अचरज हुआ! इतनी आत्मीयता से, अपनेपन से वह बोली थी जैसे पहले से जानती हों। पंडित जी ने शायद उन्हें मेरे बारे में पहले से बता दिया था। चाय पीते-पीते यही सब सोच रहा था कि पंडित जसराज जी ने एक फ्रेम में मढ़ा मेरा ही लिखा मुझे पकड़ा दिया। यह वही फ्रेम था जिसमें छायाकार मित्र महेश स्वामी ने पंडित जी के गान पर लिखे और राजस्थान पत्रिका में छपे मेरे आलेख को मढवाकर उन्हें भेंट किया था।
पंडित जी का आग्रह था, गायन की अनुभूतियों पर उनपर जो मैंने लिखा था, उसका वाचन करूं। वह शायद सुनने में अनुभूत करना चाहते थे माण्डूक्योपनिषद के गान के मेरे उस अनुभव-भव को जो शब्दों में मैंने बंया किया था। संकोच था पर उनके आग्रह को न मानने का कोई कारण नहीं था। मैंने अपने ही लिखे शब्दों को बांचना प्रारंभ कर दिया...वह तन्मय हो सुनने लगे थे। ...
--पूर्णता की आस संजोए बहुतेरी पाण्डुलिपियों में से एक के पन्ने।
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