ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Sunday, December 19, 2021

गीतों की भोर, रंगों की सांझ

कलाएं रस निरंजन हैं। यह कलाएं ही हैं जो जीवन को तरंगायित करती नया कुछ सीखने को भी सदा प्रेरित करती है। इसलिए कहते हैं, कलाओं से जुड़ा व्यक्ति कभी उम्रदराज नहीं होता। रवीन्द्र नाथ टैगौर को ही लें। उन्हें ‘गीतांजलि’ पर नोबल मिल चुका था, रवीन्द्र संगीत और ‘ताशेर देश’ जैसे उनके नाट्य अपार लोकप्रिय हो चुके थे पर फिर भी उम्र के 67 वें वर्ष में उन्होंने चित्रकला की शुरूआत की। संयोग देखिए, कविता लिखते वक्त पंक्तियों की काट छांट में उन्होंने रेखाओं में निहित चित्रों के आकार छुपे देखे। जिस कविता ने रवीन्द्र नाथ टैगौर को विश्व कवि रूप में अपार लोकप्रियता दिलाई, उसी से प्रसूत रेखाओं के आकारों ने उन्हें चित्रकार भी बनाया।  माने कलाएं बढ़त है।

बहरहाल, रेखाओं की मुक्ति के निमित कला की टैगौर की यात्रा कविता की लय सरीखी है। रवीन्द्र एक स्थान पर कहते भी है, ‘मेरी चित्रकला की रेखाओं में मेरी कविताएं है।’ पैरिस की गैलरी पिगाल में 1930 में उनके चित्रों की प्रथम प्रदर्शनी जब लगी तभी रवीन्द्र के चित्रकर्म पर औचक विश्वभर का ध्यान गया। बाद में लंदन, बर्लिन और न्यूयार्क गैलरियों के साथ यूनेस्को द्वारा आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय आधुनिक कला प्रदर्शनियों में भी उनके चित्र सम्मिलित हुए।

रवीन्द्र के चित्रों की खास संरचना, उनमें निहित संवेदना और अंतर्मुखवृति के साथ परम्परा से जुदा मौलिकता ने सदा ही मुझे आकर्षित किया है। याद पड़ता है, पहले पहल रवीन्द्र का बनाया जब ‘मां व बच्चा’ कलाकृति देखी तो लगा जीवन को कला की अद्भुत दीठ से व्याख्यायित करते उनके चित्र कला की अनूठी दार्शनिक अभिव्यंजना है। उन्हीं का बनाया एक बेहद सुन्दर चित्र है ‘सफेद धागे’। इसमें स्मृतियों का बिम्बों के जरिए अद्भुत स्पन्दन है। ‘थके हुए यात्री’, ‘स्त्री-पुरूष’ जैसे मानव चित्रो के साथ ही पक्षियों के उनके रेखांकन में एक खास तरह की एकांतिका तो है परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं की सौन्दर्य सृष्टि भी है। सहजस्फूर्त रेखाओं के उजास में रवीन्द्र के कलाकर्म की रंगाकन पद्धति, सामग्री में निहित रेखाओं की आंतरिक प्रेरणा को सहज अनुभूत किया जा सकता है।

कविता से चित्रकर्म की यात्रा का उनका यह संवाद भी तो न भुलने वाला है, ‘मेरे जीवन की भोर गीतों भरी थी, चाहता हूं सांझ रंग भरी हो जाए।’ यह रवीन्द्र ही है जिनके गीतों की भोर भीतर से हमें जगाती है तो चित्रों का उनका लोक सुरमयी सांझ में सदा ही सुहाता है। रवीन्द्र के चित्रों में पोस्टर रंगो, पेड़ों की पत्तियों और फूलों की पंखुड़ियों के रस के साथ ही पानी में घुलने वाले और दूसरे तमाम प्रकार के प्राकृतिक रंगों का आच्छादन, उत्सव लोक भी अलग से ध्यान खींचता है। एक व्यक्ति में कला के कितने-कितने रंग—रूप हो सकते हैं, यह भी तो रवीन्द्र के ही व्यक्तित्व में है। नहीं!

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