कलाएं

मनोरंजन माने मन का रंजन। पर इधर मनोरंजन में कला पक्ष गौण प्रायः हो रहा है। कहने को रेडियो-टीवी सर्वाधिक मनोरंजन करने वाले माध्यम हैं पर मनोरंजन के नाम पर भाषा के अनर्गल, फूहड़पन में वहां भोंडे लतीफे, नाग-नागिन, सास-बहू जैसे कभी न समाप्त होने वाले धारावाहिक परोसे जा रहे है। भावपूर्ण पारम्परिक हमारे नृत्यों के स्थान पर शरीर के अंगो की लोच के करतब और भयावह अपराध गाथाओं को दिखाने को ही मनोरंजन मान लिया गया है। विचार करें, इसी से युवापीढ़ी क्या तेजी से अवसादग्रस्त नहीं होती जा रही!

राजस्थान पत्रिका, 16.4.2021
कलाएं हमारे यहां रूप-रंगो से ही नहीं उत्सवधर्मिता से भी जुड़ी रही हैं। मनोरंजन में कलाओं के लोक-आलोक से ही मन रंजित होता है। नाट्य की हमारी समृद्ध परम्परा में विदूषक की उपस्थिति स्वस्थ मनोरंजन का कभी बड़ा आधार थी। संस्कृत नाट्य साहित्य के लोकप्रिय रूपक ‘मृच्छकटिकम्’ के एक प्रसंग में विदूषक से राजा कहते हैं, ‘कहानी सुनाओ।’ वह कहानी की शुरूआत करते कहता है, ब्रह्मदत्त नाम का राजा है। काम्पिल्य नाम की नगरी। राजा सुधारता है, ‘मूर्ख, राजा काम्पिल्य, नगर ब्रह्मदत्त। विदूषक इसको कईं बार रटता है। इतने में राजा को नींद आ जाती है। ‘सहस्त्र रजनी चरित’ में राजा हर रात एक स्त्री की हत्या करवाता है। एक दिन राजा के महामंत्री की पुत्री स्वयं आग्रह कर राजा के पास जाती है। रात्रि में वह राजा को कहानी सुनाना प्रारंभ करती है। भोर होने तक वह हर रात कहानी को ऐसे मोड़ पर ले आती है कि उसे सुने बिना राजा रह नहीं सकता। कहानी में कहानी। कहानी में एक और कहानी। इस तरह से कहानियों का जो सिलसिला प्रारंभ होता है वह निरंतर आगे बढ़ता रहता है। और एक रोज राजा का हृदय परिवर्तन हो जाता है। ‘सहस्त्र रजनी चरित्र’ कहीं ‘अलिफ लैला’ हैं तो कहीं ‘दास्तानें हजार रात’। ‘कथा सरित्सागर’ की कथाएं भी कम मनोरंजक नहीं है। विष्णु शर्मा रचित ‘पंचतंत्र’ में मूर्ख राजपुत्रों को जीव जंतुओं की कथाओं के जरिए नीति संदेशों में भी रंजन हैं। हमारे यहां तो पहेलियां भी इसका बड़ा आधार रही है। कभी दरड़ी ने ‘काव्यादर्श’ में सोलह प्रकार की प्रहेलिकाएं बतायी थी। कहते हैं उसी से बाद में खूसरो ने ‘बूझ पहेली’ और ‘बिन बूझ पहेलियां’ गढ़ी। संगीत के अंतर्गत ध्रुवपद में ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ जैसे निर्थक शब्द भी कुछ इसी तरह से आए। कहते हैं अमीर खुसरो जब भारत आए तो उन्हें ध्रुवपद की भारतीय परम्परा बहुत भायी पर संस्कृत के श्लोकों को देख वह घबराए। वह अरबी विद्वान थे। उन्होंने ध्रुवपद में संस्कृत शब्दों की बजाय निर्थक ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ शब्द गढ़ कर तरह-तरह के हिन्दुस्तानी राग गाए। यही बाद में तराने हुए। मनोरंजन के ऐसे ही कलात्मक रूपों में हमारी संस्कृति निरन्तर संपन्न होती रही है।
संगीत, नृत्य, नाट्य कलाएं ही तो स्वस्थ मनोरंजन का आधार है। इसलिए भी कि इनके ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक संदर्भ हैं और कोई भी समाज सांस्कृतिक संदर्भ खोकर आगे नहीं बढ़ सकता। इस दृष्टि से टीवी-रेडियो माध्यमों में मनोरंजन का बड़ा आधार क्या यह कलाएं ही नहीं होना चाहिए!