ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, December 11, 2021

चित्त शिक्षित हो, मन सर्जक

नई शिक्षा  नीति में उच्च एवं तकनीकी  शिक्षा   के पाठ्यक्रम को बोझिलता से बचाने के लिए उनमें कला और संस्कृति से जुड़े अध्ययन के समावेश  की बात कही गयी है। ऐसा व्यवहार में यदि हो जाता है तो  शिक्षा   सच में विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास की वाहक हो सकती है। 

कलाएं शिक्षण  में बोझिलता को दूर करती है। संस्कारों की सूझ भी बहुत से स्तरों पर कलाएं ही देती है। पर इस समय की  शिक्षा   को देखें तो पाएंगे, अंतिम लक्ष्य वहां नौकरी प्राप्त करना भर है। पढ़ाई इसीलिए शायद व्यक्तित्व निर्माण, संस्कारों की खेती नहीं कर पा रही। और ऐसे में जिन्हें नौकरी नहीं मिलती वे युवा प्रायः भटक भी जाते हैं। पर कलाओं से यदि शिक्षण  को जोड़ा जाता है तो पढ़ाई नौकरी की विवशता  नहीं, संस्कारों की जीवंतता बन सकती है।

उच्च एवं तकनीकी शिक्षण संस्थानों में अतिथि अध्यापन के अंतर्गत निरंतर जाना रहता है और पाता हूं, बोझिल पढ़ाई की यंत्रणा जैसे वहां विद्यार्थी निरंतर झेलते हैं। पर देखता हूं, कला संस्कृति से जुड़ा कोई आयोजन वहां होता है तो विद्यार्थी खिल-खिल जाते हैं। सोचता हूं, क्या ही अच्छा हो इस तरह का उल्लास शिक्षण के दौरान भी रहे। यह मुश्किल नहीं है, बशर्ते  तकनीक में कलाओं का छोंक भर लगा दिया जाए। कुछ समय पहले पर्यटन मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कार्यरत भारतीय यात्रा एवं पर्यटन प्रबंध संस्थान में व्याख्यान देने जाना हुआ। अचरज हुआ कि पर्यटन  शिक्षा   प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को महापंडित राहुल सांकृत्यायन के बारे में जानकारी नहीं थी। माने पर्यटन की पढ़ाई व्यवसाय और प्रबंधन भर के ज्ञान से इतनी भरी है कि ‘घुम्मकड़ शास्त्र’ लिखने वाला उद्भट विद्वान ही वहां नदारद है। यह है तभी तो इस क्षेत्र के शिक्षित  बाद में भारतीय संस्कृति और संस्कारों से बाद में नहीं जुड़ पाते।  एक दफा मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वास्तुकला विभाग में  छायांकन पर व्याख्यान देने जाना हुआ। छायांकन से जुड़ी कलाओं पर रोचक बातें जब साझा कर रहा था तो अनुभूत किया विद्यार्थी जैसे खिल-खिल उठे थे। लगा, सुनने की विवशता  उदासी ओढाती है पर जब किस्से-कहानियों में वास्तु और पर्यटन से जुूड़ी कला-संस्कृति वहां हो तो पढ़ाई सुनने वालों के लिए रोचक हो उठती है।

राजस्थान पत्रिका, 11 दिसम्बर 2021

शिक्षण में कलाओं का समावेश  विद्यार्थियों को रोबोटिक होने से बचा सकता है। पर यह इस तरह से न हो कि विद्यार्थी पूर्ववर्ती कलाकारों, सांस्कृतिक धरोहर के बारे में अध्ययन भर करे। सार्थकता इसमें है कि शिक्षण संस्थानों में मौलिक दृष्टि विकसित करने से जुड़े ज्ञान का समावेश हो।    वहां कलाओं के जरिए  शिक्षा  विद्यार्थी को संवेदनशील  बनाने से जुड़े। पढ़ाई की बोझिलता से उन्हें मुक्त करे। अनुभवों की सीर इसमें मदद कर सकती है। संस्कृति की सोच से जुड़े लेखकों, कला मर्मज्ञों के अनुभव आधारित ज्ञान का प्रसार यह संभव कर सकता है। इसी दृष्टि से उच्च एवं तकनीकी  शिक्षा   में कला-संस्कृति का समावेष करने की नई शिक्षा नीति पर कार्य किया जाए। याद है, वास्तु से जुड़ा विज्ञान सदा ही मुझे बोझिल लगता रहा है पर एक दफा जब चाल्र्स कोरिया का एक व्याख्यान सुना तो फिर ढूंढ ढूंढ कर वास्तु ज्ञान से जुड़ी और भी सामग्री पढ़ने का मन हुआ। यह बात यहां इसलिए साझा कि है कि रोचक और अनुभूतियों से भरा यदि कोई संवाद शिक्षण  में मिलता है तो मन और भी नया कुछ जानने को उत्सुक होगा। विरल शिक्षाविद  गिजूभाई के शब्दों में कहूं तो इसी से चित्त शिक्षित होगा और मन सर्जक।

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