ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, December 12, 2021

देखने का संस्कार देती कलाएं

कलाएं अतीत, वर्तमान और भविष्य की दृष्टि को पुनर्नवा करती है। और हां, देखने का संस्कार भी कहीं ठीक से मिलता है तो वह कलाएं ही हैं। चित्रकला और मूर्तिकला की ही बात करें। इटली की मूर्तिकार एलिस बोनर ने कभी ज्यूरिख में नृत्य सम्राट उदय शंकर का नृत्य देखा और बस देखती ही रह गई। यह उनके देखने का संस्कार ही था कि मंदिरों में उत्कीर्ण मूर्तियों को बाद में उसने अपनी कला में गहरे से जिया।

मुझे लगता है, कलाओं से साक्षात् भी अपनी तरह की साधना है। आपने कोई चित्र देखा है, मूर्ति का आस्वाद किया है। तत्काल कुछ भाव मन में आते हैं-उसके प्रति। कुछ समय बाद फिर से आस्वाद करेंगे तो कुछ और सौन्दर्य भाव अलग ढंग से मन में जगेंगे। जितनी बार देखेंगे मन उतना ही मथेगा। याद पड़ता है, इन पंक्तियों के लेखक ने कभी ख्यात निबंधकार विद्यानिवास मिश्र को अपना कविता संग्रह भेंट किया था। उन्होंने कविताएं पढ़ी और लिखा, ‘कविताएं घूंट घूंट आस्वाद का विषय है। मैं कर रहा हूं।’ माने कविताओं को वह पढ़ ही नहीं रहे थे, मन की आंखो से देख भी रहे थे। इस देखने से ही मन में शायद प्यार जगता है। 

स्पेन के प्रख्यात सिनेकार जोसे लुई गार्सिया की फिल्म ‘कैडल सांग’ का संवाद है, ‘जो देखना जानाता है, वही प्यार कर सकता है।’ चित्र-मूर्तियों के अंकन में ही जाएं। भारत ही नहीं विश्वभर में भगवान बुद्ध की एक से बढ़कर एक मूर्तियां मिल जाएंगी पर बुद्ध क्या वास्तव में मूर्ति में जैसे है, वैसे ही रहे होंगे? आरंभ में बुद्ध की उपस्थिति उनकी मूर्ति से नहीं उनसे जुड़े प्रतीकों से की जाती। बोधिवृक्ष। धर्मचक्र परिवर्तन कराते कर। छत्र। पादुका और उनकी दूसरे प्रतीक। उनसे ही तथागत की उपस्थिति का आभास होता। इन प्रतीकों के आधार पर ही मूर्तियां दर मूर्तियां गढ़ी गई। ठीक वैसे ही जैसे राजा रवि वर्मा ने देवी-देवताओं को जिस रूप में बनाया, वही बाद में पूज्य हो गए। उनके बनाए चित्रों से पृथक कहीं शिव, कृष्ण, राम दिखते हैं तो वह हमें स्वीकार्य नहीं।  माने अपनी दीठ से कलाकार ने जो सिरज दिया, वही सर्वव्यापी हो गया।
 
बहरहाल, आम शिकायत है कि एब्सट्रेक्ट चित्र समझ नहीं आते पर उन पर गौर करेंगे तो अर्थ का वातायन खुलता नजर आएगा। एब्सट्रेक्ट क्या है? किसी अर्थ खुलते अंश की व्यंजना ही तो! और हां, देखने का संस्कार पाना है तो प्रकृति से बड़ा सिखाने वाला और कौन होगा! आप आसमान को देखें। समय के साथ बदलता नीला, भूरा, पीला और लाल होता आकाश! रात्रि की नीरवता में तारों को देखें और आसमान में बदलते रंगों में अपनी अनुभूतियों को घोलें। और नहीं तो रूसी चित्रकार रोरिक के हिमालय चित्रों को ही देखें। पल-पल बदलते हिमालय के हजारों-हजार रंगों को उन्होंने अपने कैनवस पर जिया ही तो है। साल बीतने को है। कलाओं में रचेंगे-बसेंगे तो सहज-सरल में भी बहुत कुछ नया पाएंगे ही।

No comments:

Post a Comment