मुझे लगता है, जीवन के विविध रंगो की रूपगोठ है, डाॅ. बाला मुरली कृष्ण का संगीत। कभी अहीर भैरव में उनका गाया ‘तिलाना’ सुना था। वाद्यों की संगत में वह गा रहे थे ‘नादिर धिन-धिन...’ पर लगा जैसे नृत्य के सर्वांग से साक्षात् हो रहा हूं। उन्हें सुनते यही होता है। बहुतेरी बार वह अपने गायन में नृत्य की भाषा भी रचते थे। उत्सवधर्मिता का रंग नाद ही तो था उनका गायन! गले से संगीत, नृत्य, चित्रकला और तमाम दूसरी कलाओं को वह व्यंजित करते कलाओं के अंतःसंबंधों से भी जैसे वह साक्षात् कराते हैं। विष्वास नहीं हो तो सुनें पंडित भीमसेन जोषी के साथ की उनकी वह जुगलबंदी, ‘मानस भज रे गुरूदेवम्...अमृत मधुर संगीत सुधाकर’। शब्द-षब्द सौन्दर्य, माधुर्य। स्वरों का अद्भुत उजास। और हां, ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ में उनकी गायी पंक्तियांे पर भी गौर करेंगे तो पाएंगे भाषा भेद से परे विरल लालित्य उनके स्वरों में है। ऐसा जो सुनने के बाद मन में सदा के लिए बस जाता है। उनकी स्वयं कंपोज रचना ‘मंगलम्’ तो अद्भुत है। सीधे-सपाट स्वर। राग का कहीं कोई उलझाव नहीं परन्तु शब्दों को परोटने का अनूठा अंदाज। जैसे कोई संगीत का बहुत अधिक ज्ञान नहीं रखने वाला सीधे-सीधे गाकर वेंकेटेष्वरन को मंगल के लिए निवेदित है। पर सुनेंगे तो मन करेगा, फिर से सुनें। सुनते ही रहें। इसलिए कि डाॅ. बालामुरली कृष्ण ‘मंगलम’ में सुरों का विरल आकाष रचते हैं। इसलिए कि वहां मौन का निवेदन है। इसलिए कि सहज संगीत वहां प्रवाहित है। उनकी यही बड़ी विषेषता थी-वह जन-मन से जुड़े संगीत भावों को अपने गले से सदा ही साधते थे।
‘त्यागराज पंचरत्न कीर्ति’ के अंतर्गत ‘नगमोगू जंदानंद कारका...’ सुनते मन अध्यात्म के रंग में पूरी तरह से रंग जाता है। मुझे लगता है, संत कवि त्यागराज की रचनाओं को तो उन्होंने अपने तई संगीत में जज्ब कर लिया था। लय और ताल पर उनकी विषिष्ट पकड़ थी। यह था तभी तो संत त्यागराज की तेलगू भाषा में रची रचनाओं, खासकर राम की प्रषंसा में रचे शब्दों को उन्होंने इस दौर में जैसे फिर से पुर्नजीवित किया। कर्नाटक संगीत के रागों में आरभी, आदि तालम् में गाया उनका ‘सीता कल्याण-वैभागमी’ राम-सीता विवाह के बहाने प्रकृति का मधुर वर्णन है। भोर, सूर्यादय, पेड़-पौधों पर खिले फूल, जीवने की उमंग की जैसे उन्होंने अपने इस गान में सुमधुर व्यंजना की है। उन्हंे सुनते लगेगा, भाषा भेद समाप्त हो गया है। रह गया है तो बस संगीत।
कर्नाटक संगीत का अर्थ है प्राचीन, पारम्परिक। कभी 14 वीं से 16 वीं सदी में विद्यारण्य, रामामात्य, विट्ठल आदि संगीत विभूतियों ने इस संगीत को अपार लोकप्रिय किया। पुरंदरदास ने संस्कृत और कन्नड़ में संगीत के माध्यम से उपदेष जन-जन तक पहुंचाए। और फिर चैन्नई वैद्यनाथ भागवतार, एस.एस.सुब्बालक्ष्मी की परम्परा को आगे बढ़ाने का कार्य कर्नाटक संगीत में डाॅ. बालामुरलीकृष्ण ने किया। उनके गाए कीर्तन ईष्वर की संगीताराधना है। यह सही है, कर्नाटक संगीत में कृतियां राग और निष्चित ताल में निबद्ध होती है। उनसे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। बालाकृष्णमूरली ने भी कृतियों, कीर्तन संतो या वाग्येयवात की रचनाओं को निष्चित राग और ताल में ही गाया पर अपने मौलिक अंदाज का घोल उन्होंने उनमें किया। माने वह अपने मन के भावों को निष्चित राग-ताल में इस कदर अलंकृत करते कि गान में उनका अपना एक नया मुहावरा बना। ऐसा जो सुनने वालों को गाने वाले के मनोभावों की गहराई में ले जाता। इसीलिए कहें, उनका गान तन-मन को रंजित करता अंतर्मन संवेदनाओं का अनूठा उजास बिखेरने वाला था।
डाॅ. बाला कृष्ण मुरली ने बहुत से नए राग भी कर्नाटक संगीत को दिए। बहुत सारी बंदिषे भी बनाई पर सबसे बड़ी बात यह कि उन्हें अपनी संगीत साधना से गान में शोभायमान किया। वह गाते तो स्वयं उसमें डूब जाते, या कहें लीन हो जाते। कीर्तन में पदों को राग में निभाने का उनका अपना मौलिक अंदाज है। सही और भावुक उच्चारण! भाव भरा, नेह से ओत-प्रोत। स्वर सौंदर्य लिए। शायद इसलिए कि रागों पर और ताल पर उनका पूरा कलात्मक अधिकार था। रागमानिलका, तालमालिका, वर्णम् के बंधे नियमों के बावजूद उन्होंने अपने गायन का सर्वथा नव्य कर्नाटकी संगीत मुहावरा बनाया। वह मृदंगम्, घटम्, मंजीरा और बांसूरी, वायलिन, वीणा वादन भी करते थे। इसीलिए संगीत से जुड़ी सूक्ष्म सूझ उनमें भी। मुझे लगता है, उनका संगीत मनोधर्म संगीत है। अपने संगीतानुभव से सिरजा हुआ। कल्पना और मौलिक दीठ के साथ भावों का अनूठा भव ही तो है उनका संगीत!
उन्हें गाते हुए सुनेंगे तो यह अहसास भी बारम्बार होता है कि वह अंतर्मन संवेदनाओं में संगीत को ही ओढ़ते और बिछाते थे। यह महज संयोग ही नहीं है कि ‘माधवाचार्य’ फिल्म के संगीत निर्देषन के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और अर्सा पहले आई इस फिल्म में उनके गाए ‘वंदे वन्ध्यम सदानंदम वासुदेवम...’ को सुनेंगे तो पाएंगे लोकप्रिय माध्यम में भी उन्होंने संगीत की शास्त्रीयता की विरल दीठ को संजोया था। ‘हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत घरानों की दिग्गज हस्तियों के साथ उन्होंने जुगलबंदी की। तेलगू फिल्म ‘भक्त प्रहलाद’ में उन्होंने अभिनय भी किया और कभी रवीन्द्र संगीत की रचनाओं को बांग्ला भाषा में रिकाॅर्ड भी किया परन्तु जो भी किया, उसमें सुने-गुने को ही फिर से नहीं सिरजा बल्कि अपने तई उसे नवीन व्याकरण भी दिया। वह कहते भी, ‘सभी प्रस्तुतियों को मैं चुनौती के रूप में लेता हूं। मैं सभी प्रकार के संगीत को पंसद करता हूं। सब में एक सीख जुड़ी होती है। फ्यूजन विविध प्रकार के संगीत की समझ को संभव बनाता है। मेरे लिए श्रुति माता है और पिता लय। कर्नाटक-हिंदुस्तानी संगीत जैसा कुछ नहीं है। संगीत बस संगीत होता है। संगीत जीवन है। अगर संगीत नहीं है तो फिर जीवन में कुछ भी नहीं है। जैसे सूर्य, चन्द्र और उनका प्रकाष है, ठीक वैसे ही जीवन में संगीत का अस्तित्व है।’
डाॅ. बालामुरलीकृष्ण ने 50 के करीब नए रागों को सिरजा। बहुत सारी बंदिषे बनाई। अपने गाए गीत भी लिखे और संत परम्परागत कृतियां, कीर्तन आदि को अपने तई गुना और फिर से नयी दीठ में बुना। नयी सिरजी रागों पर उनका कहना था, ‘नए राग कंपोज नहीं होते अचानक गाते हुए अपने आप ही सृजित हो जाते हैं। और जब कभी ऐसा होता, मैं उन्हें नोट कर लेता और एक गीत उस राग में कंपोज कर देता।’ वह संगीत को अपना भगवान मानते थे। इसीलिए बार-बार कहते भी थे, ‘मेरा संगीत मेरा भगवान है।’
बहरहाल, आंध्रप्रदेष के संकरागुप्तम में जन्मे मंगलमपल्ली बालामुरली कृष्ण जब 6 वर्ष के थे तभी से गाना शुरू कर दिया था। जब 8 वर्ष के वह थे तभी उन्होंने सार्वजनिक सभाओं में प्रस्तुति प्रारंभ कर दी। उनकी माता उत्कृष्ट वीणावादक थी तो पिता निपुण बांसूरी वादक। माता-पिता के जन्जमात संगीत संस्कारों के साथ ही उन्होंने कर्नाटक संगीत के विद्वान संगीतज्ञ परूपल्ली रामकृष्णया पंटुलु से संगीत की बारीकियां सीखी। तेलगूभाषी होते हुए भी उन्होंने कन्नड़, संस्कृत, तमिल, मलयालम, हिंदी, बंगाली आदि कईं भाषाओं में देष-विदेष में 25 हजार से अधिक साधिकार प्रस्तुतियां दी। पर उन्होंने अपने सीखे को सीखाते हुए नई पीढ़ी को संस्कारित भी किया। जिनमें सीखने की ललक दिखती, उन्हें वे निःषुल्क सीखाते भी। यह सब लिख रहा हूं और उनका गाया सुना हुआ बहुत सारा जेहन में फिर से बसने लगा है।
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