ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, July 23, 2022

सार्थक हस्तक्षेप के लिए हो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के इस दौर में बोलने, विचार व्यक्त करने की अभिव्यक्ति के नाम पर शोरगुल चिंतनीय है। बहुतेरी बार यह भी लगता है, अपनी स्थापनाओं के लिए, अपने आप को प्रचारित—प्रसारित करने भर के लिए ही बहुत कुछ बगैर सोचे—समझे कहाँ, व्यक्त किया जा रहा है।  किसी भी विचार का, व्यक्ति का या भावना का विरोध करना है, बस इसलिए ही बहुतेरी बार सक्रियता दिखाई देती है। पहले कोई कुछ भी कहता तो उसकी इस रूप में सुनवाई नहीं हो सकती थी कि मीडिया का प्रसार सीमित था। इस दौर में प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ वेब मीडिया का जिस तेजी से प्रसार हुआ है और पल—पल की घटनाओं को दिखाने, प्रसारित करने की जो होड़ मीडिया में मच रही है, उसने भाषा और संवेदना में ही छीजत नहीं की है, बल्कि मानवीय मूल्यों को भी तिरोहित किया है।

यह सही है, लोकतंत्र में आपको सहमत होने की जरूरत नहीं है परन्तु याद रखें—असहमति का आधार और तर्क भी बताना होता है। सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है, यही लोकतंत्र की बड़ी ताकत है पर बात रखने की मर्यादा भी इसमें निहित है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का निहितार्थ यह भी है कि आपकी यह स्वतंत्रता दूसरों की स्वतंत्रता को बाधित नहीं करें।

‘वाक् स्वतंत्रता’ के अंतर्गत अभिव्यक्ति की आजादी सबको है। उनको भी जो कुछ लिखते या नया सृजित कर अपने आपको व्यंजित करते हैं और उनको भी जो उसका विरोध करते हैं परन्तु जैसा कि पहले भी कहा गया है कि असहमति हो परन्तु उसके आधार भी स्पष्ट होने चाहिए। तमिल लेखक पेरुमल मुरूगन ने अपने विरोध के चलते कभी अपने आपको जिंदा मृत घोषित कर लेखन से संन्यास ले लिया था पर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के चलते अपने आपको फिर से जिंदा होने की अनुभूति उन्होंने की। उनकी कविता की पंक्तियां पर गौर करें, ‘एक फूल खिलता है/चटकने के बाद/तीव्र सुगंध/मधुर अभिव्यक्ति/फूल खिलेगा/स्थापित करेगा/सबकुछ।’
जेम्स स्टुअर्ट मिल का प्रसिद्ध कथन है कि ‘मान लीजिए एक मनुष्य एक तरफ है और सारी मनुष्य जाति दूसरी तरफ है। तब भी सारी मानवता को, या मनुष्य जाति को , उस एक मनुष्य की आवाज दबा देने का कोई अधिकार नहीं है। वैसे ही एक मनुष्य में इतनी शक्ति है कि वह अन्य सारे मनुष्यों को दबा सके, पर दबाने का अधिकार उसे नहीं है। यानी यह स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अधिकार की पहली सीमा यही है कि अन्य व्यक्ति के वैसे अधिकार पर अतिक्रमण का आपको अधिकार नहीं है।
राष्ट्रदूत, 23 जुलाई 2022 

यहां इस बात को भी ध्यान में रखें जाने की जरूरत है कि अधिकार के साथ कर्तव्य जुड़ा होता है। अधिकार का जन्म ही कर्तव्य की कोख से होता है। इसे एक उदाहरण से समझा जाए, हमारे यहां न्यायलय ने दुराचार, बलात्कार, पीड़ित का फोटो और नाम जाहिर नहीं किए जाने के आदेश दे रखे है। इसके पीछे मानसिकता यही है कि उस व्यक्ति विशेष को मानहानी से बचाया जा सके। यानि मीडिया को समाचार प्रकाशित करने का अधिकार है परन्तु उसके इस अधिकार के तहत किसी दूसरे की मानहानी नहीं हो, यही न्यायालय के इस आदेश का निहितार्थ हैं। गांधीजी ने कभी कहा था, ‘ हर अधिकार का उपयोग शिष्टतापूर्वक और विश्वस्त भावना से करना चाहिए। तुम्हें जो अधिकार या क्षमता प्रदान की गयी है, वह तुम्हारी मिल्कियत नहीं है, तुम उसके मालिक नहीं हो,  सिर्फ ट्रस्टी हो। अधिकार का उपयोग दूसरों की भलाई के लिए करो, यह तुम्हारा दायित्व है।’
वाक् स्वतंत्रता संविधान का मूल अधिकार है और उसके मायने है- सार्थक हस्तक्षेप। उचित के पक्ष में हस्तक्षेप जरूरी है, यही आपकी अभिव्यक्ति का अधिकार है। प्रतिदिन समाचार पत्रों के मुखपृष्ठ पर प्रायः पॉकेट कार्टून छपता है। गौर करेंगे तो पाएंगे- कार्टूनिस्ट समाज में, राजनीति में बल्कि व्यापक अर्थ में कहें तो लोकतांत्रिक प्रणाली में जो कुछ हो रहा है उस पर रेखाओं से अपने तईं हस्तक्षेप करता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह ऐसा उदाहरण है जिसमें प्रायः सार्थक हस्तक्षेप होता है। ऐसे ही किसी घटना विशेष पर समाचार पत्र संपादकीय प्रकाशित करता है, समाचार चैनल विश्लेषण देता है, यह सब वाक् स्वतंत्रता ही है। सोचिए लोकतंत्र में ऐसा नहीं हो, केवल चुप्पी ही रहे तो क्या आजादी की हमारी मूल भावना कायम रह सकती है! दिनकर को याद करें। कभी उन्होंने लिखा था, ‘जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध।’ लोकतंत्र की जीवतंता सक्रिय हस्तक्षेप से ही है। पर ध्यान रखने की बात यह भी है कि अंतरात्मा की बात सुनें पर इस तरह से कि दूसरों को उसकी कीमत न चुकानी पड़े । हस्तक्षेप का अर्थ यह नहीं है कि आप बगैर किसी आधार के, अपने आपको स्थापित करने के लिए कुछ करें, कार्टून बनाए, कोई टीवी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दें। उन्मुक्तता हस्तक्षेप नहीं है। हस्तक्षेप मनमानी नहीं है। हर कोई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपने आपको व्यक्त करने को बेचैन रहता है। ठीक है आप अपने आपको रोक नहीं सकते परन्तु व्यंजित अपने को करें तो मर्यादा का भी ध्यान रखें। जो कहें, व्यक्त करें उसमें मानवीय सूझ हो। विचार बांटे परन्तु उससे किसी दूसरे की गरिमा का हनन नहीं हो। कुछ कहें पर बगैर प्रमाण या किसी आधार को दृष्टिगत रखते हुए अपना मत रखें।
यह सही है, बोलने की आजादी जनोन्मुख चेतना की संवाहक है परन्तु इसका बेजा इस्तेमाल बहुतेरी बार देश में उन्माद फैलाने का काम भी करता है। इसलिए इस बात को भी देखा जाना चाहिए कि बोलने या विचारों को किसी भी रूप में व्यक्त करने की आपकी आजादी से दूसरा कोई आहत तो नहीं हो रहा है। प्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत ही पूर्ण रूप से अपनी बात कहने, विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता है लेकिन परम स्वतंत्रता नहीं है। संविधान सभा में डॉ. अम्बेडकर का कहा यहां गौरतलब है। उन्होंने संविधान सभा में स्पष्ट कहा था कि प्रेस को ऐसे कोई विशेषाधिकार नहीं दिए जा सकते जो आम नागरिक को प्राप्त नहीं हैं। प्रेस में संपादक, संवाददाता और लेखक अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का प्रयोग करते हैं। इस कारण से किसी विशेष उपबंध की आवश्यकता नहीं है।  संविधान के अनुच्छेद 19(1)ए में ‘’भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार’’ का उल्लेख है, लेकिन उसमें यह गौरतलब है कि शब्द ‘’प्रेस’’ का जिक्र नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र के लिए जरूरी है इसलिए निर्भय होकर इसका उपयोग किया जा सकता है परन्तु इसमें निहित जिस मर्यादा की अपेक्षा की गई है उसकी पालना भी जरूरी है।
लोकतंत्र में लोगों को जागरूक करने, की बात व्यापक स्तर तक पहुंचाने या कहें लोकतंत्र के सही तरीके से क्रियान्वयन के लिए प्रेस की आजादी जरूरी है। प्रेस के जरिए ही तमाम तरह की सूचनाएं निर्बाध आम जन तक पहुंचती है, इसीलिए प्रेस की आजादी को लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण और जरूरी माना गया है। परन्तु इस बात को ध्यान में रखा जाना जरूरी है कि विधायिका को प्राप्त विशेषाधिकार का प्रेस हनन नहीं करें। संसद और विधानसभाओं में सदनों ,की शक्तियों को और उनके सदस्यों को विशेषाधिकार प्राप्त हैं। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 105 में संसद और 194 के अंतर्गत विधान मंडलों के विशेष अधिकारों का वर्णन किया गया है। इसी तरह अनुच्छेद 105(3) में संसद की शक्तियों 194(3) में विधायकों के शक्तियों (विशेषाधिकार) को बताया गया है। देश के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश और बाद में भारत के उपराष्ट्रपति (सभापति) बने न्यायमूर्ति एम.हिदायतुल्ला ने संसदीय विशेषाधिकारों के संबंध में कहा है कि संसद को अपने विशेषाधिकारों का निर्णय करने का पूर्ण अधिकार है। विशेषाधिकारों का विस्तार क्या हो और इनका प्रयोग सदन के भीतर कब किया जाये ,इस बारे में भी अंतिम निर्णय संसद का ही होगा। इसके अंतर्गत अपनी अवमानना के लिए दोषी व्यक्ति को सजा देने का अधिकार भी संसद को ही है।
विधायिका में किसी सदस्य के द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती और सदन के प्राधिकार के अधीन प्रकाशित किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में भी कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। संसद और विधानसभाओं, विधानमंडलों की रिपोर्टिंग के लिए विशेषाधिकार और आचार संहिता की पालना जरूरी है। इसे इस रूप में भी समझें कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर संसद की कार्यवाही या विधानसभा की कार्यवाही को मीडिया में हूबहू प्रकाशित या प्रसारित नहीं किया जा सकता। इसलिए कि वहां पर यदि कोई कार्यवाही सदन से हटा दी जाती है या अध्यक्ष द्वारा ऐसी व्यवस्था दे दी जाती है कि वह कार्यवाही बाहर नहीं जाएगी तो उसे प्रकाशित-प्रसारित नहीं किया जा सकता।

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