ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, January 14, 2023

निर्गुण शिव से साक्षात् का प्रार्थना पर्व

सक्रांति माने संगमन। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। सूर्य जब एक राशि को छोड़ दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो सक्रांति होती है। बारह राशियां की बारह ही सक्रांतियां होती है। यों सब की सब पवित्र है पर मकर सक्रांति विशिष्ट है। पुराण कहते हैं, सात घोड़ों द्वारा खींचे जाते, एक चक्रीय रथ पर सवार सूर्य जब मकर राशि में प्रवेश कर उत्तर दिशा की ओर प्रयाण करते हैं तो देव जगते हैं। यह महानिशा से जाग की घड़ी है। देवताओं की प्रभात बेला! इसीलिए यह मंगलमय है। यही वह समय होता है जब दिवस माने उज्ज्वलता बढने लगती है और कालिमा से जुड़ी रात्रि छोटी होने लगती है।

राजस्थान पत्रिका, 14 जनवरी 2023

छान्दोग्यपनिषद् में वर्णित मधु विधा के प्रवर्तक महर्षि प्रवाहण हैं। मकर सक्रांति की खोज उन्होंने ही की। अपनी साधना के अनन्तर उन्होंने इसी दिन पंचम अमृत ’मधु’ प्राप्त किया। मकर सक्रांति इसलिए सूर्य का अमृत तत्व की ओर अवगाहन है। यह निर्गुण शिव से साक्षात् की घड़ी है।

 शिव वह जो सकल जगत के सृष्टिकर्ता है। परम मंगलमय उन परमेश्वर का नाम ही सविता है। सविता, आदित्य और सूर्य सब एक ही है-सृष्टि पालक शिव के रूप। 

मकर सक्रांति से सूर्य अपनी अनूठी आभा में गगन मंडल में विराजने लगते हैं। यहीं से  कर्म की शुभ वेला प्रारम्भ होती है। पूरा माघ माह ही पवित्र, उत्सवधर्मी है। दान-पुण्य से जुड़ा माह! मघ संस्कृत शब्द है। अर्थ होता है-धन, स्वर्ण, वस्त्राभूषण, अन्न इत्यादि। इन पदार्थों के दान-पुण्य से जुड़े होने के कारण मकर सक्रांति का एक नाम माघी सक्रांति भी है। माघ मास प्रकृति से जुड़ा प्रार्थना पर्व है। 

आईए, सप्तरंगी सूर्य से, शिव से हम इस पर्व पर अर्चा करें, ’हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान का प्रकाश मिले।’

कहते हैं, वह मकर सक्रांति ही थी जब गंगा राजा सगर के शापित साठ हजार पुत्रों का उद्धार किया। देवताओं की प्रभात बेला पर शरीर त्यागने के लिए शांतनु पुत्र भीष्म शरशय्या पर लेटे रहे। उन्हें पिता से ईच्छा मृत्यु का वर प्राप्त था, सो उन्होंने प्रतीक्षा की- सूर्य उत्तरायण में प्रविष्ट हो तो प्राण तजूं! यही हुआ भी।

गुजरात, महाराष्ट्र में इस दिन घरों के बाहर लोग रंगोली सजाते हैं। एक-दूसरे से हिल-मिल तिल-गुड़ खिलाते हैं और कहते हैं, ’तिल गुड़ध्या आपि गरुड़ गरुड़  बोला’ माने तिल गुड़ लो और मीठे बोल बोलो। यही वह समय भी होता है जब हर ओर, हर छोर आकाश पतंगों से भर जाता है। 

मुझे लगता है, मकर सक्रांति का पतंगों से नाता भी प्रभु से की जाने वाली प्रार्थनाओं से ही जुड़ा है। बचपन से एक भजन सुनता आया हूं, ’साईं मैं तेरी पतंग।...थामे रहना जीवन की डोर।’ पूरे भजन का अर्थ है-हे ईश्वर! मैं तेरी पतंग हूं। हवा में उड़ती जाऊंगी, डोर मत छोड़ना। सांसारिक आकाश में कितने जंजाळ हैं उलझने मत देना। पेच लड़ गया तो कट जाऊंगी। बचाकर रखना। 

रामकृष्ण परमहंस ने भी कहा, ’मां ने आत्मा की पतंग को ऊपर उड़ा रखा है पर माया की डोर से बांधे हुए है अपने साथ। मां की कृपा होगी वही मुक्त होगा। सोचता हूं, प्रार्थना के ऐसे स्वर ही मकर सक्रांति पर पतंग उड़ाने के हेतु बने होंगे। तमसो मा ज्योतिर्गमय!


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