ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, October 31, 2021

एकदा-स्मृति छंद

"...घर पर टंगी घड़ी पर ही बार-बार निगाह जा रही थी। निगोड़ी धीमी से और धीमी चलने लगी  थी। न जाने क्यों यह लगा, उसके सूईये जानबूझकर मुझे चिढ़ाते मंद हुए है। ऐसा ही होता है, जब ब्रेसब्री से किसी सुखद घटित होने का इन्जार होता हैं! पंडित जी का फोन प्रातः दस बजे आया था और दोपहर के ढाई बजते बजते जैसे युग बीतने को आ रहा था। तीन बजे से पहले ही रामबाग होटल पहुंच गया था। वह अपनी पत्नी मधुराजी संग हमारा इन्तजार ही कर रहे थे। मैंने प्रणाम किया। उन्होंने ‘जय हो!’ के माधुर्य से जवाब दिया। दूसरे सोफे पर मधुरा शांताराम को पहचानते मैंने उन्हें भी प्रणाम किया। मधुर ध्वनि, ‘और सब ठीक है, व्यास जी।’

अचरज हुआ! इतनी आत्मीयता से, अपनेपन से वह बोली थी जैसे पहले से जानती हों। पंडित जी ने शायद उन्हें मेरे बारे में पहले से बता दिया था। चाय पीते-पीते यही सब सोच रहा था कि पंडित जसराज जी ने एक फ्रेम में मढ़ा मेरा ही लिखा मुझे पकड़ा दिया। यह वही फ्रेम था जिसमें छायाकार मित्र महेश स्वामी ने पंडित जी के गान पर लिखे और राजस्थान पत्रिका में छपे मेरे आलेख को मढवाकर उन्हें भेंट किया था। 


पंडित जी का आग्रह था, गायन की अनुभूतियों पर उनपर जो मैंने लिखा था, उसका वाचन करूं। वह शायद सुनने में अनुभूत करना चाहते थे माण्डूक्योपनिषद के गान के मेरे उस अनुभव-भव को जो शब्दों में मैंने बंया किया था। संकोच था पर उनके आग्रह को न मानने का कोई कारण नहीं था। मैंने अपने ही लिखे शब्दों को बांचना प्रारंभ कर दिया...वह तन्मय हो सुनने लगे थे। ...

--पूर्णता की आस संजोए बहुतेरी पाण्डुलिपियों में से एक के पन्ने।


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